Monday, December 28, 2009

शब्द न मैं दे पाती हूँ



" शब्द न मैं दे पाती हूँ "

शब्दों के बस महाजाल में
उलझ उलझ रह जाती हूँ
लब तो है कहने को उद्धत
कुछ न मैं कह पाती हूँ


भावों की न कमी नयनों में
बस समझ उन्हें न पाती हूँ
उनके नम उद्गारों से क्यों
खुद विचलित हो जाती हूँ


अभिलाषा मेरे स्वभाव का
बस मुखर नहीं हो पाती हूँ
अंतर्मन की भाषा को क्यों
आत्मसात कर जाती हूँ


अंतर्द्वन्द को लिए ह्रदय में
उलझ स्वयं ही जाती हूँ
यह कैसी विह्वलता मेरी
शब्द न मैं दे पाती हूँ

- कुसुम ठाकुर -



Friday, December 18, 2009

जुस्तज़ू

"जुस्तज़ू "

प्यार मैं जो करूँ क्यों बगावत करूँ
कैसे अब मैं न उसकी इबादत करूँ

क्या खता थी मेरी मुझे नहीं है पता
किससे शिकवा करूँ क्या शिकायत करूँ

लब सिले हैं मेरे पर पशेमाँ भी हैं
कैसे इज़हार करूँ न अनायत करूँ

जुस्तज़ू थी मेरी जो मुझे मिल गई
इक कशक आबरू की हिफाज़त करूँ

सब कुसुम सा खिले मुस्कुराए दुनिया में
किसी को भला क्यों मैं आहत करूँ

- कुसुम ठाकुर -

Wednesday, December 16, 2009

बचपन

" बचपन "

याद मुझे बच्चों का बचपन ,
और याद उनका भोलापन ।
भाते थे उनका तुतलाना ,
और सदा उन्हें बहलाना ।

बचपन उनका बीता ऐसे ,
आँख भींचते रह गयी मैं जैसे।
चाहूँ बस स्मृतियों में वैसे ,
संचित कर रख पाऊँ कैसे।

सोच सोच मैं सुख पाऊँ
बिन सोचे न रह पाऊँ
नैनों को बस भरमाऊँ
और स्वयं ही मुस्काऊँ

- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, December 15, 2009

मूल्य है हर पल का



"मूल्य है हर पल का"


मूल्य है हर उस पल का ,
चाहे सुख या दुःख के हों ।
दुःख की घड़ियाँ न रहे सब दिन ,
तो सुख की आस निरंतर क्यों हो ।


जो दुःख की घड़ियाँ सहज सँग हो ,
तो सुख बाँटन में भी सुख हो ।
जो मिल जाए, और विश्वास सँग हो ,
तो सुख और दुःख में भेद कम हो ।


सुख में उल्लास बढे विश्वास ,
दुःख में ही पहचान भी तो हो ।
आवे न जो दुःख, इस जीवन में ,
तो सुख का मोल, भी तो कम हो ।।

- कुसुम ठाकुर -


Wednesday, December 9, 2009

खोकर भी पाया इसी जिन्दगी से

" खोकर भी पाया इसी जिन्दगी से"

दिया है बहुत कुछ इस जिन्दगी ने
हँसाकर रुलाया इसी जिन्दगी ने

मझधार में भी छोड़ा जिन्दगी ने
डूबने से उबारा पर जिन्दगी ने

मैं सम्भली नहीं सम्भाला किसी ने
मुझे गर्त में जाने से उबारा किसी ने

करूँ जब शिकायत इस जिन्दगी से
चमत्कार दिखा दे जीवन में फ़िर से

मैं जो कुछ भी चाहूँ इस जिन्दगी से
रागनी बनकर छाये न जाए जिन्दगी से

मैं तो घबरा गयी विषम जिन्दगी से
है खोकर भी पाया इसी जिन्दगी से

- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, December 8, 2009

भास्कर श्वेता को शादी की सालगिरह की अनेक शुभकामनाएँ और आशीर्वाद !!

"आशीर्वाद "

करूँ याद रिश्ते का यह दिन ।
हो ह्रदय में सदा कहे मेरा दिल।।

चलो साथ सदा भावे मुझको वह।
दूँ आशीष , कर उठे मेरा यह ।।

जब भी कहूँ, कहूँ बस यही कि ।
सँग दो तुम सदा एक दूजे का ।।

ज्यो हो विश्वास एक दूजे पर ।
आसान डगर तब जीवन भर ।।

- कुसुम ठाकुर -

प्रिय श्वेता/ भास्कर
शादी की सालगिरह की अनेक शुभकामनाएं और आशीर्वाद !!

8 December 2009

Monday, December 7, 2009

कैसे भूलूँ उस पल को !

"कैसे भूलूँ उस पल को यूँ "


कैसे भूलूँ उस पल को यूँ ,
जिसकी तपिश न हुई हो कम ।
दग्ध करे अब भी हर पल ,
थे अवसादों से भरे वे क्षण ।

चाही तो बस इन नयनों से ,
काश ! साथ वे दे पाते ।
अंसुवन को वश में रख लेती ,
तब भी यह दिल भर आता ।


याद जिसे करना चाहूँ मैं ,
उसे तो मैं फ़िर भी भूलूँ ।
पर बीच में वह मंज़र आ जाता ,
उस पल को कैसे भूलूँ ।।

- कुसुम ठाकुर -

Saturday, December 5, 2009

H1 N1 का पूना में प्रकोप और नागरिकों में दहशत !

पूना में बहुत से अन्तराष्ट्रीय स्कूल हैं जिसकी वजह से बच्चों का बाहर के देशों से आना जाना लगा रहता है। अगस्त महीने में पूना में जब स्वाइन फ्लू का प्रकोप सामने आया और एक के बाद एक लोंगों की मृत्यु इस बीमारी से होने लगी तो आम नागरिकों के बीच एक दहशत सी फ़ैल गई । सरकार का स्कूल , कॉलेज, सिनेमा घरों एवं शौपिंग मॉल का बंद करना आग में घी का काम कर गया । आम नागरिकों की मनोरंजन गतिविधियाँ जैसे थम सी गई।

इस सब के बावजूद अच्छी बात यह है कि लोंगो में सफाई और स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ी । पर क्या आम जनता को यह ज्ञान है कि उन्हें कौन सी एहतियात बरतनी चाहिए ? सुन लिए मास्क लगाना चाहिए बस दौड़ पड़े मास्क लेने । पूरा शहर यदि जागरूक हुआ तो वह था मास्क के प्रति । मास्क की बिक्री बढ़ गई। कुछ अच्छे ब्रांड की तो काला बाजारी भी होने लगी । हर नुक्कड़ हर दूकान पर मास्क उपलब्ध होने लगा । यहाँ तक कि पान वाले भी मास्क बेचने लगे । घरों और दफ्तरों की साफ़ सफाई करने वाले सफाई कर्मचारी भी मास्क लगाकर काम करने लगे भले ही उनको इसका ज्ञान न हो कि मास्क क्यों लगाईं जाती है और इसके क्या फायदे हैं ।

दफ्तरों में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा । डेटोल साबुन एवम सफाई करने वाले अन्य रासायनिक पदार्थों की बिक्री और खर्च बढ़ गई ।

कुछ सप्ताह सारे स्कूल, कॉलेज , सिनेमा घर इत्यादि को बन्द करने का प्रशासन ने आदेश दे दिया और बन्द भी रहे। पर कितने दिनों तक बन्द रहते , फिर से खुल गई है और लगा गाड़ी फिर से पटरी पर आ गई । पर स्वाइन फ्लू का दहशत कम नहीं हुआ , डर तो अब तक बनी हुई है । कोई जरा सा छींका नहीं कि लोग उसे घूर कर देखने
लगते हैं । जरा सी सर्दी और बुखार से ही लोग घबरा जाते हैं, चाहे वह साधारण फ्लू ही क्यों न हो । सबके दीमाग में
एक ही बीमारी घूमती है , वह है स्वाइन फ्लू । कहीं यह स्वाइन फ्लू तो नहीं ? सारे स्कूल ,कॉलेज दफ्तर में स्पष्ट हिदायत है , जरा सी सर्दी बुखार हो तो न आयें । ऐसा माहौल है पर क्या पूरे शहर के लिए दो ही अस्पताल काफी है , जहाँ स्वाइन फ्लू की जांच होती है ? क्या "Tamiflu " हर मरीज़ को उपलब्ध हो पाता है या अब भी समय पर इसकी जाँच की सुविधा पर्याप्त है ?

मुझे एक वरिष्ट डॉक्टर से मिलने का मौका मिला था और मैं उनसे स्वाइन फ्लू के विषय में पूछ बैठी थी । उस समय उन्होंने बताया था , अभी पूरी तरह से यह बीमारी नहीं फैली है , न रोकी जा सकी है । महामारी का अंदेशा अब भी काफी है । आज वह सच साबित हो भी रहा है ठंढ में फ़िर से स्वाइन फ्लू का प्रकोप बढ़ गया है ।

Thursday, December 3, 2009

मुझको कब यह वक्त मिला

"मुझको कब यह वक्त मिला "

मुझको कब यह वक्त मिला
कि सोच सकूँ क्या है भला
और क्या बुरा मेरे जीवन
की इस तन्हाई मे ।

मैं कहाँ समझ पाई अपने
अन्दर के उन भावों को
और जो समझूं तो करूँ मैं कैसे
सिंचित उन ख्वाहिशों को ।

पाई ख़ुद को वीराने में
सोची उसको क्षणिक प्रपंच
जीवन का यह सफ़र भी लंबा
  लगता न  कम रेतीला ।

साथ मिला बस चन्द कदमों का
नेह तो अब भी हुआ न कम
साथ साथ तो चल न पाए
पथ प्रदर्शक बन गए हो तुम ।।

- कुसुम ठाकुर -

Monday, November 30, 2009

मेरे दोस्त को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई !































"जन्मदिन "

चाहूँ मैं कहना बहुत कुछ ,
पर शब्दों की बंदिश न भाए ।
उपहार मैं चाहूँ कुछ देना ,
दूँ क्या यह समझ न आए ।
अपनी भावनाओं को कैसे ,
करुँ आज मैं व्यक्त ।
भावना तो मूक ही होती ,
स्नेह स्वरुप मैं लाई हूँ ।

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई !

