मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है

एक बार एक प्रसिद्ध फिल्म नेर्देशक से बातें हो रही थी और उन्होंने कहा था "एक दिन मैं बम्बई में एक फिल्म शूटिंग देख रहा था उस दिन मेरे मन में आया सिनेमा सबसे अच्छा माध्यम है लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाने का."  उसके बाद ही हमने  पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में दाखिला लेने का निर्णय लिया और निर्देशन को चुना.

सच सिनेमा वह शसक्त माध्यम है जिसके जरिए निर्देशक अपनी बातें आम लोगों तक पहुंचा सकता है, समाज को नई दिशा दिखा सकता है. जिन छोटी छोटी बातों पर हम गौर नहीं करते उनका आईना हमें निर्देशक सिनेमा के माध्यम से दिखा सकता है. परन्तु आज हमारे यहाँ हर जगह राजनीति इतनी हावी हो गई है, लोगों की भावनाएं इतनी कलुषित हो गई हैं कि समाज सदा दो भागों में बंट जाती है, लोग आपस में उलझकर रह जाते है, विषय के मतलब ही बदल जाते हैं. जिस उद्देश्य से निर्देशक ने अपनी बात रखी वह तो बेमानी हो जाती है. सिनेमा मनोरंजन के लिए बनाई जाती है........देश के नेता उसे धर्म, देवी देवता पर आक्रमण कह चिंगारी भड़काने का काम करते हैं, उसे धर्म और कौम से जोड़ देते हैं. 

हम इक्कीसवीं सदी में में कहने को तो जी रहे हैं लेकिन आज भी हमारे विचारों में ईश्वर का खौफ विद्यमान है. जो जितना पाप करता है वह उतना ज्यादा पूजा पाठ धर्म का आडम्बर करता है. मैं नहीं कहती पूजा नहीं करनी चाहिए. पूजा करना या किसी विशेष धर्म का अनुयायी होने का मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को भी उसके विचारों को मानने के लिए बाध्य करें और सहमत न होने पर उसे भला बुरा कहें, धर्म हमें दूसरों का आदर करना सिखाता है, हमें अनुशासित बनाता है न कि उद्दंड.

ईश्वर हैं या नहीं इसपर बात करूँ इतनी विदूषी मैं नहीं पर इतना जरूर कहूँगी कि आज के युग में, धर्म के ठेकेदार बाबा और संत हो ही नहीं सकते. संत की परिभाषा क्या होती है यह भी आज के बाबाओं और संतों को मालुम नहीं होगा. हाँ लोगों में आगे बढ़ने की जल्दबाजी और डर ने आज व्यावसायिक बाबाओं, संतों को जन्म दिया है जो धर्म के नाम पर लोगों को ठगते हैं और लोगों के मन में बसे डर और लालच उन्हें ठगने का मौका देती है. उन्हें धर्म की जानकारी हो या न हो इतना अवश्य मालूम है कि धर्म के नाम पर देश को बांटा जा सकता है.

पंडित, पुजारी,मौला, पादरी या बाबाओं को हम भगवान का प्रतिनिधि मानते हैं और हमारी इसी कमजोरी का फायदा आजके ये प्रतिनिधि उठाते हैं. एक प्रश्न मैं करना चाहूंगी अगर सच में ईश्वर हैं.....और अगर  हम इन प्रतिनिधियों का वहिष्कार कर खुद से अपने ईश्वर या ईष्ट की पूजा करें तो क्या हमारे ईश्वर हमारी नहीं सुनेंगे और यदि नहीं सुनेंगे तो फिर ईश्वर कैसे ?

हमारे यहाँ एक सिनेमा आज देश के प्रबुद्ध वर्ग से कहना चाहूंगी कि वे जागें और अपने विचारों पर किसी को हावी न होने दें. धर्म के आधार पर किसी को अपनी भावना पर अधिकार न करने दें . मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है उसे विलुप्त न होने दें.

चलने का बहाना ढूँढ लिया

"चलने का बहाना ढूँढ लिया"

चलने की हो ख्वाहिश साथ अगर 
चलने का बहाना ढूंढ लिया 

यूं रहते थे दिल के पास मगर 
तसरीह का बहाना ढूंढ लिया

मुड़कर भी जो देखूं मुमकिन नहीं
आरज़ू थी जो मुद्दत से ढूंढ लिया

तसव्वुर में बैठे थे शिद्दत सही 
खलिश को छुपाना ढूंढ लिया 

कहने को मुझे हर ख़ुशी है मिली 
हँसने का बहाना ढूंढ लिया 

- कुसुम ठाकुर -

दर्द इस कदर दिया

"दर्द इस कदर दिया "

यूँ नसीब ने तो प्यारा हमसफ़र दिया 
मेरी जिंदगी में ऐतवार भर दिया

दर्द पाया फिर भी लगता खुश नसीब हूँ 
जाने जादू क्या उसने ऐसा कर दिया

वैसे जिन्दगी में कम कहाँ है उलझनें 
जाते जाते भी न चैन इक पहर दिया

ये तो जाना हमसफ़र का भी सफ़र वहीं
वो हसीन पल भी सपनों में है भर दिया  

कहना चाहा जो कुसुम ने आज कह दिया 
अपनी पंखुड़ी भी दर्द इस कदर दिया 

-कुसुम ठाकुर-

बेटियों को अधिकार कब मिलेगा, कब तक वो पराई कहलाएंगी ?

