( आज मेरे लिए एक विशेष दिन है। यह कविता उस खास व्यक्ति को समर्पित है जिसने मुझे जीना सिखाया ।)
"कब आओगे समझ न आये"
मैं तो बैठी पलक बिछाए ,
कब आओगे समझ न आए ।
दिन भी ढल गया, हो गई रैना ,
जाने क्या ढूँढे ये नैना ।
हर आहट लागे कर्ण प्रिय ,
तिय धर्म निभाऊँ कहे यह जिय ।
कुछ कहने को भी उद्धत है हिय ,
समझ न आये करूँ क्या पिय ।
जानूँ मैं तुम जब आओगे ,
स्नेह का सागर छलकाओगे ।
फ़िर भी मेरे आर्द्र नयन हैं ,
सोच तिमिर यह ह्रदय विकल है।
- कुसुम ठाकुर -
वाह,बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
bahut hi achha laga
ReplyDeletediwakar jha
nice
ReplyDeleteसुन्दर शब्द और भाव से ओतप्रोत इस रचना के लिए बधाई...
ReplyDeleteनीरज
sundar...
ReplyDeletebahut sunder or acchi laymakta hai kavita main
ReplyDeleteघुघूती जी , दिवाकर जी , सुमन जी , नीरज जी, अम्बरीश जी और रजनी जी
ReplyDeleteआप सबों को बहुत बहुत धन्यवाद ।