-कुसुम -

Wednesday, November 25, 2009

पूर्ण विराम

पूर्ण विराम

सुना जब कहते हुए कि _
अर्ध विराम उनके जीवन में ,
इसकी तो कल्पना भी न थी ।
देखी जब मैं हूँ अकेली ,
गयी पास कही कानों में _
कुछ तो बोलो हो क्यों चुप ?
पर वह चुप्पी ऐसी कि ,
स्वप्न क्या तंद्रा भी टूटी ।
सारे सपने और लगी भी छूटी ,
पर मन माना न फ़िर भी ।
मन को देते हुए सांत्वना ,
बढ़ी ज्यों ही ठिठक गयी फ़िर ।
कानों को विश्वास न हुआ ,
सोची यह तो अर्ध विराम ।
लांघ इसे फ़िर बढ़ जाएगा ,
पर क्षण भर में ही भ्रम टूटा ।
लगा पूर्ण विराम और वह छूटा ।।

- कुसुम ठाकुर -




Monday, November 23, 2009

मुझे मेरा बचपन लौटा दो

" मुझे मेरा बचपन लौटा दो "

मुझे मेरा बचपन लौटा दो ,
कदम्ब तो नहीं झूले पर झुला दो ।

याद नहीं माँ की थपकी ,
और न मधुमय तुतलाना ।
स्मरण नहीं वे लम्हें अब तो ,
उन लम्हों को शाश्वत ही बना दो ।
मुझे मेरा ...................... ।

परीकथा की परी समझ ख़ुद ,
आते होठों पर मुस्कान ।
मेरे मन के निश्चल भावों को ,
पल भर को ही पंख लगा दो ।
मुझे मेरा ................... ।

अभिमानी अंचल मे भर दो ,
विपुल भावनाओं का हार ।
भोलापन यदि हो ना सम्भव ,
चंचलता थोड़ा ही सिखा दो ।
मुझे मेरा .................... ।

-कुसुम ठाकुर -

Tuesday, November 17, 2009

संस्मरण (दूसरी कड़ी )

मुझे अपने बचपन की बहुत कम बातें ही याद , पर कुछ बातें जिसे माँ बराबर दुहराती रहती थी और हमेशा सबको बताती थी, वह मानस पटल पर इस तरह बैठ गए हैं कि अब शायद ही भूल पाऊँ । उनमें कुछ हैं मेरे और मेरे भाई के बीच का प्रेम।


मेरे बाबूजी उस समय भूटान में थे , मैं और मेरा भाई दोनों ही बहुत छोटे थे । उन दिनों मैं और मेरा भाई जिसे प्यार से हम बौआ कहते हैं और मुझसे १५ महीना छोटा है माँ के साथ दादी बाबा के पास रहते थे । हम दोनों भाई बहनों में बहुत ही प्यार था । बौआ तो फ़िर भी कभी कभी मुझे चिढा देता या मार भी देता था पर मैं उसे बहुत मानती थी । कभी कभी तंग करता तो उसे धमकी देती कि "मैं बाबुजी के पास चली जाऊँगी "। बौआ को यह अच्छा नही लगता था।


मुझे यह तो याद नहीं है कि उस दिन हुआ क्या था पर यह अच्छी तरह से याद है कि बौआ ने मुझे किसी बात को लेकर चिढाया और मैं बहुत रोई । उस दिन भी मैं और दिनों की भाँति उसे धमकी दी कि मैं बाबुजी के पास चली जाऊँगीपर वह न माना ।हम दोनों बाहर में खेल रहे थे, बस क्या था मैं वहीं से रोते हुए यह कह कर चल पड़ी कि मैं बाबुजी के के पास जा रही हूँ । बौआ को इसकी उम्मीद न थी कि मैं सच चल पडूँगी और मुझे जाता देख वह भी मेरे पीछे पीछे बढ़ने लगा। आगे आगे मैं रोती हुई जा रही थी, पीछे -पीछे बौआ "दीदी मत जाओ , बीच बीच में कहता " मेरी दीदी भागी जा रही है "। इस तरह से हम दोनों भाई बहन रोते हुए सड़क के किनारे तक पहुँच रुक गए । वहाँ एक बड़ा सा आम का बागीचा था और उस जगह पता नही क्यों मुझे बहुत डर लगता था , अतः उसके आगे न बढ़ पाई और वहीँ से रो रो कर बाबूजी को पुकारने लगी । मैं रो रो कर कहती "बाबुजी आप जल्दि आ जाईये बौआ मुझे चिढाता है "। मैं जितनी बार यह कहती बौआ भी रोते हुए कहता "दीदी मत जाओ अब मैं तुमको कभी नहीं मरुंगा न चिढाऊँगा घर चलो "। हम दोनों का इस तरह से रोना और मनाना उस रास्ते से जाता हुआ हर व्यक्ति देख रहा था और सब ने मानाने की कोशिश भी की पर हम न माने । अंत में सड़क पर भीड़ जमा हो गयी और उन्ही लोगों में से किसी ने जाकर बाबा दादी को हमारे बारे में बताया और दादी आकार हमें ले गयीं । घर जाने के बाद जब माँ हमसे पूछीं कि क्या हुआ तो मैं कुछ न बोली चुप रह गयी, अंत में बौआ से जब माँ ने पूछा तो वह सारी कहानी बता दिया ।

क्रमशः ............

Sunday, November 15, 2009

भड़ास

"भड़ास " 
 राज बाल की हिम्मत को
दिया चुनौती कईयों ने
पत्रकार तो पत्रकार
चिट्ठाकार भी कम नहीं
पत्रकारों ने बिक्री बढ़ाई
अखबार और पत्रिकाओं की
दूरदर्शन ने टी आर पी बढ़ाई
नेताओं के झूठे मंतव्यों से
फिर चिट्ठाकार क्यों पीछे रहें
हमने अपने चिट्ठों से
राज बाल के मंतव्यों के
बिना जड़ों को दिखाए हुए ही
सुशोभित किया अपने ब्लोगों को
कुछ चिट्ठाकार न रच पाए तो
उन्हें भी अफ़सोस नहीं
निकाल दिया अपनी भडास को
प्रतिक्रिया देकर चिट्ठों पर ।। 
 - कुसुम ठाकुर -

Thursday, November 12, 2009

मेरा १०० वाँ पोस्ट

(मेरा १०० वाँ पोस्ट मेरे उस साथी को समर्पित जिसने मुझ पर विश्वास किया ।)

"जीवन तो है क्षण भंगुर"

बिछड़ कर ही समझ आता,
क्या है मोल साथी का ।

जब तक साथ रहे उसका,
क्यों अनमोल न उसे समझें ।

अच्छाइयाँ अगर धर्म है,
क्यों गल्तियों पर उठे उँगली ।

सराहने मे अहँ आड़े,
अनिच्छा क्यों सुझाएँ हम ।

ज्यों अहँ को गहन न होने दें,
तो परिलक्षित होवे क्यों ।

क्यों साथी के हर एक इच्छा,
को मृदुल-इच्छा न समझे हम ।

सामंजस्य की कमी जो नहीं,
कटुता का स्थान भी न हो ।

कहने को नेह बहुत,
तो फ़िर क्यों न वारे हम ।

खुशियों को सहेजें तो,
आपस का नेह अक्षुण क्यों न हो ।

दुःख भी तो रहे न सदा,
आपस में न बाटें क्यों ।

जो समर्पण को लगा लें गले,
क्यों अधिकार न त्यागे हम ।

यह जीवन तो है क्षण भंगुर,
विषादों तले गँवाएँ क्यों ।।

-कुसुम ठाकुर -

संस्मरण

एक बार मुझे किसी पत्रिका के लिए कुछ लिखने को कहा गया। मैं बस इतना ही लिख पाई मैं क्या लिखूं मेरी तो लेखनी ही छिन गयी है। पर आज महसूस करती हूँ कि मुझे एक अलौकिक लेखनी और उस लेखनी के रचना की जिम्मेदारी दे दी गयी है। न जाने क्यों आज लिखने की इच्छा हो रही है।

मैं तो केवल अपनी अभिव्यक्ति किया करती थी लेखनी और लिखने वाला तो कोई और था। उसके सामने मैं अपने आप को उसकी सहचरी, शिष्या एवं न जाने क्या क्या समझ बैठती थी। क्या उनकी कभी कोई रचना ऐसी है जो मैंने शुरू होने से पहले तीन चार बार न सुनी हो, या यों कह सकती हूँ कि लगभग याद ही हो जाता था। एक एक पात्र दिमाग मे इस प्रकार बैठ जाते थे कि एक सच्ची घटना सी मानस पटल पर छा जाता था ।

अदभुत कलाकार थे। एक कलाकार मे एक साथ इतने सारे गुण बहुत कम देखने को मिलता है। एक साथ लेखक निर्देशक, कलाकार सभी तो थे वो। मुझे क्या पता कि ऐसे आदमी का साथ ज्यादा दिनों का नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति की भगवान को भी उतनी ही जरूरत होती है जितना हम मनुष्यों को। परन्तु यदि ईश्वर हैं और मैं कभी उनसे मिली तो एक प्रश्न अवश्य पूछूंगी कि मेरी कौन सी गल्ती की सज़ा उन्होंने मुझे दी है। मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, न ही भगवान से कभी कुछ मांगी। मैं तो सिर्फ़ इतना चाही थी कि सदा उनका साथ रहे।

यह शायद किसी को अंदाज़ भी न हो कि मुझे हर पल हर क्षण उनकी याद आती है और मैं उन्ही स्मृतियों के सहारे जिंदा हूँ और अपनी जीवन नैया खिंच रही हूँ। उनका प्यार ही है जो मैं अपने आप को संभाल पाई। इतने कम दिनों का साथ फिर भी उन्होंने जो मुझे प्यार दिया, मुझ पर विशवास किया वह मैं किसे कहूं और कैसे भूलूँ ? मैं कैसे कहूं कि अभी भी मैं उन्हें अपने सपनों में पाती हूँ। मैं जब भी उनकी फोटो के सामने खड़ी हो जाती हूँ उस समय ऐसा महसूस होता है मानो कह रहे हों मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।

उनके जाने के बाद मैं ठीक से रो भी तो नहीं पाई। बच्चों को देखकर ऐसा लगा यदि मैं टूट जाउंगी तो उन्हें कौन सम्भालेगा। परन्तु उनकी एक दो बातें मुझे सदा रुला देतीं हैं। ऊपर से मजबूत दिखने या दिखाने का नाटक करने वाली का रातों के अन्धकार मे सब्र का बाँध टूट जाता है।

एक दिन अचानक बीमारी के दिनों मे इन्होने कहा " मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा"? उनकी यह वाक्य जब जब मुझे याद आती है मैं मैं खूब रोती हूँ। क्यों कहा था ऐसा ? एक दिन अन्तिम कुछ महीने पहले बुखार से तप रहे थे। मैं उनके सर को सहला रही थी । अचानक मेरी गोद मे सर रख कर खूब जोर जोर से रोते हुए कहने लगे इतना बड़ा परिवार रहते हुए मेरा कोई नहीं है। मैं तो पहले इन्हें सांत्वना देते हुए कह गयी कोई बात नहीं मैं हूँ न आपके साथ सदा। परन्तु इतना बोलने के साथ ही मेरे भी सब्र का बाँध टूट गया और हम दोनों एक दूसरे को पकड़ खूब रोये। यह जब भी मुझे याद आती है मैं विचलित हो जाती हूँ। मुझे लगता है उनके ह्रदय मे कितना कष्ट हुआ होगा जो ऐसी बात उनके मुँह से निकली होगी।