कर्म के आधार पर वर्ण बनाया गया परन्तु कालान्तर में वर्ण ही  छूआछूत भेदभाव को जन्म दिया और पराकाष्ठा पर पहुँच गया.उसी प्रकार ईश्वर ने स्त्री को मात्र शारीरिक तौर पर पुरुषों से कमजोर बनाया. उन्हें शारीरिक श्रम वाले काम से दूर रखने के लिए घर के काम काज उनके जिम्मे दिया गया. कालान्तर में उन्हें कमजोर समझ घर हो या बाहर शोषण होने लगा. 

1908 ई. में अमेरिका की कामकाजी महिलाएं अपने अधिकार की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं।1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा की। 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया और तब से ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। 

कुछ वर्षों से "दिवस" मनाना फैशन बन गया है। क्या साल में एक दिन याद कर लेना लम्बी लम्बी घोषणा और वादे करना ही सम्मान होता है ? किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात नहीं है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ सम्मान देने का ढोंग किया जाता हो।  सम्मान बोलकर देने की वस्तु नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। 

एक तरफ महिला दिवस मनाई जाती है दूसरी तरफ नारी का शोषण बलात्कार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है. आज भी हमारे देश में नारी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. कहने के लिए लोग कहते हैं हम बेटे बेटी में फर्क नहीं करते परन्तु कितने लोग हैं जो आज अपनी बेटी को वही अधिकार देते हैं जो अपने बेटे को. पहले भी बेटी पराई थी आज भी पराई ही कहलाती है. माता पिता आज भी बेटी की जिम्मेदारी शादी तक ही समझते हैं जब कि बेटे के लिए उनकी जिम्मेदारी कभी ख़त्म नही होती. कहने के लिए कहते हैं अब मेरी जिम्मेदारी ख़त्म हुई अब बेटा अपना समझेगा पर अपने बेटा क्या बेटे के बेटे यानि पोते के लिए भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं. मेरी समझ में यह नहीं आता कि एक ही माता पिता की संतान में इतना अंतर क्यों ?  बेटी पराई क्यों कहलाती है ? पहले जमाने में तो फिर भी ठीक था बेटा घर, संपत्ति संभालता था बेटी ससुराल चली जाती थी. 

आज महिला दिवस है पर चुनाव और आचार संहिता लग जाने की वजह से सभी पार्टी और नेता इतने व्यस्त हैं कि इसबार महिला दिवस पर महिलाओं के लिए होने वाले झूठे आरक्षण के वादे सुर्ख़ियों में नहीं है. हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन। साल के बाक़ी दिन अब भी न वह सम्मान है न वह बराबरी मिल पाता है, जिसकी वह हकदार है या जो दिवस मनाते वक्त कही जाती है। कहने को तो आज सभी कहते हैं "नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं". परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जबतक होती रहेगी तबतक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।  

नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी। यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होता ही है। आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी आरक्षण की जरूरत क्यों ? आरक्षण शब्द ही कमजोरी का एहसास दिलाता है आज एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है। क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे?  हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की। 

आज भी हमारे यहाँ यदि कोई बेटी अपने माता पिता या परिवार में अपने अधिकार की बात करती है तो परिवार उसे पसंद नही करता. कानून तो बन गया है पर कितने लोग उसपर अमल करते हैं यह सोचनीय है. दहेज़ जैसे दानव  के जन्म का एक यह भी कारण है. कब हर बात में कहना बंद होगा बेटियाँ पराई होती हैं. हम सरकार से आरक्षण तो मंगाते हैं पर अपने परिवार में अपने माता पिता से अपना अधिकार कब मांगेंगे ? 

  

नीम गुणों का खान


"नीम गुणों का खान"

औषधीय गुणों मान  
नीम गुणों का खान, कहे सब 
नीम गुणों का खान 
और मिलना भी आसान 

उच्च हिमालय नहीं है भाता 
जगह जगह मिल जाता 
दोषमुक्त औषधीय गुण वाला 
चमत्कार दिखलाता 

छाल पत्तियाँ फल फूल बीज 
के नियमित सेवन से 
रोगों को दूर भगाता 
है पर्यावरण बचाता 

-कुसुम ठाकुर-

मन में झंझावात


मन में झंझावात"

दिल के तहखाने में बीता तनहा सारी रात 
कहती क्यों सावन हरजाई लाई है सौगात

स्नेह का सागर भरा हुआ है, क्यूँ मन में अवसाद 
किसको बोलूँ, रूठूं कैसे,  मन में झंझावात 

