आज का अन्तिम पड़ाव


हम हैं राही इस युग के,
चलते हम रहे, मुडते हम रहे।
हर एक कदम के बाद मुड़े,
हर एक कदम के बाद रुके।


हमारा पहला कदम जब उठा ,
यह सोच के कि यह है सही ,
हम पहुँच गए सच्चाई के घर ।
पर वह मुझे नहीं भाया,
और मुड़कर ज्यों पीछे देखा,
दिख गया मुझे आशा की किरण ।
लगा यह मरे लिये ही बना ,
पर यह तो था परोपकार का घर ,
यह क्यों कर मुझे भाये ।
एक बार फिर पीछे जब मुडा,
लगा यही वह, मैं जो चाहूँ ,
यह तो था इन्साफ का घर।
इस घर में बस यात्री भर रहा ,
अन्तिम बार पीछे जब मुडा ,
पहुँच गया जनता के बीच ।


बस यही तो है अपना मुकाम ,
चलते चलते मुझे पड़ाव मिला ,
न मैं मुडू, न ही रुकूं।
बस मैं चलूँ चलता रहूँ ।

-कुसुम ठाकुर-