वैसे मैं शुरू से ही भावुक हूँ परन्तु इनकी बीमारी ने जहाँ मुझे आत्म बल दिया वहीँ मुझे और भावुक भी बना दिया। मैं तो कोशिश करती कि कभी न रोऊँ पर आंसुओं को तो जैसे इंतज़ार ही रहता था कि कब मौका मिले और निकल पड़े। इनके हँसाने चिढाने पर भी मुझे रोना आ जाता था। एक दिन इसी तरह कुछ कह कर चिढा दिया और जब मैं रोने लगी तो कह पडे तुम बहुत सीधी हो तुम्हारा गुजारा कैसे चलेगा। शायद उन्हें मेरी चिंता थी कि उनके बाद मैं कैसे रह पाउंगी। उनके हाव भाव से यह तो पता चलता था कि वो मुझे कितना चाहते थे पर अभिव्यक्ति वे अपनी अन्तिम दिनों मे करने लगे थे जो कि मुझे रुला दिया करती थी। उनके सामने तो मैं हंस कर टाल जाती थी पर रात के अंधेरे मे मेरे सब्र का बाँध टूट जाता था और कभी कभी तो मैं सारी रात यह सोचकर रोती रहती कि अब शायद यह खुशी ज्यादा दिनों का नहीं है।

मुझे वे दिन अभी भी याद है। मैं उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ । वह तो मेरे लिए सबसे अशुभ दिन था। वेल्लोर मे जब डॉक्टर ने मेरे ही सामने इनकी बीमारी का सब कुछ साफ साफ बताया था और साथ ही यह भी कहा कि इस बीमारी में पन्द्रह साल से ज्यादा जिंदा रहना मुश्किल है। यह सुनने के बाद मुझ पर क्या बीती यह मेरे भी कल्पना के बाहर है। आज मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। मैं क्या कभी सपने मे भी सोची थी कि उनका साथ बस इतने ही दिनों का था। उस रात उन्होंने तो कुछ नहीं कहा पर उनके हाव भाव और मुद्रा सब कुछ बता रहे थे। मैं उनके नस नस को पहचानती थी, या यों कह सकती हूँ कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानते थे। उस रात बहुत देर से ही, ये तो सो गए पर मुझे ज़रा भी नींद नहीं आयी और सारी रात रोते हुए ही बीत गया।

लोग कहतें हैं कि भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है, पर मैं क्या कहूं मेरे तो समझ में ही कुछ नहीं आता? मैं कैसे विशवास करुँ कि उसने जो मेरे साथ किया वह सही है? मैं तो यही कहूँगी कि भगवान किसी को ज्यादा नहीं देता। उसे जब यह लगने लगता है कि अब ज्यादा हो रहा है तो झट उसके साथ कुछ ऐसा कर देता है जिससे फिर संतुलित हो जाता है। मेरे साथ तो भगवान ने कभी न्याय ही नहीं किया। आज तक मेरी एक भी इच्छा भगवान ने पूरी नहीं की या फिर यह कि मैंने एक ही इच्छा कि थी वो भी भगवान ने पूरी नहीं की। मैंने भगवान से सिर्फ़ इनका साथ ही तो माँगा था? पता नहीं क्यों मुझे शुरू से ही अर्थात बचपन से ही अकेलेपन से बहुत डर लगता था। ईश्वर की ऐसी विडंबना कि बचपन मे ही मुझे माँ से अलग रहना पडा। बाबुजी का तबादला गया से जनकपुर फिर अरुणाचल हो जाने की वजह से मुझे उनसे दूर अपनी मौसी चाचा के पास रहना पड़ा। तब से लेकर शादी तक माँ से अलग मौसी के पास रही। उस समय जब मुझे माँ के पास अच्छा लगता था उससे अलग रहना पडा। शादी के बाद लड़कियों को अपने पति के पास रहना अच्छा लगता है। उस समय मुझे कई कारणों से अपनी माँ के पास कई साल तक रहना पड़ा। पहले माँ के पास छुट्टियों मे जाने का इंतजार करती थी बाद मे इनके आने का इंतजार करने लगी। इसी तरह दिन कटने लगा और एक समय आया जब हम साथ रहने लगे। जो भी था चाहे पैसे की तंगी हो या जो भी हम अपने बच्चों के साथ खुश थे और हमारा जीवन अच्छे से व्यतीत हो रहा था। अचानक भगवान ने फिर ऐसा थप्पड़ दिया कि उसकी चोट को भुलाना नामुमकिन है। आज हमारे पास पैसा है घर है बाकी सभी कुछ है पर नही है तो मन की शान्ति, नहीं है तो साथ ।


क्रमशः ............

Saturday, November 7, 2009

संजो रही बस स्मृतियों को




"संजो रही बस स्मृतियों को "


समय भी इतना बदल जायेगा कभी सोची न थी ।
कभी हम भी सोचेंगे अपने लिए सोची न थी ।


हम तो रहते थे प्रतिपल ,
स्नेह सुधा लुटाने को ।
स्वयं के लिए न सोची अब तक ,
आज लगे सब बदला बदला ।
समय भी इतना बदल जाएगा कभी सोची न थी ।
कभी हम भी सोचेंगे अपने लिए सोची न थी ।


खुशियों की तो बात ही क्या है ,
वह तो अपनो के सँग है ।
अब हम हर पल वारें किस पर ,
दूर देश मे वे बसते हैं ।
समय भी इतना बदल जायेगा कभी सोची न थी ।
कभी हम भी सोचेंगे अपने लिए सोची न थी ।


यह मन बसता अब भी उनपर ,
जो हैं हमसे कोसों दूर ।
पर आह्लाद करें हम कैसे
संजो रही बस स्मृतियों को ।
समय भी इतना बदल जाएगा कभी सोची न थी ।
कभी हम भी सोचेंगे अपने लिए सोची न थी ।


- कुसुम ठाकुर -

Thursday, November 5, 2009

कब आओगे समझ न आये

( आज मेरे लिए एक विशेष दिन है। यह कविता उस खास व्यक्ति को समर्पित है जिसने मुझे जीना सिखाया ।
 "कब आओगे समझ न आये" 
 
मैं तो बैठी पलक बिछाए , 
कब आओगे समझ न आए ।
 दिन भी ढल गया, हो गई रैना , 
जाने क्या ढूँढे ये नैना । 
 हर आहट लागे कर्ण प्रिय , 
तिय धर्म निभाऊँ कहे यह जिय । 
कुछ कहने को भी उद्धत है हिय , 
समझ न आये करूँ क्या पिय । 
 जानूँ मैं तुम जब आओगे , 
स्नेह का सागर छलकाओगे । 
फ़िर भी मेरे आर्द्र नयन हैं , 
सोच तिमिर यह ह्रदय विकल है। 
 - कुसुम ठाकुर -

Thursday, October 29, 2009

ढूँढूँ तो पाऊँ मैं कैसे


"ढूँढू तो पाऊँ मैं कैसे "

पर ढूँढूँ मैं तुमको वैसे ,
ढूँढूँ तो पाऊँ मैं कैसे ?

आज मैं कहना कुछ चाहूँ
पर ,कहूँ किसे यह समझ न पाऊँ ।
याद करूँ मैं हर पल तुमको ,
 ढूँढूँ कैसे समझ न हमको।

कैसे बीता साथ सफर यह
समझ न पाई राज अभी वह।
अब तो लगता दिन भी भारी ,
रातों को तो स्वप्न ही सारी।

ध्यान में लिए छवि मैं सींचूं ,
पलक संपुटों में मैं भींचूं ।
जाने कब वह बस गयी उर में ,
चली गयी निद्रा के वश में ।

अर्ध रात्रि को नींद खुली तो ,
कानों ने यह बात सुनी तो _
मैंने तुमसे प्यार किया है ,
अपना सब कुछ वार दिया है ।

पर ढूँढूँ मैं तुमको वैसे ,
ढूढूं तो पाऊँ मैं कैसे ?

- कुसुम ठाकुर -




Wednesday, October 28, 2009

रहूँ मैं ऊहापोह में

"रहूँ मैं ऊहापोह में " 
 सोचूँ मैंने क्या बुरा किया , दिल की कही न छोड़ दिया । 
समय की पुकार को , किया कभी न अनसुना । 
 किया कभी न आत्मसात , ह्रदय की पुकार को । 
चली तो सदा साथ साथ , समय को निहार कर । 
 कठिन तो लागे है डगर , यह सोचूँ बार बार मैं । 
दिल की कही जो छोड़ दूँ । रहूँ मैं ऊहापोह में । 
 - कुसुम ठाकुर -

Saturday, October 24, 2009

कैसे कहूँ मुझे क्यों है फिकर इतनी


" मुझे क्यों है फिकर इतनी "

कैसे कहूँ मुझे क्यों है फिकर इतनी ,
कभी ख़ुद के लिए न शिकन जितनी ।
सुनी जब से है नासाज तबियत उसकी ,
न है चैन न पाऊँ तो ख़बर उसकी ।

कहने को तो दूर है वो मुझसे,
पर लगता है जैसे वो करीब रूह से ।
महसूस मैं करुँ बदलूँ जब करवट,
हाय इस हाल में तड़पूँ कब तक ।

लगूँ गैर सा मगर ये तड़प जब तक ,
आए भी न चैन न लूँ साँसें तब तक ।
कोई बतला दे मैं बयाँ करूँ कैसे ,
न मैं गैर, न हूँ अजनबी वैसे ।।

- कुसुम ठाकुर -


Friday, October 23, 2009

ख़ुद को मैं तन्हा पाई


"ख़ुद को मैं तन्हा पाई "

दुनिया की इस भीड़ में ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

खुशियों के अम्बार को देखी ,
चाही गले लगा लूँ उसको ।
खुशियों के अम्बार में जाकर ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

सोची दुःख में होश न होगा ,
चल पडूँ मैं साथ उसी सँग ।
दुःख के गोते खाई फ़िर भी ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

सपनों के सपने मैं देखूँ ,
तन्हाई उसमे क्यों हो ।
पर सपना तो बीच में टूटा ।
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

कहने को तो साथ बहुत से ,
पर साथ चलन को मैं तरसी ।
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।।

- कुसुम ठाकुर -


Wednesday, October 21, 2009

बस रहो तुम सदा मुस्कुराते हुए



"बस रहो तुम सदा मुस्कुराते हुए "


 रहो तुम सदा मुस्कुराते हुए 
यही एक तमन्ना, यही आरजू 
कुछ कहूँ मैं तुम्हें तो सच मान लो ,
करो विश्वास हर मोड़ पर ।


मुझे अपने से ज्यादा भरोसा अगर ,
तुम पर ही है, यह मान लो 
तुम जो भी कहो सिरोधार्य है,
कुछ प्रमाणित करो न यही मैं कहूँ



तुम कहते सदा मैं खुली हुई किताब ,
 देर किस बात की, पढ़ लो मुझे 
तुम चाहो अगर, पूछ सकते मुझे ,
मैं व्याख्या करूँ ,हर एक प्रश्न का ।