तिल-तिल दीपक सा जलता मन, लिए स्नेह की आस 
गुजरी यादें, धुमिल हो गईं, इतनी रही बिसात 

समझूं कैसे देगा निशि-दिन, दिल में चोट हजार
प्रेम की भाषा वे बोले पर, ना समझे जज्बात  

आता मौसम जाता मौसम, जीवन में सौ बार 
कुसुम मौसमी होता क्यूँ, है, समझ न आयी बात 

-कुसुम ठाकुर-

माँ मैं तो हारी, आई शरण तुम्हारी,



माँ मैं तो हारी, आई शरण तुम्हारी,
अब जाऊँ किधर तज शरण तुम्हारी 


दर भी तुम्हारा लगे मुझको प्यारा,
 तजूँ मैं कैसे अब शरण तुम्हारी 
माँ .........................................


मन मेरा चंचल, धरूँ ध्यान कैसे,
बसो मेरे मन, मैं शरण तुम्हारी
माँ..........................................


जीवन की नैया मझधार में है, 
पार उतारो मैं शरण तुम्हारी
माँ .................................... 


तन में न शक्ति, करूँ मन से भक्ति 
अब दर्शन दे दो मैं शरण तुम्हारी 
माँ.............................................

- कुसुम ठाकुर - 

गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय.


लोग कहते हैं कि आजकल के बच्चे बड़ों की इज्जत करना नहीं जानते खासकर शिक्षकों का गुरुजनों का। पर यह कहना गलत है। मैं भी कभी शिक्षक थी और मैंने जो महसूस किया वह इसके विपरीत है। आजकल वैसे शिक्षक ही विरले मिलते हैं जिनके लिए ये पंक्तियाँ हैं :
गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय ,
बलिहारी गुरु आपनो गोबिंद दियो बताय।। 

आजकल शिक्षा सबसे बड़ा व्यापार हो गया है और शिक्षक सबसे बड़े व्यापारी। शिक्षकों में अब विद्या दान वाली भावना ही नहीं रही जिनके वशीभूत हो विद्यार्थी खुद ब खुद उनके व्यवहार और व्यक्तित्व को कब पूजने लगते वह उन्हें भी पता नहीं चलता।  जीवन भर ऐसे गुरु की छवि बच्चों के मन पर छाप छोड़ जाती है। यदि विद्या अर्जन करना तपस्या है तो विद्या दान देना शिक्षकों का कर्तव्य। यदि शिक्षक अपना कर्तव्य बखूबी निभायेंगे तो उन्हें भी विद्यार्थियों से कभी निराशा नहीं होगी। विद्यार्थी इज्जत नहीं देते का राग नहीं अलापेंगे। वैसे अपवाद तो हर जगह होता है।  

आज भी मैं बच्चों के उस प्यार को नहीं भूल पाती जो मुझे एक शिक्षिका के रूप में मिली। यही वह दिन है जब मुझे स्कूल छोड़ने का अफ़सोस होता है । प्रत्येक वर्ष हमारे स्कूल में शिक्षक दिवस मनाई जाती थी। बच्चे बड़े ही मन से हमारे लिए कार्यक्रम तैयार करते और हर वर्ष मैं अपने कक्षा के बच्चों को हिदायत देती कि किसी को कोई उपहार नहीं लाना है, न मेरे लिए न ही किसी और शिक्षक या शिक्षिका के लिए । वे बड़े ही मायूस होकर पूछते "क्यूँ " और मैं उन्हें समझाते हुए कहती बस अपने बागीचे से "एक फूल" ले आना जिसके घर में हो । जिसके घर न हो वे बाज़ार से नहीं लायेंगे। पर मैं उन बच्चों के स्नेह को देखकर दंग रह जाती । सुबह सुबह ज्यों ही मैं अपनी कक्षा पहुँचती एक एक कर बच्चे मेरे सामने आते और अपने हाथों से बनाये हुए कार्ड और अपने बगीचे से लाये हुए फूल मुझे देते।

उनके स्नेह को देख मैं तो भाव विभोर हो जाती । जो बच्चे फूल नहीं भी लाते वे भी औरों के साथ आकर मुझे शिक्षक दिवस की बधाई देते । वे बच्चे मेरी भावनाओं की जो क़द्र करते और सम्मान देते वह मेरे लिए अनमोल उपहार होता । उस कार्ड में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करते जिसे पढ़ मैं आह्लादित हो जाती। आज भी मैं उनमे से कुछ कार्ड रखी हुई हूँ जो बच्चों ने मुझे दिए थे।

आज शिक्षक दिवस के अवसर पर मैं उन सभी बच्चों को , हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आर्शीवाद देती हूँ एवं सभी गुरुजनों को नमन करती हूँ। 

रजत जयंती स्वर्ण बनाओ




( यह कविता मैं ने अपनी छोटी बहन के २५ वीं शादी की सालगिरह पर लिखी है.)

