Thursday, August 27, 2009

बरसों मैं तो भूल गयी थी

"बरसों मैं तो भूल गई थी"


बरसों मैं तो भूल गई थी
सारे अरमानों ख्वाबों को
भूल गयी थी मैं हँसना
या हँसी में शामिल होना।
आज अचानक मुझमे
आई ऐसी तब्दिली कि
ख़ुद पर ही हैरान हूँ मैं,
दिन सोची रात सोची
पर समझ न आया कुछ
आख़िर एक दिन जब मैं
गुम सुम बैठी नयन पथारे
सोच रही किसी और ठौर
छलकी होंठों पर हँसी
और लगी गुन गुनाने मैं
आ गई समझ मेरे यही कि
किसी की बातों और विश्वासों ने
मुझे फ़िर से वही चुलबुली
हँसने वाली बाला बना दिया

-कुसुम ठाकुर -

5 comments:

  1. bahut hi umda bhaw hai kabita ke.
    sachmuch kisi ka biswas kisi ke zindgi ko nayi rah dikha sakta hai.

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  2. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

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  3. किसी की बातों और विश्वासों ने
    मुझे फ़िर से वही चुलबुली
    हँसने वाली बाला बना दिया।।
    वाह अति सुन्दर

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  4. किसी की बातों और विश्वासों ने
    मुझे फ़िर से वही चुलबुली
    हँसने वाली बाला बना दिया।।
    bahut hi sundar bhaaw hai ..........aapki is rachana me .....badhayi

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  5. आप सबों का प्रतिक्रिया के लिए आभार ।

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