- कुसुम ठाकुर -

Thursday, October 15, 2009

न वहाँ पर है चैन यहाँ पर न खुशियाँ

"न वहाँ पर है चैन यहाँ पर न खुशियाँ "
 
न वहाँ पर है चैन, यहाँ पर न खुशियाँ । 
जाऊँ फिर कहाँ, पाऊँ मैं न पंथियाँ । 
है नन्हा सा दिल, कह सके सारी रतियाँ । 
पाऊँ मैं न ठौर, कहूँ कैसे बतियाँ । 
न वहाँ पर है चैन................ । 
 थी मुद्दत से मेरी, तमन्ना यही कि । 
कोई मुझको मिल जाए, कह दूँ उसे कि । 
हो चाहत तुम मेरी, इबादत भी तुम हो । 
रहूँ मैं सदा बनके, तुम्हरी ही अँखियाँ । 
न वहाँ पर है चैन ................. । 
 दिल की लगी अब, सहा भी न जाए । 
कहूँ अब मैं कैसे, कहा भी न जाए । 
मिला है तो बस, अब मेरे लब सिले हैं । 
खामोशियाँ हैं, बेबस हूँ मैं तो । 
न वहाँ पर है चैन ........... । 
 - कुसुम ठाकुर -

Friday, October 9, 2009

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज


"जन्म मरण अज्ञात क्षितिज"

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज ,
जिसे समझ सका न कोई ।
न इसका कोई मानदंड ,
और न जोड़ है इसका दूजा ।

कभी लगे यह चमत्कार सा ,
लगे कभी मृगमरीचिका ।
कभी तो लागे दूभर जीवन ,
कभी सात जन्म लागे कम ।

धूप के बाद छाँव है आता ,
है यह रीति प्रकृति का ।
पर जीवन की धूप छाँव ,
रहे कभी न एक सा ।

कभी लगे जन्मों का फल ,
पर साथ भी फल है मिलता ।
पुनर्जन्म भी बीच में आए ,
 पर नहीं सिद्ध है कर पाए

आत्मा तो है सदा अमर ,
दार्शनिकों का कहना ।
वैज्ञानिकों ने बस इतना माना ,
कुछ नष्ट न होवे पूर्णतः ।।

- कुसुम ठाकुर -



Wednesday, October 7, 2009

दिल की बातें

"दिल की बातें " 
 कहना चाहूँ दिल की बातें , 
पर कहूँ कैसे उसे , 
जिसे न है ख़ुद की ख़बर , 
वो करे कैसे परवाह मगर। 
 चाहूँ तो कहना बहुत कुछ ,
 कहूँ कैसे समझ ना सकूँ , 
नयन तो फ़िर भी हैं उद्यत , 
पर होठ हिलते नहीं । 
 हो गयी मुद्दत कि मैंने ,
 दिल की कही अब छोड़ दी , 
शब्द तो लेतीं हिलोरें , 
पर कलम उठते नहीं । 
 लेखनी तो ली हाथों में , 
पर शब्द जँचते नहीं , 
शब्दों की बंदिश न भाती , 
है मूक भावना मेरी।।
 - कुसुम ठाकुर -

Monday, October 5, 2009

वीरान उपवन



"वीरान उपवन "

आज यह वीरान उपवन ,
किसकी बाट तक रहा है ।
शायद कोई माली आए ,
यह लगी मन में जगी है ।।


वह समय था जब कि उपवन ,
फूलों लताओं से महक उठता ।
पर आज उसकी दशा को ,
देखने न आते परिंदे ।।


था समय वह एक अपना ,
जब कि वह अभिमान में था ।
तितलियों की बात क्या थी ,
भौंरे भी मंडराते रहते ।।

कलियाँ जहाँ खिलखिलातीं ,
छटाएँ फूलों की निराली ।
रस चुरातीं मधुमक्खियाँ ,
अठखेलियाँ करता पवन भी ।।


है कोई उसका न माली ,
न कोई सींचे उसे अब ।।
जहाँ थे चुने जाते तिनके ,
सूखे पत्ते पड़े हुए अब ।।


- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, September 29, 2009

चाहत

"चाहत "

जिन भावों की मैं, वर्षों से प्यासी
वह भाव आज, फ़िर से जगी है
जिस चाहत को मैं तो, भूल ही गई थी
वह चाहत मन में, जागृत हुई है
जिन नयनों को मैं, समझी कभी न
वे नयन अब मुझे, भाने लगे हैं
जिस द्वार पर मैं,न तकती थी उसपर
नजर मेरी अब तो, ठहर सी गई है
जिस समर्पण में न मुझे मिलती थी खुशियाँ
वह समर्पण मैं आज करने को उत्सुक
जिन खुशियों की मैं न की थी कल्पना
वह खुशी आज मिल ही गई है

- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, September 22, 2009

वे लम्हें

"वे लम्हें "


वे लम्हें भूले नहीं जाते ,
वे वादे चाहूँ भी न भूलूँ ।
पर यह कैसी मजबूरी ,
चाहकर, पाऊँ भी न तुमको ।

खुली हुई आँखों में तुम हो ,
बंद आँखों में भी बसा लूँ ।
व्याकुल हो ढूँढूँ मैं जब जब ,
चाहकर पाऊँ भी न तुमको ।

नैनो की भाषा भी तुम हो ,
चाहत की परिभाषा भी यही पर ,
सोचूँ तो लगे सपना सा ,
चाहकर पाऊँ भी न तुमको ।

अंसुवन की धार भी तुम हो ,
अंजन और श्रृंगार तुम्ही हो ।
पर करूँ कितना भी जतन मैं ,
चाहकर पाऊँ भी न तुमको ।




-कुसुम ठाकुर -

Saturday, September 19, 2009

मैं कैसे करूँ आराधना

"मैं कैसे करूँ आराधना "
 
मैं कैसे करूँ आराधना , 
कैसे मैं ध्यान लगाऊँ । 
द्वार तिहारे आकर मैया , 
मैं कैसे शीश झुकाऊँ । 
 मन में मेरे पाप का डेरा , 
मैं कैसे उसे निकालूं । 
न मैं जानूं आरती बंधन , 
मैं कैसे तुम्हें सुनाऊँ । 
 बीता जीवन अंहकार में , ल
याद न आयी तुम तब । 
अब तो डूब रही पतवार , 
कैसे मैं पार उतारूँ । 
 कर्म ही पूजा रटते रटते ,
 बीता जीवन सारा ।
 पर अब तो तन साथ न देवे ,
 अर्चना करूँ मैं कैसे । 
 मैं तो बस इतना ही जानूँ , 
तू सब की सुधि लेती । 
एक बार ध्यान जो धर ले
दौड़ी उस तक आती । - 
कुसुम ठाकुर -

Thursday, September 17, 2009

वामन वृक्ष


" वामन वृक्ष "

वामन वृक्ष करे पुकार ,
झेल रहा मनुज की मार ।
वरना मैं भी तो सक्षम ,
रहता वन मे स्वछंद ।

देख मनुज जब खुश होते ,
मेरी इस कद काठी को ।
कुढ़कर मैं रह जाता चुप ,
किस्मत मेरी है अभिशप्त ।

बेलों को तो मिले सहारा ,
पेडों को मिले नील गगन ।
पर हमारी किस्मत ऐसी ,
तारों से हमें रखें जकड़ ।

बढ़ना चाहें हम भी ऐसे ,
जैसे बेल और पेड़ बढ़ें ।
पर बदा किस्मत में मेरे ,
मिले हमें वामन का रूप ।

फल भी छोटा फूल भी छोटा ,
देख मनुज पर खुश होवें ।
पर हमारी अंतरात्मा की,
आह अगर वे देख सकें ।

चाहें हम भी रहना स्वछन्द ,
लगे हमें यह पिंजरे सा ।
हम भी तो प्रकृति की रचना ,
करे मनुज क्यों अत्याचार ।।


- कुसुम ठाकुर -



Wednesday, September 16, 2009

अगर न होते तुम जीवन में

"अगर न होते तुम जीवन में "

अगर न होते तुम जीवन में
मैं कैसे गीत सुनाती
अपनी भावनाओं को कैसे
लयबद्ध मैं कर पाती

मेरी रचना मेरे भाव
मेरे लय और मेरे साज
सबकी तान तुम्हीं ने थामा
मैं तो हूँ एक जरिया मात्र

आज जहाँ हूँ उसकी नींव
डाला तुमने बन दस्तूर
और उस इमारत के
हर श्रृंगार तुम्हीं हो

सृजनहार तुम्हीं हो
अलंकार तुम्हीं हो
प्रशंसक तुम्हीं हो
आलोचक भी तुम्हीं हो

- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, September 15, 2009

मेरे भाव मेरी अभिव्यक्ति

मेरे भाव मेरी अभिव्यक्ति 
 
मेरे भाव कुछ भी हों , 
पर अभिव्यक्त मैं, न कर पाती । 
ऐसा क्यों होता मेरे साथ , 
यह समझ न पाऊं मैं। 
 भाव तो होते मेरे नेक , 
पर अभिव्यक्ति में ही दोष । 
अब मैं कैसे समझाऊँ , 
जो हो उनको यकीन । 
 मैं तो सोच समझकर बोलूँ , 
जो न लगे अप्रिय उन्हें । 
पर त्रुटि तो रह ही जाती , 
मैं भी मानूँ , हूँ मैं इंसान ।
 मेरे अंतर्मन की भाषा , 
समझ न पाए, यह मेरा कसूर । 
मैं कैसे उन्हें कष्ट पहुँचाऊँ , 
जिनपर मैं करूँ सदा यकीन।
 -कुसुम ठाकुर -

Monday, September 14, 2009

My Visit To Standford ( From My USA Trip 2008 )






Fremont

I went to visit the prestigious Stanford University with Vickie on 28 June. It is recognized as world's one of the leading research and teaching institutions, located in the heart of silicon valley, Palo Alto,California. It was established in 1891 by the Governor of California, Leland Stanford and his wife Jane Stanford. It is named in honour of their only child Leland Stanford Junior,who died of typhoid just before his 16th birthday.

Stanford University owns 8,183 acres(32km)of land. The main campus is bounded by EL Camino Real, Stanford Avenue, Junipero Serra Boulevard and Sand Hill Road in the northwest part of the Santa Clara Valley on the Sanfrancisco Peninsula.All the buildings of the university has red roofs and the campus is very big and beautiful. As you enter the gate you can see the mile long beautiful palm drive, palm tree-lined entrance to campus, connects Stanford with the neighbouring town of Palo Alto. We went straight through the palm drive and after parking the first thing we noticed was, a beautiful garden full of flowers and the logo of Stanford was made in the middle by flowers. Now from there we went to the Main Quaid, it has university's first buildings, constructed between 1887-1891. As we entered the Main Quaid, we saw a large number of outdoor art installations throughout the campus of the university.Bronze statue of Auguste Rodin are scatterd throughout the campus. The first one I saw was Burghers of Colois.It is the attraction for the visitors, taking pictures with the statues there. We also took some pictures there with the statues.