"रजत जयंती स्वर्ण बनाओ"

एक दूजे से प्यार बहुत
दुनिया में दीवार बहुत 

किसने किसको दी तरजीह
वैसे तो अधिकार बहुत 

लगता कम खुशियों के पल हैं 
पर उसमे श्रृंगार बहुत 

देखोगे नीचे संग में तो 
जीने का आधार बहुत 

एक दूजे के रंग में रंगकर 
खुशियों का संसार बहुत 

कुसुम कामना अनुपम जोडी 
सदियों तक हों प्यार बहुत 

रजत जयंती स्वर्ण बनाओ 
जीवन की रफ़्तार बहुत 

-कुसुम ठाकुर-

चाहत तुम्हारी फिर से


(कुछ दिन कुछ पल ऐसे होते हैं जो चाहकर भी भूला नहीं जा सकता, उसी दिन की याद में मेरी यह रचना जिसे लोगों ने भुला दिया।)

"चाहत तुम्हारी फिर से"

चाहत तुम्हारी फिर से मुझको सजा दिया  
सोई हुई थी आशा उसको जगा दिया

कहने को जब नहीं थे, सोहबत नसीब थी 
खोजा जहाँ मैं दिल से, चेहरा दिखा दिया 

ढूँढ़े जिसे निगाहें उजडा वही चमन था 
देखा गुलाब सूखा लगता चिढ़ा दिया 

चाहत किसे कहेंगे, तबतक समझ नही थी 
जब चाहने लगे तो उसने रुला दिया 

नव कोपलों के संग में कलियाँ खिले कुसुम की
खुशबू, पराग सब कुछ तुम पर लुटा दिया 

-कुसुम ठाकुर-

यूँ मुहब्बत कहूँ हो इबादत मगर


"यूँ मुहब्बत कहूँ हो इबादत मगर"

है कठिन फिर भी सच को कहोगे अगर 
जिंदगी का सफ़र ना सिफर हो डगर  

दिल की बेताबियाँ और ऐसी तड़प  
यूँ मुहब्बत कहूँ हो इबादत मगर 

आज कहने को जब, तुम नहीं पास में 
क्या है उलझन कहूँ जाने सारा नगर

भाग्य रूठे हों तुमसे तो फिर क्या कहें 
ये इनायत कहो हमसफ़र हो अगर

सारी खुशियाँ मिले याद आए कुसुम 
रूठा कैसे कहूं दूर हो भी मगर 

-कुसुम ठाकुर-

उन सैनिकों को शत-शत नमन.

कई दिनों से उतराखंड की आपदा से लोग जूझ रहे हैं टीवी में देख मन द्रवित हो जाता है। और तब अचानक समाचार में आया राहत बचाव कार्य में लगे हेलिकोप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उफ़…….  कैसी विडम्बना है। हे  ईश्वर ! उन सैनिकों को किस बात की सजा मिली जो सच में जान जोखिम में डालकर आपदा में फंसे लोगों को बाहर निकाल रहे थे उनके साथ ऐसा अन्याय क्यों? उन सैनिकों को शत-शत नमन। 

एक तरफ हमारे देश की सेना बहादुरी एवं तत्परता के साथ जान जोखिम में डालकर उत्तराखंड त्रासदी से लोगों को बचाने में जुटी हुई है दूसरी तरफ हमारे देश के नेता. उन्हें तो यहाँ भी अपना स्वार्थ अपना नाम एवं अपने वोट की पड़ी है . नाम एवं सहानुभूति के चक्कर में आपस में खुलेआम मारपीट कर रहे हैं। 

कम से कम तीन-चार वर्षों तक केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुंट साहब जैसे पवित्र स्थलों पर लोग नहीं जा पाएँगे। वहां के वासिंदे जिनकी रोजी रोटी पर्यटकों, तीर्थयात्रियों पर निर्भर थी, वे अब क्या करेंगे जैसी गंभीर समस्या जहाँ हो वहां के नेता यह चर्चा कर रहे हैं कि भावी प्रधानमंत्री या वह नेता अबतक प्रभावित क्षेत्र नही पहुंचा। उस नेता की हेलीकाप्टर क्यों उतरी, उसकी क्यों नहीं उतरी .......वगैरह वगैरह। बैंड बाजे गाजे के साथ राहत सामग्री भेजी जा रही है क्या उनके कानों में आपदा में फंसे लोगों की चीख सुनाई नहीं देती। 

वाह रे हमारे देश के नेता इनमे अदमीयता नाम की चीज लेस मात्र भी नहीं रही। ऐसे नेता को चुनकर हम देश इनके हाथो मे सौंपते हैं ? जिस देश में ऐसे नेता हों वहां अब भी हम दम भरते हैं कि हम सभ्य और सुसंस्कृत है।  सदियों से चली आ रही देश की सभ्यता और संस्कृति क्या यही थी? इसी के नाम पर हम पाश्चात्य सभ्यता को कोसते हैं?  

