" रोटरी के एक प्रेसिडेंट की व्यथा "

  " एक प्रेसिडेंट की व्यथा "

सन् 2012 में मैंने रोटरी की सदस्यता ली और उसका एकमात्र कारण यह था कि मैं बड़े स्तर पर सामाजिक कार्य करना चाहती थी और ज्यादा से ज्यादा जरूरत मंदो के काम आ सकूं इसी ध्येय के साथ मैंने 12 जुलाई 2012 को अपने जन्मदिन के दिन रोटरी क्लब ऑफ जमशेदपुर मिड टाउन की सदस्यता ली. मैं रोटरी में शामिल होने से पहले भी सामाजिक कार्यों से जुड़ी थी और गांव बस्तियों की खाक छानती रहती थी . आज भी उन गांव और बस्तियों के लोग मुझे जानते हैं और याद करते हैं. 

मेरी आदत है, जिस काम का जिम्मा मैं लेती; मेरी कोशिश होती कि उसकी जिम्मेदारी मैं अच्छे से निभाऊं और  रोटरी में तो काम करने के लिए ही शामिल हुई थी.  मेरी कोशिश होती कि मैं सारे मीटिंग, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस  में भाग लूं ताकि मुझे सीखने को मिले और बहुत कुछ सीखा भी मैंने।  हर मीटिंग, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस में रोटरी के एक से एक वक्ता होते; जिनसे सीखने के लिए बहुत कुछ होता। मैं हर वक्ता के वक्तव्य को बड़े ही ध्यान से सुनती और वापस आकर अपने क्लब के सदस्यों से उनकी तारीफ और बखान भी करती। पर एक बात जो हर मीटिंग में आम तौर पर समझ में आता वो यह कि प्रेसिडेंट के लिए 365 दिन बहुत अहम होता है और उन 365 दिन का बॉस प्रेसिडेंट होता है. 

क्लब में शामिल होने के शुरू के दिनों में तो नहीं पर कुछ सालों के बाद जब मुझे भी प्रेसिडेंट के लायक क्लब के सदस्य समझने लगे तब मैं भी आम इंसानों की तरह, प्रेसिडेंट बनने के मंसूबे देखने लगी. मुझे लगने लगा प्रेसिडेंट बनकर मैं कुछ विशिष्ट बन जाऊंगी और विशिष्ट बनने  की  इच्छा किसे नहीं होती। विशिष्ट बनने पर कुछ कर्तव्य भी होते और उन कर्तव्यों में एक कर्तव्य होता, सारे मीटिंग, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस में शामिल होना। विशिष्ट होने पर दूसरे क्लब वाले भी अपने अपने इंस्टॉलेशन में और विशिष्ट अवसरों पर निमंत्रण देंगें ही; वहां भी तो जाना जरूरी हो जाएगा। आखिर 365 दिनों की बॉस जो रहूंगी। यह सब सोच मैंने अपनी तैयारी शुरू कर दी कहां कहां जाना होगा यह सब  मन ही मन  मैंने  तय कर लिया और वहां के कार्यक्रम के अनुसार कपड़े वगैरह की तैयारी भी शुरू कर दी खासकर इंस्टॉलेशन और कॉन्फ्रेंस की मैंने बहुत जोर-शोर से तैयारी की थी. या यूं कहें तो इंस्टॉलेशन और कॉन्फ्रेंस की तैयारी तो मैंने उसी दिन से शुरू कर दी थी जिस दिन क्लब सदस्यों ने मुझे प्रेसिडेंट बनाने का निर्णय लिया जिसके लिए मैंने तुरंत सहमति भी दे दी थी.  इंस्टॉलेशन कहां और कैसे करना है वह तो उसी दिन से सोचना शुरू कर दी थी जिस दिन मेरा प्रेसिडेंट बनना तय हुआ. 