After spending some time with the statues and having some pictures, we saw the Memorial Church, which was behind the Main Quad. Here also we had our photo session and now we went to see the famous Hoover Tower.It is visible throughout the surrounding area, serves as a landmark of Stanford to faculty, students, alumni and the local community.It is named after US President Herbert Hoover.Here also we had some pictures, because all the buildings looks so beautiful that you need some memory that you visited such a nice place.Now it was time to leave but I will never forget that I had to take a photograph of Ami, Anand and Vickie four times, because Vickie thought that I was not taking the photo properly and to make sure that photo was taken properly I had to take it four times.We returned to Anand and Ami's house had a nice dinner and came back to Fremont.

Friday, September 11, 2009

Half Moon Bay(From My USA Trip 2008)

16 th June 2008 Fremont California

A very nice and sunny weather in Fremont . The sky looks really blue and clear . I use to hear that weather of California is the best. Now I can also say , its the ideal weather to stay.Today Vickie had planed to take me to Half Moon Bay and we could make it at 1 p:m because it was Sunday and on Sundays usually people are very busy . It was said that after a weeks work people get weekend so that they can have rest , but now you can say that after a weeks work people are off from their office work but not from work. They have plenty of work. Two days are not sufficient for their household work, so they are more busy on Sundays than working days, you can say on weekend. Forget about rest, only a few people are lucky enough and they enjoy weekend. Yes, I was telling that at 1 p:m we could start for Half Moon Bay. Its not very far from Fremont but takes about half an hour to reach there. Its a nice beach but when we came out of our car it was so cold and both of us had come in our summer dress only. Generally Vickie use to tell me to take jacket whenever we go out, but he himself was not knowing that the place will be so cold. People were enjoying there, lots of people were preparing for their camp. The entire camp area was full. Any way we stayed there for some time but the cold was not bearable and we could not stay for long time there. We saw stalls of fresh fruits and I took some cherry and we returned back home. Now I learned a lesson that always take a jacket or sweater with you whenever you go out in California.

Monday, September 7, 2009

मेरी यादें मेरे भाव

मेरी यादें मेरे भाव

यादों और संस्मरणों को ,
भावों में व्यक्त करूँ कैसे ?
यादों को गीतों में पिरो दूँ ,
वह गीत सुनाऊँ किसको ?
भावों की उन पंखुडियों को ,
मैं अर्पण करूँ किसको ?
यादों से क्या मिले सुकून ,
यह प्रश्न मैं पूछूँ किससे ?
भाव तो मुझे लगे स्वभाविक ,
पर प्रर्दशित करूँ कैसे ?
यादों को सहेज ध्यान में ,
भाव कुसुम त्यागूँ कैसे ?

-कुसुम ठाकुर -

Saturday, September 5, 2009

शिक्षक दिवस

आज 5 सितम्बर "शिक्षक दिवस " के अवसर पर सभी शिक्षकों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।


"शिक्षक दिवस" वह दिन है जिसका अनुभव मैंने एक विद्यार्थी के रूप में भी किया है एवम शिक्षक रहकर भी.  आज भी मैं बच्चों के उस प्यार को नहीं भूल पाती जो मुझे एक शिक्षिका के रूप में मिला। यही वह दिन है जब मुझे लगता मैं बेकार में स्कूल छोड़ी। प्रत्येक वर्ष हमारे स्कूल में शिक्षक दिवस मनाई जाती। बच्चे बड़े ही मन से हमारे लिए कार्यक्रम तैयार करते और हर वर्ष मैं अपने कक्षा के बच्चों को हिदायत देती कि किसी को कोई उपहार नहीं लाना है, न मेरे लिए न ही किसी और शिक्षक या शिक्षिका के लिए । वे बड़े ही मायूस होकर पूछते "क्यूँ " और मैं उन्हें समझाते हुए कहती बस अपने बागीचे से "एक फूल" ले आना जिसके घर में हो । जिसके घर न हो वे बाज़ार से नहीं लायेंगे। पर मैं उन बच्चों के स्नेह को देखकर दंग रह जाती । सुबह सुबह ज्यों ही मैं अपनी कक्षा पहुँचती एक एक कर बच्चे मेरे सामने आते और अपने हाथों से बनाये हुए कार्ड और अपने बगीचे से लाये हुए फूल मुझे देते। उनके स्नेह को देख मैं तो भाव विभोर हो जाती । जो बच्चे फूल नहीं भी लाते वे भी औरों के साथ आकर मुझे शिक्षक दिवस की बधाई देते । वे बच्चे मेरी भावनाओं की जो क़द्र करते और सम्मान देते वह मेरे लिए अनमोल उपहार होता । उस कार्ड में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करते जिसे पढ़ मैं आह्लादित हो जाती। आज भी मैं उनमे से कुछ कार्ड रखी हुई हूँ जो बच्चों ने मुझे दिया था।

 आज शिक्षक दिवस के अवसर पर मैं उन सभी बच्चों को , हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आर्शीवाद देती हूँ।








Friday, August 28, 2009

मुझे आज मेरा वतन याद आया

मुझे आज मेरा वतन याद आया

मुझे आज मेरा वतन याद आया।
ख्यालों में तो वह सदा से रहा है ,
 मजबूरियों ने जकड़ यूँ रखा कि,
मुड़कर भी देखूँ तो गिर न पडूँ मैं ,
यही डर मुझे तो सदा काट खाए ।
मुझे आज ......................... ।


छोड़ी तो थी मैं चकाचौंध को देख ,
 मजबूरी अब तो निकल न सकूँ मैं,
करुँ अब मैं क्या मैं तो मझधार में हूँ ,
इधर भी है खाई, उधर मौत का डर ।
मुझे आज ............................... ।


बचाई तो थी टहनियों के लिए मैं ,
है जोड़ना अब कफ़न के लिए भी ।
काश, गज भर जमीं बस मिलाता वहीँ पर ,
मुमकिन मगर अब तो वह भी नहीं है ।
मुझे आज ................................ ।


साँसों में तो वह सदा से रहा है ,
मगर ऑंखें बंद हों तो उस जमीं पर।
इतनी कृपा तू करना ऐ भगवन ,
देना जनम  निज वतन की जमीं पर ।
मुझे आज .................................. ।

-कुसुम ठाकुर-


Thursday, August 27, 2009

बरसों मैं तो भूल गयी थी

"बरसों मैं तो भूल गई थी"


बरसों मैं तो भूल गई थी
सारे अरमानों ख्वाबों को
भूल गयी थी मैं हँसना
या हँसी में शामिल होना।
आज अचानक मुझमे
आई ऐसी तब्दिली कि
ख़ुद पर ही हैरान हूँ मैं,
दिन सोची रात सोची
पर समझ न आया कुछ
आख़िर एक दिन जब मैं
गुम सुम बैठी नयन पथारे
सोच रही किसी और ठौर
छलकी होंठों पर हँसी
और लगी गुन गुनाने मैं
आ गई समझ मेरे यही कि
किसी की बातों और विश्वासों ने
मुझे फ़िर से वही चुलबुली
हँसने वाली बाला बना दिया

-कुसुम ठाकुर -

Wednesday, August 19, 2009

जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ


जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ

जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?
वही तो मेरी धरोहर है
जिस पर नाज़ करूँ इतना
 साक्षात्कार कराया मुझको
जीवन की सच्चाई से
पग पग मेरे संग चला
और किया आसान डगर
अब क्या हुआ जो सँग नहीं
उसकी यादें करें मार्ग प्रशस्त
करे हर मुश्किलों को आसान
जो मैं याद करूँ हर पल
चाहे मन में ही सही
वह तो मेरे सँग ही है
मैं ने भी तो किया प्रयास
शायद मेरा कुछ दोष ही हो
अब जो छूटा तो हताश हूँ मैं
पर मैं कैसे न स्मरण करूँ ?
माना वह अब करे विचलित
जिसको मैं याद करूँ हर पल
पर यह तो एक सच्चाई है
जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?

-कुसुम ठाकुर -

Monday, August 17, 2009

बेटियाँ




"बेटियाँ"

जीवन में थी एक तमन्ना ,
वह हुई आज पूरी
जब भी देखती बेटियाँ ,
सोचती हरदम
जीवन
की यह कमी ,
क्या होगी कभी पूरी ?
मेरे
घर भी आएगी ,
कोई रूठने वाली
नाजों
नखरों और फरमाइशें,
करूँगी मैं उसकी पूरी।
विदा करूँ मैं उसे पिया घर ,
ख़ुद हाथों से श्रृंगार कर
सूने घर को फ़िर निहार ,
बाट
तकुँ मैं हर त्यौहार पर
दिन
बीता साल बीते ,
और
आया ऐसा दिन
मुझे मिली नाजों नखरों ,
और फरमाइशें करने वाली
विदा भी करना पड़ा ,
और ताकूँ बाट

-कुसुम-

आपना तो बस आपना है


"अपना तो बस अपना है"

चाहे तुम कितना झुठलालो,
अपना तो बस अपना है।

कुछ भी कर लो ख़ुशी मना लो ,
पर अपनों की याद न छूटे,
अपनों से कितना भी रूठो ,
अपनों के साथ ही रुचे।

अपने देश की बात क्या कहना,
पास अगर तो मोल न समझें,
दूर हुए तो मन भर आये ,
उसकी मिट्टी को भी तरसें ।

-कुसुम ठाकुर -

Sunday, August 16, 2009

स्वतंत्रता दिवस के दिन छाया रहा शाहरुख खान

हमारे यहाँ विशिष्ट व्यक्तियों की लम्बी फेहरिस्त है और उन्हें जो सुविधायें दी जाती हैं उसका वह इतना आदी हो जाता है कि जब वह बाहर जाता है और उसे सुरक्षा जाँच से गुजरना पड़ता है या फिर नियम कानूनों का पालन करना पङता है तो वह उसे असह्य हो उठता है और उसे वह अपना अपमान समझता है। विशिष्ट व्यक्ति के साथ उसके बाल बच्चे, पूरे परिवार को ही विशिष्ट का दर्जा प्राप्त हो जाता है। उसकी किसी भी प्रकर की सुरक्षा जाँच करना तो दूर उसे अधिकार प्राप्त हो जाता है सारे नियमों कानूनों तोड़ने का।

विदेशो और खास कर अमेरिका की नक़ल करने वालों ने क्या कभी इस बात पर गौर किया है कि वहाँ हर नागरिक के लिए नियम क़ानून एक है, चाहे वह राष्ट्रपति के बच्चे ही क्यों न हों? कभी उसकी भी नक़ल करें। " वहाँ राष्ट्रपति की बेटी को भी शराब पीकर गाड़ी चलाने की जुर्म में २४ घंटे के लिए जेल में डाल दी जाती है। यहाँ जेल में डालना तो दूर क्या मजाल कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को, उसके बच्चों या परिवार के किसी भी सदस्य को सुरक्षा के नाम पर छू भी सकें या क़ानून तोड़ने के जुर्म पर सज़ा दे सकें।

शाहरुख खान को नेवार्क हवाई अड्डे पर सुरक्षा जाँच के लिए कुछ घंटे रुकना क्या पड़ गया हमारे देश की आजादी के जश्न का समाचार ही फीका पड़ गया। सारा दिन हर समाचार चैनेल पर शाहरुख़ खान ही छाया रहा। स्वतंत्रता दिवस तो फ़िर अगले वर्ष भी मनाई जायेगी पर शाहरुख खान की गिनती अगले वर्ष विशिष्टो में हो न हो?