आज के युवा वर्ग से हमारी अपील है वे जागें, एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाएं। वे जहां कहीं भी हैं भेद भाव जाति पांति से ऊपर उठकर अपने देश को इन स्वार्थी गद्दार नेताओं से बचाएं, न कि पार्टी, क्षेत्र, जाति के नाम पर आपस में लड़ें। वे चाहें तो आज हमारे देश को बचा सकते हैं।

गाते रहो मुस्कुराते रहो


"गाते रहो मुस्कुराते रहो"

तुम गाते रहो मुस्कुराते रहो 
जिन्दगी के सफ़र में लुभाते रहो 

कट जाए सफ़र तो हर हाल में 
सुख-दुःख को गले से लगाते रहो 

तुम बेसहारा खुद हो मगर 
बेसहारों का हाथ बंटाते रहो

ये दुनिया है माना बहुत मतलबी 
दूर रहकर भी उनसे निभाते रहो 

लोग पाहन की पूजा भी करते जहां 
नफरतों को ह्रदय से मिटाते रहो

-कुसुम ठाकुर-

मन का भेद पपीहा खोले


"मन का भेद पपीहा खोले"

जिस माली ने सींचा अबतक सुबक सुबक वह रोता है
पाल पोसकर बड़ा किया हो उसको एक दिन खोता है  

धूप हवा का जो ख़याल रख पंखुड़ियाँ है नित गिनता
उस उपवन में चाहत से क्या पतझड़ में कुछ होता है  

नेमत उसकी है प्रकृति फिर छेड़ छाड़ क्यों है करता
फूल खिले काँटों में रहकर फिर कांटे तू क्यों बोता है  

शुष्क टहनियों पर नव पल्लव, कलियाँ भी हैं मुस्काती
मधुमास के आते ही मधुप फूलों से अमृत ढ़ोता है  

कुहू कुहू कोयल जब बोले मन का भेद पपीहा खोले
हर्षित कुसुम भंवरों का गुन गुन भी सुहावना होता है  

-कुसुम ठाकुर-


आई शरण तुम्हारी




" आई शरण तुम्हारी "

हरि मैं तो हारी, आई शरण तुम्हारी,
अब जाऊँ किधर तज शरण तुम्हारी 


दर भी तुम्हारा लगे मुझको प्यारा,
 तजूँ  कैसे अब मैं शरण तुम्हारी 
हरि ..................................


मन मेरा चंचल, धरूँ ध्यान कैसे,
बसो मेरे मन मैं शरण तुम्हारी  
हरि ...................................


जीवन की नैया मझधार में है 
पार उतारो मैं शरण तुम्हारी
हरि ................................ 


तन में न शक्ति, करूँ कैसे भक्ति 
अब दर्शन दे दो मैं शरण तुम्हारी 
हरि .....................................

- कुसुम ठाकुर - 

सही मायने में "महिला दिवस".कब मनेगा ?


करीब ढाई महीने से अमेरिका में हू, इन ढाई महीने में काफी कम लिख पाई हूँ। सच कहूँ तो पोते को छोड़कर कुछ करने का मन ही नहीं होता। उसके साथ एक एक पल मेरे लिए अनमोल हैं। होता है किसी और काम में लग गई तो कुछ अनमोल घड़ियाँ छूट न जाए। पर जब वह सो जाता है उस समय कुछ लिख लेती हूँ या समाचार पढ़ने लिखने का काम कर लेती हूँ। आज अंतरजाल पर गई तो पाई पूरा अंतरजाल "अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस" पर आलेख कवितायें शुभकामनाओं से भरा था। मन में तरह तरह की बातें आने लगी। 

अपने स्वभाव वश मैं छोटी सी छोटी बातों को गहराई से सोचती हूँ और कई बार ऐसा होता है कि मैं उसमे उलझकर रह जाती हूँ । क्यों कि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिसमे सब की राय मुझसे बिल्कुल ही अलग होती है। मैं तर्क ज्यादा नहीं कर सकती इसलिए चुप रहकर मूक दर्शक बन जाती हूँ, परन्तु मेरा मन बिचलित रहता है। हाँ अनुशासन हीनता और अन्याय मैं कदापि बर्दाश्त नहीं कर सकती उस समय मैं बिल्कुल चुप नहीं रहती, चाहे वह कोई हो और किसी के साथ हो रहा हो।   

बचपन में समानार्थक शब्द जब भी पढ़ती थी बस "नारी" पर आकर अटक जाती थी। मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठता -"इतने शब्द हैं नारी के फिर अबला क्यों कहते हैं"? अबला से मुझे निरीह प्राणी का एहसास होता। सोचती, जो त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति मानी जाती है वह अबला कैसे हो सकती ? एक तरफ हमारे पुरानों में नारी शक्ति का जिक्र है दूसरी तरफ हमारे व्याकरण में उसी नारी के लिए अबला शब्द का प्रयोग क्यों ? पर मुझे उत्तर मिल नहीं मिल पाता । मैं अबला शब्द का प्रयोग कभी नहीं करती बल्कि अपनी सहपाठियों को भी उसके बदले कोई और शब्द लिखने का सुझाव देती ।

