मालुम नहीं मैं इसे क्या कहूँ लगाव या बंधन। शादी के एक वर्ष बाद जब मैं जमशेदपुर आयी थी उस समय सोची भी नहीं थी कि जमशेदपुर से इतनी सारी यादें जुड़ जाएँगी। कुछ ऐसी यादें जो मुझे खुशियाँ देंगीं कुछ दर्द का एहसास कराएंगी और कुछ तो जीवन भर सालती रहेंगी। जीवन का सबसे ज्यादा समय इस लौह नगरी में बिताउंगी यह भी तो नहीं जानती थी। पर होता वही है जो उसको मंज़ूर हो। किसके नसीब में कहाँ की मिट्टी है यह तो किसी को नहीं पता पर आज जो बंधन या लगाव मुझे जमशेदपुर से है वह मैं भी नहीं जानती क्यों?
शादी के एक वर्ष बाद जब मैं अपने बाबुजी के साथ जमशेदपुर आयी थी उस समय समय मेरे पति पढ़ रहे थे। सोची कुछ महीने बाद द्विरागमन (गौना ) हो जाएगा और तब मैं अतिथि की तरह कभी कभी आउंगी वह भी जब तक बाबुजी की बदली कहीं और नहीं हो जाती। यह किसको पता था कि बाबुजी की तो बदली हो जायेगी, मैं ही यहाँ रह जाउंगी। यहाँ तक कि मेरे दोनों बच्चों का जन्म भी यहीं होगा।
बाबुजी की बदली होने से कुछ महीने पहले मेरे पति श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को, जो पहले गंगा ब्रिज पटना में कार्यरत थे, टाटा स्टील में नौकरी मिल गयी। उसी वर्ष मेरे छोटे बेटे का जन्म हुआ था। बाबुजी तो राँची चले गए, हम जमशेदपुर ही रह गए। पहली बार अकेले वह भी दो दो बच्चों को लेकर रहने का मौका मिला। उसके पहले एक बार कुछ दिनों के लिए मैं पटना में अपने पति के साथ रही थी। मेरा बड़ा बेटा उस समय बहुत छोटा था।
कैसे समय बीते, पता ही नहीं चला। बड़ा बेटा पुत्तु (भास्कर)स्कूल जाने लगा मुझे उसके स्कूल का पहला दिन अब भी वैसे ही याद है। पास के ही एक नर्सरी स्कूल में उसका नाम लिखवाई थी । प्रतिदिन मेरे पति ऑफिस जाते समय उसे स्कूल छोड़ आते ओर मैं छुट्टी समय उसे लेने जाती थी। एक दिन संयोग से मेरा एवं मेरे पति, दोनों की घड़ी खरब हो गयी। मैं हर दिन सुबह नहलाने के बाद विक्की (छोटे बेटे)को सुला देती और जब पुत्तु के छुट्टी का समय होता तब तक वह उठ जाता था। उस दिन विक्की कुछ देरी से सोया, मैं काम में व्यस्त थी समय का भान ही नहीं हुआ। अचानक ध्यान आया और विक्की को गोद में लेकर जल्दी जल्दी स्कूल की ओर चल पड़ी। मैं जैसे ही स्कूल की ओर जाने के लिए मुड़ी अचानक मेरे कानों में पुत्तु के रोने की आवाज आयी और मेरी नजर सामने वाली सड़क पर गयी। उस सड़क से पुत्तु रोता हुआ दौडा चला आ रहा था साथ में उसकी अध्यापिका थीं। मैं अपने स्थान पर ही खड़ी हो गयी। पुत्तु दौड़ता हुआ मेरे पास आकर मुझसे बिल्कुल लिपट गया। मै उसे लेकर घर आ गयी और कुछ देर बाद उससे पूछी" तुम रो क्यों रहे थे? " उसने बड़े ही भोलेपन से जवाब दिया " मैं तो सोचा तुम मुझे छोड़, विक्की के साथ कहीं जा रही थी। लेने क्यों नहीं आयी"? मुझे भीतर से अपने आप पर बहुत ही गुस्सा आया। उस बाल बोध की कही बातें आज भी मुझे याद हैं और जब भी अकेली होती हूँ बच्चों द्वारा कही गयीं इस तरह की बातें सोच सोच कर अपने आप ही खुश होती हूँ। ऐसा लगता है मानो आज की ही घटना हो।
समय की रफ़्तार इतनी तेज़ होती है कि पता ही नहीं चला कब विक्की भी स्कूल जाने लायक हो गया। बचपन से ही मेरे पति को लिखने एवं नाटक का शौक था और स्कूल कॉलेज की सारी नाट्य एवं कला की गतिविधियों में सक्रीय रहे। जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो कलाकार मन ज्यादा दिनों तक चुप न बैठ पाया और वे अपनी नाट्य गतिविधियों में जुट गए। शुरुआत तो उन्होंने की "टाटा स्टील" के सुरक्षा नाटक से पर वह शौक सिनेमा तक पहुँच गया।
Kusumji Thakur
ReplyDeleteसंस्मरण लिखना भी बडी आत्मियता एवम हिम्मत का काम है। क्यो कि
संस्मरण मे सत्य की हमेसा चुनोती बनी रहती है। किरणजी आपने इसे बेखुबी निभाया। धाराप्रवाह लिखाई से मै प्रभावित हुआ।
आभार/ मगल भावनाऐ
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
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