यदि सच में इतना ख़राब लगा तो कभी" टॉम क्रूज़"(Tom Cruis) या "ब्राड पिट"(Brad Pitt) को यहाँ के सुरक्षा अधिकारीयों को सुरक्षा जाँच करने का अधिकार देकर तो देखें या फ़िर उनकी सुरक्षा जाँच करके तो देखें ? मगर नहीं यहाँ "टॉम क्रूज़" और "ब्राड पिट" तो दूर किसी भी गोरी चमड़ी को देख लिया बस सारे के सारे यह भूल जाते हैं कि हमारी आम जनता के अधिकार क्या हैं और वे किस सुविधा के अधिकारी हैं । सारे के सारे आम जनता की असुविधाओं को भूल बस उनके पीछे लग जाते हैं।

Tuesday, August 11, 2009

वह हंसती है

"वह हँसती है"

वह हँसती है..
पर क्या किसी ने उसकी हँसी के
पीछे की सिसकियों को देखा है ?
ऊपर से खिलखिला कर हँसने वाली
आत्मा की पुकार को देखा है ?
ऊपर से दृढ दिखने वाली को,
रातों के अँधेरे में बेसहारा होते हुए देखा है ?
मैंने देखा है..
वह हँसती है लोगों को झुठलाने के लिए 
दृढ दिखती है कमजोरी को छुपाने के लिए 
सहारा देती है तो बस , लोग उसे बेसहारा न कहें

-कुसुम ठाकुर-


Sunday, August 9, 2009

गुम सुम सी बैठी रहती हूँ

"गुम सुम सी बैठी रहती हूँ " 
 
गुम सुम सी बैठी रहती हूँ। 
ख़्वाबों को ख्यालों को , 
नयनों मे बसाती रहती हूँ । 
थक जाते हैं मेरे ये नयन , 
पर मैं तो कभी नहीं थकती । 
गुम सुम ........................ । 
कानों को कभी लगे आहट , 
आते हैं होठों पर ये हँसी । 
पल भर की ये उम्मीदें थीं , 
दूसरे क्षण ही विलीन हुए । 
गुम सुम सी ................... । 
फिर आया एक झोंका ऐसा , 
सब लेकर दूर चला गया । 
अब बैठी हूँ चुप चाप मगर , 
न ख्वाब है, न ख़्याल ही है।
-कुसुम ठाकुर -

Friday, August 7, 2009

ख़ुद को ही न समझ पाई


ख़ुद को ही न समझ पाई

लोग दूसरों को नहीं समझते।
मैं ख़ुद को ही न समझ पाई।।

जब भी अकेली होती हूँ।
ख्यालों में डूब जाती हूँ।।

तलाशती हूँ मैं अपनी खुशी।
पर ढूंढ न पाऊं वह मैं ख़ुशी ।।

 जब भी लगता मंजिल यह मेरी।
तन्हाई भी संग मेरे।।

पर बेडियों ने जकड़ रखा।
न पैर मेरे उस ओर उठे ।।

 आखिर में आह मैं भरती हूँ।
ख़ुद की तलाश में भटकती हूँ।।

-कुसुम ठाकुर -

Wednesday, August 5, 2009

संस्मरण(चतुर्थ कड़ी )

टाटा स्टील के पदाधिकारी एवं कर्मचारियों मे सुरक्षा के प्रति जागरूकता लाने के लिए टाटा स्टील प्रतिवर्ष एक अन्तर विभागीय नाट्य प्रतियोगिता का आयोजन करती थी। अपने अपने विभाग के पदाधिकारी और कर्मचारी इसमें भाग लेते थे परन्तु इस पर बहुत ही कम खर्च किया जाता था और यह बिल्कुल ही नीरस होता था जो मात्र संदेश के लिए होता था । इस नाटक में मात्र अपने विभागीय पदाधिकारी और कुछ दूसरे विभाग के लोग होते थे। टाटा स्टील में पद भर संभालने के कुछ ही महीने बाद श्री ठाकुर ने अपने विभाग के सुरक्षा नाटक में भाग लिया और उस नाटक के संवाद को कुछ अपने तरीके से फेर बदल कर उस नाटक में श्रेष्ठ कलाकार का पुरस्कार प्राप्त किया।


दूसरे वर्ष जब श्री ठाकुर को नाटक के लिए बोला गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया वे नाटक रविन्द्र भवन , जो कि जमशेदपुर का सबसे अच्छा प्रेक्षागृह था, में ही मंचित करेंगे। उस वर्ष नाटक रविन्द्र भवन में ही हुआ और उस नीरस विषय पर मंचित नाटक की प्रशंसा श्री ठाकुर जी को मिली साथ ही यहीं से उनके नाट्य यात्रा की शुरुआत भी हुई।


सुरक्षा नाटक की सफलता के बाद सदा श्री ठाकुर जी के मन में रहता था कि हिन्दी एवं अपनी मात्रृ भाषा मैथिली की सेवा अपने कलम से करें साथ ही उन्हें लगा कि अपने विचारों को आम जनता तक पहुंचाने का सबसे अच्छा माध्यम भी यही है।यह उस समय की बात है जिस समय मैथिली को अष्ठम सूचि में शामिल आन्दोलन चल रहा था और निर्णय लिया गया था कि प्रत्येक शहर और गाँव से पोस्टकार्ड पर मैथिली को अष्ठम सूचि में शामिल करने का अनुरोध लिखकर प्रधानमन्त्री तक पहुंचाई जाय। जमशेदपुर से भी पोस्टकार्ड भेजने का निर्णय लिया गया और साथ ही एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन का भी निर्णय लिया गया जिसका भार श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को दी गयी। समय कम था पर उन्होंने कुछ अलग सा कार्यक्रम करने की सोची।


उन्होंने एक संगीत संध्या करने की सोची और उस कार्यक्रम का नाम "संकल्प दिवस" दिया। पूरे कार्यक्रम के लिए मैथिली में गीत स्वयं लिख सारे गीतोंके धुन भी दी तथा मुख्य गायक भी स्वयं ही थे। उस कार्यक्रम के उद्घाटन गीत का नाम " संकल्प गीत" रखा। यह कार्यक्रम अत्यन्त ही सफल रहा ओर श्री ठाकुर जी के कला का परिचय जमशेदपुर के कलाकार और दर्शकों से हुआ।


"संकल्प दिवस" कार्यक्रम की सफलता ने श्री ठाकुर जी को नाटक मंचित करने को प्रेरित किया। उसी समय जमशेदपुर की मिथिला सांस्कृतिक परिषद् ने अपने महिला शाखा की स्थापना की थी और महिला शाखा की सदस्यों ने श्री ठाकुर जी से एक कार्यक्रम करने का अनुरोध किया जिसे उनहोंने स्वीकार भी कर ली और तय हुआ कि नाटक का मंचन होगा। श्री ठाकुर का पहला नाटक "बड़का साहब" उसी की देन है। उस नाटक की रचना के समय की एक एक बातें अब भी मुझे याद हैं।उन्होंने इतने सरल और सामान्य भाव से नाटक लिखा कि मालुम ही नहीं हुआ कि नाटक लिखना भी किसी के लिए कठिन काम हो सकता है। उसके एक एक संवाद मुझे कई कई बार सुनना पडा था। पूर्वाभ्यास से पहले ही मुझे नाटक के सारे संवाद याद हो गए


बड़का साहब का पूर्वाभ्यास महिला शाखा की एक सदस्य के घर पर ही होता थाकलाकार के चुनाव में ही अंदाजा हो गया कि जितने भी इच्छुक कलाकार थे सभी नए थेकलाकार के आभाव में मुख्य भूमिका श्री ठाकुर को स्वयं ही करना पड़ा हम चारों प्रतिदिन पूर्वाभ्यास में जाते थेविक्की को तो उस नाटक में बाल कलाकार की भूमिका निभानी थी मुझे नाटक सम्बंधित अनेको कार्य बता दिया था और उन सब के लिए प्रतिदिन नाटक का पूर्वाभ्यास देखना जरूरी था न जाने क्यों, शायद महिला शाखा की सदस्यों को इनके कार्य करने का ठंग पसंद नहीं था या उन्हें यह विशवास नहीं था कि नाटक अच्छा होगा, पर वे प्रतिदिन पूर्वाभ्यास के दौरान कुछ न कुछ नाटक किया करती थीं कुछ को तो होता था कि उन्हें नाटक का अधिक ज्ञान था पर असलियत यही होता है कि हर निर्देशक की अपनी सोच होती है और वह उसी के अनुसार निर्देशन करता है एक तो कलाकार अच्छे नहीं थे दूसरा बिल्कुल नए, व्यवस्थापक ऐसे कि हर बात में टांग अड़ाने की तो जैसे उन्होंने ठान ली थी हर दिन श्री ठाकुर जी उन व्यवस्थापक को समझाते कि वे निश्चिंत रहें नाटक अच्छा होगा ही पर वे नहीं समझतीं पूर्वाभ्यास के बाद प्रतिदिन मैं और बालमुकुन्द जी श्री ठाकुर जी को समझाती एक तो अच्छे कलाकार का अभाव दूसरा व्यवस्थापकों का हस्तक्षेप उसी नाटक में श्री ठाकुर जी ने सोच लिया कि दूसरों या दूसरी संस्था के लिए नाटक नहीं करेंगे, वह भी महिलाओं के लिए तो बिल्कुल ही नहीं


नाटक मंचन की तारीख से तीन चार दिन पहले श्री मति इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और प्रशासन की ओर से सारे कार्यक्रम रद्द करने का आदेश आ गया
नाटक के मंचन की दूसरी तारीख तय करने में देरी नहीं की गयी और सभी समाचार पत्रों में भी दे दी गई पर नाटक मंचन की पूर्व तारीख के दिन कुछ लोगों और कलाकारों को साथ लेकर खुद भी रविन्द्र भवन के सामने खड़े हो गए जिससे आम लोगों को तकलीफ न हो


२० नवम्बर को जमशेदपुर में बड़का साहब नाटक का सफल मंचन हुआ जिसे देख जमशेदपुर वासी अचम्भित रह गए
पहली बार किसी मैथिली नाटक का मंचन टिकट पर हुआ था "बड़का साहब" नाटक की सफलता और अनुभव ने श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को दूसरा नाटक लिखने और मंचित करने पर बाध्य कर दिया

Wednesday, July 29, 2009

संस्मरण (तीसरी कड़ी )

मालुम नहीं मैं इसे क्या कहूँ लगाव या बंधन। शादी के एक वर्ष बाद जब मैं जमशेदपुर आयी थी उस समय सोची भी नहीं थी कि जमशेदपुर से इतनी सारी यादें जुड़ जाएँगी। कुछ ऐसी यादें जो मुझे खुशियाँ देंगीं कुछ दर्द का एहसास कराएंगी और कुछ तो जीवन भर सालती रहेंगी। जीवन का सबसे ज्यादा समय इस लौह नगरी में बिताउंगी यह भी तो नहीं जानती थी। पर होता वही है जो उसको मंज़ूर हो। किसके नसीब में कहाँ की मिट्टी है यह तो किसी को नहीं पता पर आज जो बंधन या लगाव मुझे जमशेदपुर से है वह मैं भी नहीं जानती क्यों?


