क्या पाया यह मत बोल !



"क्या पाया यह मत बोल"

कल-कल करती निशदिन नदियाँ,
अंक में अपने भर लेती हैं,
चाहे पत्थर हो या फूल,
क्या पाया यह मत बोल ।

काँटों में रहकर मुस्काना ,
मुरझाकर भी काम में आना,
कुसुम न हो कमजोर,
क्या पाया यह मत बोल ।

दिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
फिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।

हम स्वतंत्र आए जग में जब
और अकेला ही जाना अब
करे बेड़ियाँ कमजोर
क्या पाया यह मत बोल


मूल से सूद सभी को प्यारा
खुशियाँ जो मिलती दोबारा
अब मिले न ख़ुशी का ओर
क्या पाया यह मत  बोल

-कुसुम ठाकुर- 

उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है ?


"उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है"

जो आता है जाता क्यूँ है ?
और बेबस इतने पाता क्यूँ हैं ? 

 सज़ा मिले सत्कर्मों की 
यह सोच हमें सताता क्यूँ है ? 

सच्चाई की राह कठिन है 
उसपर चलकर  रोता क्यूँ है ? 

है राग वही रागनी भी वही 
फिर गीत नया भाता क्यूँ है ? 

ममता तो अनमोल है फिर 
  वंचित उससे रहता क्यूँ है ? 

माली सींचे जिस सुमन को   
उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है ?

प्यार कुसुम सच्चा जो कहो 
प्रतिबन्ध लगाता क्यूँ है ?   

-कुसुम ठाकुर-

धोखा सगा दिया


"धोखा सगा दिया"

कसूर था क्या मेरा, फिर क्यूँ  सजा दिया
सोई थी आस क्यों फिर, उसको जगा दिया 

कहने को कुछ न था, सोहबत नसीब थी 
जब साथ ढूँढती हूँ तनहा बना दिया 

जो ढूँढती निगाहें, उजड़ा हुआ चमन है
सूखा हुआ गुलाब जैसे, मुझको चिढ़ा दिया 

चाहत किसे कहें हम, समझी नही थी तब 
चाहत जगी तो यारों, किस्मत दगा दिया 

मझधार में कुसुम है, पतवार थामकर 
अब जाऊँगी किधर को , धोखा सगा दिया

- कुसुम ठाकुर-