जब बच्चों को पढ़ाने लगी उस समय भी बच्चों को नारी के समानार्थक  शब्द में "अबला" शब्द लिखने पढ़ने नहीं देती और बड़े ही प्यार और चालाकी से नारी के दूसरे दूसरे शब्द लिखवा देती । मालूम नहीं क्यों अबला शब्द मुझे गाली सा लगता था और अब भी लगता है।

1908 ई. में अमेरिका की कामकाजी महिलाएं अपने अधिकार की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं। 1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा की। 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया और तब से ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। परन्तु कुछ वर्षों से "दिवस" मनाना फैशन बन गया है। क्या साल में एक दिन याद कर लेना लम्बी लम्बी घोषणा करना ही सम्मान होता है ? किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात नहीं है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ सम्मान देने का ढोंग किया जाता हो।  सम्मान बोलकर देने की वस्तु नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। क्या एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिलाओं का सम्मान हो जाता है ? 

हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन। साल के बाक़ी दिन हर क्षेत्र में अब भी न वह सम्मान न वह बराबरी मिल पाता है जिसकी वह हकदार है या जो दिवस मनाते वक्त कही जाती है। कहने को तो आज सभी कहते हैं "नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं". परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जबतक होती रहेगी तबतक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।  

नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी। यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होता ही है। आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी आरक्षण की जरूरत क्यों ? आरक्षण शब्द ही कमजोरी का एहसास दिलाता है आज एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है। क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे?  हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की। जिस दिन हमें आरक्षण की जरूरत महसूस होना बंद हो जाएगा  वही दिन महिला दिवस होगा। 

बर्फानी तूफ़ान नीमो के बाद जन जीवन.

 बर्फ से ढके पेड़ पौधे 
 प्राकृतिक आपदा पर तो किसी का वश नहीं होता। परन्तु जब बच्चे या प्रिय जन साथ में न होकर हजारों मील दूर या दूसरे देश में हों तो किसी भी तरह के आपदा के आने पर चिंता होना स्वाभाविक है। अमेरिका के न्यू जर्सी में मेरा छोटा बेटा रहता है जहाँ  से मैनहैटन (न्यू यार्क) जाने में आधे घंटा लगता है। वैसे मैं साल में एकबार 3-4 महीने के लिए अमेरिका आती हूँ। जब भारत में रहती हूँ तो अमेरिका में होने वाले आपदा आने पर चिंतित हो उठती हूँ। हर पल फोन और नेट से बेटे से समाचार लेती रहती हूँ। तूफ़ान सैंडी में मुझे छोड़ मेरा पूरा परिवार ही न्यू यार्क में ही था मेरा पोता तो उस समय मात्र 3 महीने का था। 

न्यू यार्क शहर काम पर जाने वाले हजारों लोगों के यातायात का मुख्य साधन ट्रेन है। सैंडी ने ऐसी तबाही मचाई कि सारे स्टेशनों में पानी घुस गया। स्थिति फिर से सामान्य होने में कई दिन लग गए। मौसम विभाग के अग्रिम सूचना के बावजूद तूफ़ान सैंडी ने अमेरिका के कुछ भागों को भारी क्षति पहुंचाई थी। खासकर तटीय इलाके में तो कई लोगों के पूरा का पूरा घर ही तबाह हो गया। जहाँ तहाँ पेड़ गिर जाने की वजह से बिजली की आपूर्ति में काफी दिक्कत हुई। उस समय मैं हर पल की खबर लेने के लिए या तो नेट पर रहती थी या फिर फ़ोन से बातें कर मन को ढाढस मिलता। 

आजकल मैं अमेरिका में हूँ गुरूवार रात से शुक्रवार सारा दिन और रात बर्फानी तूफ़ान ने अमेरिका के उत्तरी भाग में तबाही मचाई। अमेरिका के मौसम विभाग ने ज्यों ही बर्फानी तूफ़ान नीमो के आने की अग्रिम सूचना देना शुरू किया  रोड आइलैंड , कनेक्टिकट, मैसाचुसेट्स, न्यू हम्शायर  एवं न्यू यॉर्क में शुक्रवार को आपात स्थिति घोषित कर दिया गया। लोगों को अपने अपने जरूरत के सामान रखने और घरों से बाहर न निकालने की हिदायत भी दे दी गई। समाचार एवं नेट पर हर जगह चेतावनी आने लगी। बर्फबारी शुरू होने से पहले ही एहतियात के तौर पर करीब 4700 उड़ाने रद्द कर दी गई। 