शादी के एक वर्ष बाद जब मैं अपने बाबुजी के साथ जमशेदपुर आयी थी उस समय समय मेरे पति पढ़ रहे थे। सोची कुछ महीने बाद द्विरागमन (गौना ) हो जाएगा और तब मैं अतिथि की तरह कभी कभी आउंगी वह भी जब तक बाबुजी की बदली कहीं और नहीं हो जाती। यह किसको पता था कि बाबुजी की तो बदली हो जायेगी, मैं ही यहाँ रह जाउंगी। यहाँ तक कि मेरे दोनों बच्चों का जन्म भी यहीं होगा।

बाबुजी की बदली होने से कुछ महीने पहले मेरे पति श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को, जो पहले गंगा ब्रिज पटना में कार्यरत थे, टाटा स्टील में नौकरी मिल गयी। उसी वर्ष मेरे छोटे बेटे का जन्म हुआ था। बाबुजी तो राँची चले गए, हम जमशेदपुर ही रह गए। पहली बार अकेले वह भी दो दो बच्चों को लेकर रहने का मौका मिला। उसके पहले एक बार कुछ दिनों के लिए मैं पटना में अपने पति के साथ रही थी। मेरा बड़ा बेटा उस समय बहुत छोटा था।


कैसे समय बीते, पता ही नहीं चला। बड़ा बेटा पुत्तु (भास्कर)स्कूल जाने लगा मुझे उसके स्कूल का पहला दिन अब भी वैसे ही याद है। पास के ही एक नर्सरी स्कूल में उसका नाम लिखवाई थी । प्रतिदिन मेरे पति ऑफिस जाते समय उसे स्कूल छोड़ आते ओर मैं छुट्टी समय उसे लेने जाती थी। एक दिन संयोग से मेरा एवं मेरे पति, दोनों की घड़ी खरब हो गयी। मैं हर दिन सुबह नहलाने के बाद विक्की (छोटे बेटे)को सुला देती और जब पुत्तु के छुट्टी का समय होता तब तक वह उठ जाता था। उस दिन विक्की कुछ देरी से सोया, मैं काम में व्यस्त थी समय का भान ही नहीं हुआ। अचानक ध्यान आया और विक्की को गोद में लेकर जल्दी जल्दी स्कूल की ओर चल पड़ी। मैं जैसे ही स्कूल की ओर जाने के लिए मुड़ी अचानक मेरे कानों में पुत्तु के रोने की आवाज आयी और मेरी नजर सामने वाली सड़क पर गयी। उस सड़क से पुत्तु रोता हुआ दौडा चला आ रहा था साथ में उसकी अध्यापिका थीं। मैं अपने स्थान पर ही खड़ी हो गयी। पुत्तु दौड़ता हुआ मेरे पास आकर मुझसे बिल्कुल लिपट गया। मै उसे लेकर घर आ गयी और कुछ देर बाद उससे पूछी" तुम रो क्यों रहे थे? " उसने बड़े ही भोलेपन से जवाब दिया " मैं तो सोचा तुम मुझे छोड़, विक्की के साथ कहीं जा रही थी। लेने क्यों नहीं आयी"? मुझे भीतर से अपने आप पर बहुत ही गुस्सा आया। उस बाल बोध की कही बातें आज भी मुझे याद हैं और जब भी अकेली होती हूँ बच्चों द्वारा कही गयीं इस तरह की बातें सोच सोच कर अपने आप ही खुश होती हूँ। ऐसा लगता है मानो आज की ही घटना हो।


समय की रफ़्तार इतनी तेज़ होती है कि पता ही नहीं चला कब विक्की भी स्कूल जाने लायक हो गया। बचपन से ही मेरे पति को लिखने एवं नाटक का शौक था और स्कूल कॉलेज की सारी नाट्य एवं कला की गतिविधियों में सक्रीय रहे। जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो कलाकार मन ज्यादा दिनों तक चुप न बैठ पाया और वे अपनी नाट्य गतिविधियों में जुट गए। शुरुआत तो उन्होंने की "टाटा स्टील" के सुरक्षा नाटक से पर वह शौक सिनेमा तक पहुँच गया।

Wednesday, July 22, 2009

कवि कोकिल विद्यापति (तृतीय)

कवि कोकिल विद्यापति


कहा जाता है कि महा कवि विद्यापति की भक्ति एवं पद की माधुर्य से प्रसन्न हो" त्रिभुवन धारी शंकर"
उनके यहाँ उगना(नौकर) के रूप में उनकी सेवा की।

विद्यापति को उगना जंगल में मिला था और उस दिन से वह विद्यापति की चाकरी करने लगा। एक बार भगवन शंकर उगना के साथ जंगल के रास्ते कहीं जा रहे थे। उन्हें जोरों की प्यास लगी। भगवान शंकर ने पानी पीने की इच्छा उगना के सामने रखी और कहा इस वन प्रदेश में कुँआ और पोखरा तो कहीं मिलेगा नहीं। उगना यह सुनते ही कह उठा कि उसे वहां का कुआँ देखा हुआ था और वह पानी लेने चला गया। कवि जब भी उससे कुछ लेने कहते वह तुंरत लाकर दे देता था जिससे कवि को बहुत आश्चर्य होता। उस दिन पानी पीकर कवि समझ गए कि वह तो गंगा का पानी था और उगना से इसकी चर्चा की। उगना के रूप में भगवन शंकर को तब असली रूप में आना पड़ा। उस समय उन्होंने विद्यापति से वचन लिया कि वे किसी को उनका असली रूप नहीं बताएँगे और जिस दिन बता देंगे उस दिन वह अंतर्ध्यान हो जायेंगे।

एक दिन उनकी धर्मपत्नी ने उगना को कुछ लाने को कहा पर उगना ने लाने में बहुत देर कर दी। ज्यों ही उगना उनके सामने आया वह उसे जलावन वाले लकडी लेकर मारने दौडीं, यह देख विद्यापति के मुहं से निकल गया "यह क्या कर रही हो साक्षात शिव को मार रही हो"। इतना सुनना था कि शिव जी अंतर्ध्यान हो गए। तत्पश्चात कवि जंगल जंगल भटक व्याकुल हो गाते :

उगना रे मोर कतय गेलाह।
कतय गेलाह शिव किदहु भेलाह।।

भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जोहि हेरि आनि देल हंसि उठलाह।।

जे मोर कहताह उगना उदेस।
ताहि देवओं कर कंगना बेस। ।

नंदन वन में भेंटल महेश।
गौरी मन हखित मेटल कलेश। ।

विद्यापति भन उगना सों काज।
नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज। ।

कवि विद्यापति की इन पाक्तियों में व्याकुलता और शिव जी को खोने का दुःख भरा हुआ है। कवि कहते हैं :

हे मेरे उगना तुम कहाँ चले गए। हे शिव यह क्या हो गया, कहाँ चले गए। भांग नहीं है इसलिए शिव मुझसे रूठ गए हैं। ढूंढ कर ला दूँगा तो फिर खुश हो जायेंगे। मुझे तो महेश नंदन वन में मिले थे और उनके आने से गौरी का मन हर्षित हो उठा था सारे क्लेश दूर हो गए थे। अंत में विद्यापति कहते हैं, उगना से काम करवाकर मैंने त्रिभुवन के राजा के साथ अच्छा नहीं किया।




Friday, July 17, 2009

कवि कोकिल विद्यापति(द्वितीय)


कवि कोकिल विद्यापति


कवि विद्यापति ने सिर्फ़ प्रार्थना या नचारी की ही रचना नहीं की है अपितु उनका प्रकृति वर्णन भी उत्कृष्ठ है। बसंत और पावस ऋतु पर उनकी रचनाओं से मंत्र मुग्ध होना आश्चर्य की बात नहीं। गंगा स्तुति तो किसी को भाव विह्वल कर सकता है। ऐसा महसूस होता है मानों हम गंगा तट पर ही हैं।

गंगा स्तुति


बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे। ।

कर जोरि बिनमओं विमल तरंगे।
पुन दरसन दिय पुनमति गंगे। ।

एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माय पाय तुअ पानी । ।

कि करब जप तप जोग धेआने।
जनम कृतारथ एक ही सनाने। ।

भनहि विद्यापति समदओं तोहि।
अंत काल जनु बिसरह मोहि। ।

उपरोक्त पंक्तियों मे कवि गंगा लाभ को जाते हैं और वहां से चलते समय माँ गंगा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि :

हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।

कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।

अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।




Thursday, July 16, 2009

संस्मरण(दूसरी कड़ी)

मैं जिस दिन पन्द्रह साल की हुई उसके ठीक दूसरे दिन मेरी शादी हो गयी। शादी का मतलब क्या होता है यह भी तो मैं नहीं जानती थी। मुझे तो यह यह भी पता नहीं था कि दीदी की शादी के तुंरत बाद मेरी भी शादी हो जायेगी। मैं तो मैट्रिक की परीक्षा देकर खुशी खुशी अपनी दोस्तों को यह कह कर गाँव गयी थी कि अपने चाचा की बेटी यानि अपनी बड़ी बहन बहन की शादी में जा रही हूँ खूब मस्ती करूंगी। मैं उससे पहले कभी शादी नहीं देखी थी। मैं अपने सारे भाई बहनों में सबसे बड़ी हूँ पर मुझे बचपन में बड़ी बहन का बहुत शौक था। जब भी मेरी सहेलियां अपनी बड़ी बहन की बातें करतीं तो मैं दुखी हो जाती जो मेरी बड़ी बहन नहीं हैं।

मेरे चाचा की शादी मेरी मौसी से हुई है। मैं उन्ही के पास रह कर राँची में पढ़ रही थी, कारण मेरे बाबुजी उस समय अरुणाचल में पदासीन थे और वहां केवल छोटे बच्चों के लिए ही स्कूल थी। हम छः भाई बहनों में से मैं और मेरा बड़ा भाई चाचा के पास राँची रह गए और बाकी तीन बहनें और सबसे छोटा भाई बाबुजी माँ के साथ अरुणाचल चले गए।