एक साल व्यस्तता रहेगी यह सोच होली में अपने बड़े बेटे के पास पूना गई और मेरे लौटने की तारीख से पहले ही लॉक डाउन लग गया.  किस्मत तो देखो इंस्टॉलेशन की सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई. आठ क्लबों का इंस्टॉलेशन एक साथ वो भी ऑनलाइन होना तय हुआ. तैयारी में एक साथ आठ बॉस को इकठ्ठा निर्णय लेना था साथ ही कुछ सुपर बॉस भी थे. कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पास जिन रंगो की अच्छी अच्छी साड़ियां पूना में थीं वो सारी की सारी रिजेक्ट कर दी गई .......... एक रंग जो हम सारी प्रेसिडेंट को पहनने का निर्णय लिया गया उस रंग  की बहुत ही साधारण सी साड़ी मेरे पास थी. लॉकडाउन के कारण न ही ऐसी परिस्थिति थी कि साड़ी खरीदी जाए न समय था बस उसी साड़ी को पहन मैंने ऑनलाइन ही प्रेसिडेंट की शपथ ली. उस दिन मायूस तो हुई पर मन को सांत्वना देते हुए सोची कॉन्फ्रेंस में सारी कसर निकाल लूंगी पर मेरी किस्मत में वो भी दिन नहीं आया। कॉन्फ्रेंस के साथ सारे के सारे कार्यक्रम रद्द हो गए और उन्हें ऑनलाइन ही कर दिया गया. हर कार्यक्रम के बाद आपस के विचार विमर्श से और मीटिंग के बाद उम्मीद जगती कि अगला कार्यक्रम में हम मिल सकते हैं; पर वह दिन नहीं आया और हमारा स्वर्णिम 365 दिन भी खत्म हो गए। मेरी सारी की सारी तैयारी धरी की धरी रह गई। हमारे इनकमिंग गवर्नर ने इंस्टॉलेशन का वोडियो शूट का बहुत ही अच्छा निर्णय लिया, जैसे ही पता चला कॉलर एक्सचेंज प्रोग्राम की वीडियो शूट होगी मेरी संजोए हुए साड़ियों में से एक साड़ी पहनने की उम्मीद जगी; यह सोच मैं खुशी से फूली नहीं समाई। "चलो उतनी साड़ियों  में से एक साड़ी तो पहनने  को मिलेगी "। मन में आया अब तो "मैं बॉस भी नहीं हूं, मात्र बॉस को कॉलर सुपुर्द करना है", पर कोई एक साड़ी पहनने का मौका तो मिलेगा। चूंकि एक भी आउटगोइंग प्रेसिडेंट कॉलर एक्सचेंज शूट वाली मीटिंग में नहीं थे अतः मेसेज मिला बस एक ही रंग बचा है आउटगोइंग प्रेसिडेंट के लिए, बाकी सब तय हो गया है. आज भी जब मैं अपनी आलमारी खोलती हूं लगता है साड़ियां मुझे चिढ़ा रही हैं.  

नारी व्यापकता का द्योतक है ,एक दिन ही क्यों ?

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1908 ई. में अमेरिका की 15000 कामकाजी महिलाएं अपने शोषण के विरुद्ध और अपने अधिकारों की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं। उनका मुख्य मुद्दा महिला और पुरुष के तनख्वाह  में असमानता की थी । 1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ-साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा कर दी । 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया। ८ मार्च 1975 को अमेरिका में पहली बार अंतराष्ट्रीय महिला दिवस का  आयोजन हुआ और तब से  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। परन्तु कुछ वर्षों से " हर संस्थान में महिला दिवस मनाने की होड़ सी लगी  रहती है 

परंतु कुछ वर्षों से सभी संस्थानों की कोशिश होती है वे अच्छे से इस दिन को मनाएं और अपने आस पास की विशिष्ट महिलाओं को सम्मानित करें ।  ऐसा नहीं है कि किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ कई उपाधि, सम्मान दी जाती है  सम्मान बोलकर देने की भी जरूरत नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। क्या एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिलाओं का सम्मान हो जाता है ? यह मेरा प्रश्न उन सभी लोगों से है जो महिला दिवस के पक्षधर हैं ?  किस महिला की क्या उपलब्धि है यह हम महिला दिवस के अवसर पर खोज तो लेते हैं पर साल के बाकी दिन ? क्या कभी अपने घर की महिलाओं पर ध्यान दिया है, उनके योगदान पर कभी दो शब्द सराहना के बोला है ? मेरा घर से तात्पर्य केवल अपने घर से ही नही है , अपने संस्थान अपने दफ्तरों से भी है एक बार घर की महिलाओं की सराहना करके भी देखिए ।  
 