घर के पीछे का जंगल 
कई वर्षों से मेरा अमेरिका आना जाना होता रहा है अब मैं भी यहाँ आकर मैं रम जाती हूँ। जैसे ही सुनी बर्फानी तूफ़ान नीमो आने वाला है मैं भी यहाँ के लोगों की तरह नेट और समाचार से जुड़ गयी और पल पल की जानकारी लेती रही। न्यू यार्क और न्यू जर्सी के लिए भी बार बार चेतावनी आ रही थी कि 1,5 फीट से 2 फीट तक बर्फबारी हो सकती है और शुक्रवार रात 9 बजे से बर्फ़बारी बर्फीली तूफ़ान का रूप ले लेगा। मेरे बेटे ने भी जरूरत का सामान समय पर ले आया और हम सभी सामान्य दिनों की तरह अपने अपने कामो में लग गए परन्तु मौसम विभाग के समाचार एवं चेतावनी देखते रहे। अचानक समाचार आने लगा कि अब तूफ़ान "नीमो" न्यू जर्सी के बगल से चला जायेगा यानि बर्फबारी तो होगी पर तूफ़ान का खतरा टल गया हम सभी को थोड़ी राहत तो मिली। 

मैं भी अमेरिका के मौसम का मिजाज थोड़ा बहुत समझने लगी हूँ। गुरूवार को सुबह से ही बिलकुल शांत वातावरण देखकर अनुमान हो गया कि बर्फबारी होना ही होना है। शाम होते होते बर्फ़बारी शुरू हो गई। सुबह तक कम से कम 3 इंच तक बर्फ जमा हो गया शुक्रवार सारा दिन बर्फ़बारी होती रही शाम को काफी तेज हवा की वजह से तापमान काफी कम हो गया। सुबह 4 बजे एक प्रकार की मशीन की आवाज से नींद खुली। खिड़की से बाहर झांकी तो  तो करीब 2 फुट बर्फ की चादर चारों और बिछी थी। चारों और बर्फ ही बर्फ था। मैं भी पहली बार इतनी बर्फबारी देखी थी। मैं एक बार बर्फ से बिछी अद्भुत दृश्य को देखती और एक बार बड़ा सा बर्फ काटने की मशीन सडक के एक छोड़ से दूसरे छोड़ आ जा रही थी उसे। पर वह भी प्रतीत होता था मानो बर्फ के ऊपर ही ऊपर जा रहा हो। कई घंटे के बाद सड़क नजर आने लगा। मैं अपने कमरे से उतरकर नीचे गई, घर के पीछे जंगल है। जंगल देख मैं वहीँ खडी हो देखती रह गई क्या दृश्य था , पूरे जंगल में बर्फ की मोई परत और बीच बीच में पत्ता विहीन पेड़ जिनपर बर्फ गिरे हुए थे।  

बर्फ हटाने के बाद सड़क 

आम दिनों की तरह हम फिरसे नेट पर एवं टीवी में समाचार देखने लगे।  बोस्टन और एक दो शहर और पर तूफ़ान का सबसे ज्यादा असर था। कुछ इलाके की बिजली ऐतिहात के तौर पर काट दी गयी थी। आपदा पर किसी का वश नही होता है। वश में होता है सतर्कता और आपदा के बाद एक दूसरे या पीड़ितों की सहायता करना। यहाँ आपात की घोषणा होते ही  मौलिक सुविधाओं से सम्बंधित विभाग और तंत्र  की  सतर्कता एवं तत्परता सच में प्रशंसनीय है। बर्फ के अम्बार लगे हैं जिन्हें गलने में कम से कम महीना दिन तो लगेगा ही, परन्तु सड़कें पूर्ववत साफ़ सुथरी। जन जीवन सामान्य होने में बिलकुल ही समय नहीं लगा। 

मुझे आज मेरा वतन याद आया !!

( मेरी एक पुरानी कविता, जिसे मैं कुछ बरसों पहले अपने अमेरिका प्रवास के दौरान एक अप्रवासी भारतीय को ध्यान में रखकर लिखी थी। आज मैं अमेरिका में हूँ, अनायास ही यह कविता याद आ गई। )

"मुझे आज मेरा वतन याद आया"

मुझे आज मेरा वतन याद आया।
ख्यालों में तो वह सदा से रहा है ,
 मजबूरियों ने जकड़ यूँ रखा कि,
मुड़कर भी देखूँ तो गिर न पडूँ मैं ,
यही डर मुझे तो सदा काट खाए ।
मुझे आज ......................... ।


छोड़ी तो थी मैं चकाचौंध को देख ,
 मजबूरी अब तो निकल न सकूँ मैं,
करुँ अब मैं क्या मैं तो मझधार में हूँ ,
इधर भी है खाई, उधर मौत का डर ।
मुझे आज ............................... ।


बचाई तो थी टहनियों के लिए मैं ,
है जोड़ना अब कफ़न के लिए भी ।
काश, गज भर जमीं बस मिलता वहीँ पर ,
मुमकिन मगर अब तो वह भी नहीं है ।
मुझे आज ................................ ।


साँसों में तो वह सदा से रहा है ,
मगर ऑंखें बंद हों तो उस जमीं पर।
इतनी कृपा तू करना ऐ भगवन ,
देना जनम  निज वतन की जमीं पर ।
मुझे आज .................................. ।

-कुसुम ठाकुर-

सह सको मुमकिन नहीं.


