अपना सा आभास तो लगता

"अपना सा आभास तो लगता"

समझूं कैसे क्या है रिश्ता,
बिन देखे क्यूँ स्नेह पनपता।

है क्या उलझन समझ न पाऊँ,
होंठ हिले, न शब्द निकलता।

राह तकूँ मैं प्रतिपल जिसकी,
उस तक न सन्देश पहुँचता।

वह न समझे कैसे कह दूँ,
अपना सा आभास तो लगता।

यही  कुसुम जीवन की उलझन
ह्रदय प्रेम की यही विकलता

- कुसुम ठाकुर -