कहने को तो आज सभी कहते हैं "नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं". परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जबतक होती रहेगी तबतक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।  बचपन में समानार्थक शब्द जब भी पढ़ती थी बस नारी के पर्यायवाची  शब्द "अबला " पर आकर अटक जाती थी। मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठता -"इतने शब्द हैं नारी के फिर अबला क्यों कहते हैं"? अबला से मुझे निरीह प्राणी का एहसास होता है। सोचती थी जो त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति मानी जाती है वह अबला कैसे हो सकती ? एक तरफ हमारे पुरानों में नारी शक्ति का जिक्र है दूसरी तरफ हमारे व्याकरण में उसी नारी के लिए अबला शब्द का प्रयोग क्यों ? पर मुझे उत्तर मिल नहीं मिल पाता । मैं अबला शब्द का प्रयोग कभी नहीं करती थी बल्कि अपनी सहपाठियों को भी उसके बदले कोई और शब्द लिखने का सुझाव देती  थी।

जब मैं अपने बच्चों को पढ़ाने लगी उस समय भी बच्चों को नारी के समानार्थक शब्दों में "अबला" शब्द लिखने पढ़ने नहीं देती थी और बड़े ही प्यार और चालाकी से नारी के दूसरे-दूसरे शब्द लिखवा देती । मालूम नहीं क्यों अबला शब्द मुझे गाली सा लगता था और अब भी लगता है।  आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ । इन सबके बावजूद उसके स्वाभाविक रूप में कोई बदलाव नहीं आया है ।  आज भी हमारे यहां लोग विधवा और परित्यक्ता  को बेचारी अलंकार के बिना नहीं कहते । क्या मात्र पति के न रहने या साथ न रहने से वह बेचारी हो जाती है । यदि औरतें  पति के नही रहने पर बेचारी हो जाती हैं तो मर्द के विदुर होने पर बेचारा अलंकार क्यों नही लगाया जाता, यह आज  के समाज से मेरा प्रश्न है ?

ऐसा नहीं है कि नारी की दशा में औरतों का कोई दोष नही आज की नारी कुंठा ग्रसित हैं, जो उन्हें ऊपर उठाने में बाधक हो सकता है । हमारे साथ कल क्या हुआ उस विषय में सोचने के बदले यदि हम अपने आज के बारे में सोचें तो हमारा आत्म विश्वास और अधिक बढेगा । बीता हुआ कल तो हमें कमजोर बनाता है , हमारे मन में आक्रोश ,कुंठा , बदले की भावना को जन्म देता है । फिर क्यों हम अपने अच्छे बुरे की तुलना कल से करें और बात बात में नीचा दिखाने की कोशिश करें। जरूरी नहीं कि उंगली उठाने से ही गल्ती का एहसास हो । हमरा ह्रदय हमारे हर अच्छे बुरे की गवाही देता है, धैर्य भी तो नारी का एक रूप है। 


हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए सरकार के द्वारा भी आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन भी । साल के बाक़ी दिनो में हर क्षेत्र में अब भी न वह सम्मान न वह बराबरी मिल पाता है जिसकी वह हकदार है या जो महिला दिवस मनाते वक्त कही जाती है। आज की हर नारी से मेरा एक प्रश्न,  मेरे हिसाब से जिसपर सोचने की जरूरत है एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है । यहाँ भी अबला का एहसास होता है । क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे ? क्या "कोटा" का ताना बंद हो जायेगा ? हममें  क्षमता है जिसके बल पर हम किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं । जरूरत है तो बस हमें कमतर न समझा जाए कमजोर न समझा जाए  


महिला दिवस, नारी दिवस के औचित्य  पर मेरा व्यक्तिगत विचार :  नारी तो व्यापकता का द्योतक है, क्या मात्र एक दिन ही महिलाओं के लिए काफी है ? एक दिन  ढोल पीट-पीटकर महिला दिवस मना लेने से जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है या महिलाओं के हिस्से की इज्जत और सम्मान बस वहीँ तक सिमित है?  नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी । यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होता ही है। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी अबला शब्द व्याकरण से नहीं निकल पाया है और तब तक नहीं निकल पायेगा जबतक हम नीचा दिखाने की कोशिश करते रहेंगे ,आरक्षण की मांग करते रहेंगे । हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की और तब "नारी" शब्द का पर्यायवाची "अबला" हमारे व्याकरण से निकल पायेगा और उस दिन के बाद से हर दिन महिला दिवस होगा