"सह सको मुमकिन नहीं"

 है नशा ऐसी कहो क्या सह सको मुमकिन नहीं
सो रहे क्यों अब तो जागो सह सको मुमकिन नहीं

हाथ अब कुर्सी जो आई, धुन अरजने की लगी
मृग मरीचिका जो कहें , सह सको मुमकिन नहीं

 सच दिखा सकते मगर आँखें वो मूंदे हैं विवस
बिखर गए सपने अधूरे, सह सको मुमकिन नहीं

कर(टैक्स) पसीने से दिया जो रह गया हो वह ठगा
अपनी मनमानी करे तुम सह सको मुमकिन नहीं

नहीं खून मांगे देश तुमसे बात अपने दिल की सुनो
 बेड़ियों में कुसुम सपना, सह सको मुमकिन नहीं

-कुसुम ठाकुर- 

आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है!!


 "आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है उसके लिए हमारे देश के अनेको देश भक्तों ने जान की बाजी लगाकर देश पर मर मिटने की कसम खाई और शहीद हुए. उनके वर्षों की तपस्या और बलिदान से हमने आजादी पाई है ". झंडा के सामने यह हर वर्ष ऐसे बोला जाता है मानो हम प्रतिज्ञा कर रहे हों कि इस देश की खातिर हम भी अपने उन शहीदों की तरह मर मिट सकते हैं जिन्होंने कई सौ वर्षों की गुलामी से हमें आजादी दिलाई है. पर वह भी मात्र औपचारिकता ही होती है. क्या ये वाक्य बोलते समय उनके ह्रदय में जरा भी देश पर मर मिटने की चाहत होती है ?  हर वर्ष जो भी झंडोत्तोलन करने आता है, पर उन्हें  यह औपचारिकता निभाना होता है इसलिए कह देते हैं.

हम कहते हैं अंग्रेजों कि नीति थी "divide and rule" पर क्या आजके हमारे नेताओं की भी यही नीति नहीं है? वे चाहते हैं कि हमारे युवा वर्ग दिग्भ्रमित रहें और जाति, राज्य, धर्म,भाषा लेकर इतना ज्यादा आपस में उलझे रहें कि उन्हें यह समझने की फुर्सत ही न हो कि वे सोचें कि हमारे देश के नेता क्या कर रहे हैं. सही मायने में हमारा भला कौन कर सकता है देश का भला कौन चाहता है? वैसे मेरी नज़र में एक भी नेता या पार्टी आजके दिन में ऐसा नहीं है जो खुद की भलाई से ऊपर उठकर हमरा, हमारे बच्चों का या देश का भला चाहे. 

आज आज़ादी के ६५ साल बाद भी क्या हम आजाद हैं ? और यदि नहीं हैं तो उसका जिम्मेदार कौन है ? क्या हम खुद उसके जिम्मेदार नहीं हैं ? यों तो लोग कहते हैं हमारे चौथे खम्भे की अहम भूमिका होती है पर मेरे हिसाब से हमरा चौथा खम्भा हमारे देश के युवा हैं . जिन्हें उनकी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाना होगा देश के प्रति उनकी अहम भूमिका देश को आज भी हर क्षेत्र में उंचाईयों पर ले जा सकती है. अगर वे दिग्भ्रमित न हों तो उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है. उन्हें समझना होगा कि आज के नेता चाहे किसी भी पार्टी के हों उनका उद्देश्य मात्र होता है गद्दी पर बने रहें चाहे देश को बेच ही क्यों न दें. आज भी हमारा घाव भरा नहीं है और कहते हैं अंग्रेज जाते जाते हमें बांटकर चले गए. 

हमारे देश में एक बहुत बड़ी क्रान्ति आई है जिसमे युवाओं का बहुत बड़ा योगदान है या हम कह सकते हैं कि उनकी सोच का ही नतीजा है कि आज वे राज्य, जाति, धर्म भूलकर शादी कर रहे हैं. यही सोच ऐसी ही क्रांति एकबार उनके मन में आ जाए तो हमारे देश से ऐसे नेताओं का सफाया हो जायेगा जो हमें बाँटकर देश पर राज्य करना चाहते हैं. उसके लिए देश के युवाओं को एकजुट होकर क्रान्ति लाना होगा. देश को बचाने के लिए राज्य, भाषा, जाति, धर्म के भेद भाव को छोड़ एक जुट होकर कृतसंकल्प होना होगा. पर आज जब हम राज्य, भाषा, धर्म, जाति के नाम पर टुकड़े टुकड़े हो चुके हैं उसके बावजूद भी हम यदि नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ़ नहीं करेगी. हमारे इतिहास से सभ्यता और संस्कृति का नामो निशान मिट जायेगा.