मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है

एक बार एक प्रसिद्ध फिल्म नेर्देशक से बातें हो रही थी और उन्होंने कहा था "एक दिन मैं बम्बई में एक फिल्म शूटिंग देख रहा था उस दिन मेरे मन में आया सिनेमा सबसे अच्छा माध्यम है लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाने का."  उसके बाद ही हमने  पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में दाखिला लेने का निर्णय लिया और निर्देशन को चुना.

सच सिनेमा वह शसक्त माध्यम है जिसके जरिए निर्देशक अपनी बातें आम लोगों तक पहुंचा सकता है, समाज को नई दिशा दिखा सकता है. जिन छोटी छोटी बातों पर हम गौर नहीं करते उनका आईना हमें निर्देशक सिनेमा के माध्यम से दिखा सकता है. परन्तु आज हमारे यहाँ हर जगह राजनीति इतनी हावी हो गई है, लोगों की भावनाएं इतनी कलुषित हो गई हैं कि समाज सदा दो भागों में बंट जाती है, लोग आपस में उलझकर रह जाते है, विषय के मतलब ही बदल जाते हैं. जिस उद्देश्य से निर्देशक ने अपनी बात रखी वह तो बेमानी हो जाती है. सिनेमा मनोरंजन के लिए बनाई जाती है........देश के नेता उसे धर्म, देवी देवता पर आक्रमण कह चिंगारी भड़काने का काम करते हैं, उसे धर्म और कौम से जोड़ देते हैं. 

हम इक्कीसवीं सदी में में कहने को तो जी रहे हैं लेकिन आज भी हमारे विचारों में ईश्वर का खौफ विद्यमान है. जो जितना पाप करता है वह उतना ज्यादा पूजा पाठ धर्म का आडम्बर करता है. मैं नहीं कहती पूजा नहीं करनी चाहिए. पूजा करना या किसी विशेष धर्म का अनुयायी होने का मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को भी उसके विचारों को मानने के लिए बाध्य करें और सहमत न होने पर उसे भला बुरा कहें, धर्म हमें दूसरों का आदर करना सिखाता है, हमें अनुशासित बनाता है न कि उद्दंड.

ईश्वर हैं या नहीं इसपर बात करूँ इतनी विदूषी मैं नहीं पर इतना जरूर कहूँगी कि आज के युग में, धर्म के ठेकेदार बाबा और संत हो ही नहीं सकते. संत की परिभाषा क्या होती है यह भी आज के बाबाओं और संतों को मालुम नहीं होगा. हाँ लोगों में आगे बढ़ने की जल्दबाजी और डर ने आज व्यावसायिक बाबाओं, संतों को जन्म दिया है जो धर्म के नाम पर लोगों को ठगते हैं और लोगों के मन में बसे डर और लालच उन्हें ठगने का मौका देती है. उन्हें धर्म की जानकारी हो या न हो इतना अवश्य मालूम है कि धर्म के नाम पर देश को बांटा जा सकता है.

पंडित, पुजारी,मौला, पादरी या बाबाओं को हम भगवान का प्रतिनिधि मानते हैं और हमारी इसी कमजोरी का फायदा आजके ये प्रतिनिधि उठाते हैं. एक प्रश्न मैं करना चाहूंगी अगर सच में ईश्वर हैं.....और अगर  हम इन प्रतिनिधियों का वहिष्कार कर खुद से अपने ईश्वर या ईष्ट की पूजा करें तो क्या हमारे ईश्वर हमारी नहीं सुनेंगे और यदि नहीं सुनेंगे तो फिर ईश्वर कैसे ?

हमारे यहाँ एक सिनेमा आज देश के प्रबुद्ध वर्ग से कहना चाहूंगी कि वे जागें और अपने विचारों पर किसी को हावी न होने दें. धर्म के आधार पर किसी को अपनी भावना पर अधिकार न करने दें . मानवता के मूल्य को समझें यही हमारी संस्कृति रही है उसे विलुप्त न होने दें.