दीदी की शादी में मैं अपने चाचा मौसी के साथ गयी थी और माँ बाबुजी अरुणाचल से आए थे। मुझे इस बात की बहुत खुशी थी कि पहली बार किसी की शादी वह भी अपने घर में देखूंगी, साथ ही अपने माँ बाबुजी और सभी भाई बहनों से मिलूंगी यह सोचकर खुशी और दुगनी हो रही थी। शादी के तुंरत बाद बाबुजी और चाचा कहीं चले गए। कहाँ वह तो मुझे किसी ने बताया भी नहीं और मैं अपने भाई बहनों और सहेलियों में इतना व्यस्त थी कि जानने की इच्छा भी नही हुई। खूब आम खाती और खूब खेलती थी।

वैसे तो हम जब भी जाते तो दादी हमे बहुत मानतीं थीं पर इस बार मुझे कुछ ज्यादा ही मानतीं थी। एक दिन सुबह जब मेरी नींद खुली और अपने कमरे से बाहर आयी तो कुछ अजीब ही लगा। घर में सभी व्यस्त थे दादी सब को डांट कर कह रही थीं जल्दी जल्दी सब काम करो अब समय नहीं है। मुझे देखते ही बोल पड़ीं यह देखो अभी तक मेरी पोती फ्राक में ही घूम रही है। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं धत बोल कर वहां से चली गयी। मुझे लगा शायद कल मेरा जन्मदिन है और दादी पहले से ही मुझे चिढाने के लिय कह रही थीं जन्मदिन के दिन इस बार साड़ी पहनना पड़ेगा इसलिए ऐसा कह रहीं हैं।

अचानक चाचा को बाबा के साथ आँगन में घुसते हुए देखी। चाचा की नज़र ज्यों ही मुझपर पड़ी तुंरत कह उठे अरे मिठाई खिलाओ तुम्हारी शादी ठीक करके आया हूँ। मैं तो बिल्कुल आवाक रह गयी। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था क्या कहूँ ? कुछ कहना भी चाहिए या नहीं? यह खुशी की बात है या........? हाँ एक बात अवश्य दिमाग में आया और मैं दुखी हो गयी। मैं तो अपनी दोस्तों को कह कर आयी थी कि मैं अपनी बहन की शादी में जा रही हूँ। वह भी इतराते हुए कही थी क्यों कि अक्सर किसी न किसी सहेली को अपने भाई बहनों की शादी में जाना होता था और जब वे मुझे सुनातीं तो बहुत बुरा लगता था। मैं शादी के विषय में क्या सोचूंगी, सोचने लगी अपनी सहेलियों को क्या कहूँगी। वे तो मेरा मजाक बना देंगीं कि अपनी बहन की शादी का कह कर गयी और अपनी ही शादी कर आ गयी। मैं सारी रात यही सोचती रह गयी। माँ को भी मैं खुश नहीं देखी।

चाचा सिर्फ़ ख़बर करने आए थे शादी की तैयारी तो यहाँ दादी बाबा को ही करना था। चाचा दिन में खाने के बाद चले गए। दूसरे दिन सुबह बाबुजी आए और उनको चाय वगैरह देने के बाद माँ को पूछते सुनी लड़का क्या करता है। बाबुजी ने और क्या कहा वह तो नहीं सुनी पर यह सुनी कि लड़का इंजीनियरिंग में पढ़ता है। बाबुजी से बात करने के बाद से माँ भी खुश दिखीं।जन्मदिन के दिन दादी की ही बात रही और मुझे शाम में थोडी देर के लिए साड़ी पहनना पडा। जन्मदिन के दिन सुबह सुबह बाबुजी भी आ गए। बाबुजी जिस दिन आए उसके दूसरे दिन मेरी शादी खूब धूम धाम से हो गयी। मेरे पति उस समय इंजीनियरिंग में पढ़ते थे।

क्रमशः ........

Sunday, July 12, 2009

मोमबत्ती का रस्म

जन्मदिन 
 एक बार मैं अपने पति से बोली 
इस बार मैं अपना जन्मदिन 
खूब धूम धाम से मनाऊंगी। 
पति बोले अरे भाग्यवान 
जन्मदिन तो मना लोगी 
उस रस्म का क्या करोगी 
जिसमे केक काटी जाती है 
और केक पर उतनी ही 
मोमबत्तियां लगाई जातीं हैं 
जितने उम्र के लोग होते हैं। 
इतने दिनों से तुम अपनी 
उम्र छुपाती आयी हो 
जन्मदिन मनाओगी तो 
सारा भेद खुल जाएगा। 
ऐसा करते हैं _ 
बारह को तुम्हारा जन्मदिन है 
तेरह को हमारी शादी का सालगिरह 
क्यों न हम 
तेरह को दोनों ही धूम धाम से मना लें 
कहने को शादी का सालगिरह 
और मोमबत्तियां बस उतनी ही 
जितने सालों से मैं तुम्हें 
 झेलता आया हूँ।।
-कुसुम ठाकुर-

Saturday, July 11, 2009

एक लब्ध प्रतिष्ठित डॉक्टर को श्रद्धाँजलि

स्व. डॉ. मोहन राय





डॉ. मोहन राय एवं उनकी पत्नी डॉ. विमल यादव मयुर एवं अनुराधा के साथ

किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि हजारों को जीवन दान देने वाले डॉक्टर (cardiac thoracic surgeon)। जिसने कईयों को जीवन दान दिया हो कइयों की ह्रदय गति रुकने से बचाया हो वह अपने ही ह्रदय को नहीं समझ पायेगा। कैलिफोर्निया, ओरंज काउंटी (orange county) के रहने वाले लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. मोहन राय का निधन १८ मई २००९ को ६५ वर्ष की आयु में उनके निवास पर ह्रदय गति रुक जाने से हो गयी।

डॉ. मोहन राय पूर्णिया(बिहार) के रहने वाले थे तथा उन्होंने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई दरभंगा मेडिकल कॉलेज से की थी। इसी वर्ष फरवरी महीने में दरभंगा मेडिकल कॉलेज ने उनके सम्मान में एक द्वार बनवाया जिसका उदघाटन डॉ. राय के हाथों ही करवाया गया। यह उनकी अन्तिम भारत यात्रा थी।

यों तो मैं डॉ. राय से तीन बार मिली हूँ, पहली बार मेरे बेटे की शादी में दूसरी बार जब मैं कैलिफोर्निया(अमेरिका ) गयी थी तब फ्रीमोंट (Freemont) में, तीसरी बार जब मैं लॉसअन्जेल्स(Los Angeles) गयी थी तो उनके अनुरोध पर उनसे मिलने उनके यहाँ भी गयी थी पर पहले ही मुलाकात में मैं उनकी प्रशंसक बन गयी। एक उच्च विचार रखने वाले, मृदुभाषी डॉ. राय सही मायने में समाज सेवी भी थे। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें।

Thursday, July 9, 2009

कवि कोकिल विद्यापति


कवि कोकिल विद्यापति

"कवि कोकिल विद्यापति" का पूरा नाम "विद्यापति ठाकुर था। धन्य है उनकी माता "हाँसिनी देवी"जिन्होंने ऐसे पुत्र रत्न को जन्म दिया, धन्य है विसपी गाँव जहाँ कवि कोकिल ने जन्म लिया।"श्री गणपति ठाकुर" ने कपिलेश्वर महादेव की अराधना कर ऐसे पुत्र रत्न को प्राप्त किया था। कहा जाता है कि स्वयं भोले नाथ ने कवि विद्यापति के यहाँ उगना(नौकर का नाम ) बनकर चाकरी की थी। ऐसा अनुमान है कि "कवि कोकिल विद्यापति" का जन्म विसपी गाँव में सन १३५० . में हुआअंत निकट देख वे गंगा लाभ को चले गए और बनारस में उनका देहावसान कार्तिक धवल त्रयोदसी को सन १४४० . में हुआ

यह उन्हीं की इन पंक्तियों से पता चलता है। :

विद्यापतिक आयु अवसान।
कार्तिक धवल त्रयोदसी जान।।

यों तो कवि विद्यापति मथिली के कवि हैं परन्तु उनकी आरंभिक कुछ रचनाएँ अवहटट्ठ(भाषा) में पायी गयी हैं। अवहटट्ठ संस्कृत प्राकृत मिश्रित मैथिली है। कीर्तिलता इनकी पहली रचना राजा कीर्ति सिंह के नाम पर है जो अवहटट्ठ (भाषा) में ही है। कीर्तिलता के प्रथम पल्लव में कवि ने स्वयं लिखा है। :

देसिल बयना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा । ।

अर्थात : "अपने देश या अपनी भाषा सबको मीठी लगती है। ,यही जानकर मैंने इसकी रचना की है"।

मिथिला में इनके लिखे पदों को घर घर में हर मौके पर, हर शुभ कार्यों में गाई जाती है, चाहे उपनयन संस्कार हों या विवाह। शिव स्तुति और भगवती स्तुति तो मिथिला के हर घर में बड़े ही भाव भक्ति से गायी जाती है। :

जय जय भैरवी असुर-भयाउनी
पशुपति- भामिनी माया
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनी
अनुगति गति तुअ पाया। ।
बासर रैन सबासन सोभित
चरन चंद्रमनि चूडा।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल,
कतौउ उगलि केलि कूडा । ।
सामर बरन, नयन अनुरंजित,
जलद जोग फुल कोका।
कट कट विकट ओठ पुट पाँडरि
लिधुर- फेन उठी फोका। ।
घन घन घनन घुघुरू कत बाजय,
हन हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,
पुत्र बिसरू जुनि माता। ।

इन पंक्तियों में कवि कोकिल विद्यापति ने ने माँ के भैरवी रूप का वर्णन किया है। कवि  कहते हैं कि असुरों को भय प्रदान करने वाली हे शिवानी ! आपकी जय हो ! हे देवी ! हमें सहज सुबुद्धि दें, वरदान दें। हे देवी आपके चरणों का अनुगत हो चलने में ही हमारी सद्गति है।  आपके चरण सदा मृतक के आसन पर शोभायमान रहता है , आपके सीमांत चंद्रमणि से अलंकृत हैं। कई दानवों को मारकर अपने मुख में रख लिया, अर्थात उसे विलीन कर दिया, तो कईयों गो उगल दिया, कुल्ला की तरह फेंक दिया। आपका रूप श्यामल और आँखें लाल-लाल। ऐसा प्रतीत होता है मानो आकाश में कमल खिला हो। क्रोध से आपके दांत कट-कट करते हुए, दांत के प्रहार से युगल होठ पांडुर फूल की तरह लाल हो गया है । उसपर विद्यमान रक्त का फेन बुलबुलामय है। आपके चरणों के नुपुर से घन- घन का संगीतमय स्वर निकल रहा है। हाथ में कृपाण हनहना  रहा है ।  आपके चरणों के सेवक कवि विद्यापति कहते हैं कि , हे माता आप अपनी संतान को कभी न भूलें  । 

-कुसुम ठाकुर-