चलने का बहाना ढूँढ लिया

"चलने का बहाना ढूँढ लिया"

चलने की हो ख्वाहिश साथ अगर 
चलने का बहाना ढूंढ लिया 

यूं रहते थे दिल के पास मगर 
तसरीह का बहाना ढूंढ लिया

मुड़कर भी जो देखूं मुमकिन नहीं
आरज़ू थी जो मुद्दत से ढूंढ लिया

तसव्वुर में बैठे थे शिद्दत सही 
खलिश को छुपाना ढूंढ लिया 

कहने को मुझे हर ख़ुशी है मिली 
हँसने का बहाना ढूंढ लिया 

- कुसुम ठाकुर -

दर्द इस कदर दिया

"दर्द इस कदर दिया "

यूँ नसीब ने तो प्यारा हमसफ़र दिया 
मेरी जिंदगी में ऐतवार भर दिया

दर्द पाया फिर भी लगता खुश नसीब हूँ 
जाने जादू क्या उसने ऐसा कर दिया

वैसे जिन्दगी में कम कहाँ है उलझनें 
जाते जाते भी न चैन इक पहर दिया

ये तो जाना हमसफ़र का भी सफ़र वहीं
वो हसीन पल भी सपनों में है भर दिया  

कहना चाहा जो कुसुम ने आज कह दिया 
अपनी पंखुड़ी भी दर्द इस कदर दिया 

-कुसुम ठाकुर-

बेटियों को अधिकार कब मिलेगा, कब तक वो पराई कहलाएंगी ?

कर्म के आधार पर वर्ण बनाया गया परन्तु कालान्तर में वर्ण ही  छूआछूत भेदभाव को जन्म दिया और पराकाष्ठा पर पहुँच गया.उसी प्रकार ईश्वर ने स्त्री को मात्र शारीरिक तौर पर पुरुषों से कमजोर बनाया. उन्हें शारीरिक श्रम वाले काम से दूर रखने के लिए घर के काम काज उनके जिम्मे दिया गया. कालान्तर में उन्हें कमजोर समझ घर हो या बाहर शोषण होने लगा. 

1908 ई. में अमेरिका की कामकाजी महिलाएं अपने अधिकार की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं।1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा की। 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया और तब से ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। 

कुछ वर्षों से "दिवस" मनाना फैशन बन गया है। क्या साल में एक दिन याद कर लेना लम्बी लम्बी घोषणा और वादे करना ही सम्मान होता है ? किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात नहीं है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ सम्मान देने का ढोंग किया जाता हो।  सम्मान बोलकर देने की वस्तु नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। 

एक तरफ महिला दिवस मनाई जाती है दूसरी तरफ नारी का शोषण बलात्कार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है. आज भी हमारे देश में नारी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. कहने के लिए लोग कहते हैं हम बेटे बेटी में फर्क नहीं करते परन्तु कितने लोग हैं जो आज अपनी बेटी को वही अधिकार देते हैं जो अपने बेटे को. पहले भी बेटी पराई थी आज भी पराई ही कहलाती है. माता पिता आज भी बेटी की जिम्मेदारी शादी तक ही समझते हैं जब कि बेटे के लिए उनकी जिम्मेदारी कभी ख़त्म नही होती. कहने के लिए कहते हैं अब मेरी जिम्मेदारी ख़त्म हुई अब बेटा अपना समझेगा पर अपने बेटा क्या बेटे के बेटे यानि पोते के लिए भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं. मेरी समझ में यह नहीं आता कि एक ही माता पिता की संतान में इतना अंतर क्यों ?  बेटी पराई क्यों कहलाती है ? पहले जमाने में तो फिर भी ठीक था बेटा घर, संपत्ति संभालता था बेटी ससुराल चली जाती थी. 

आज महिला दिवस है पर चुनाव और आचार संहिता लग जाने की वजह से सभी पार्टी और नेता इतने व्यस्त हैं कि इसबार महिला दिवस पर महिलाओं के लिए होने वाले झूठे आरक्षण के वादे सुर्ख़ियों में नहीं है. हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन। साल के बाक़ी दिन अब भी न वह सम्मान है न वह बराबरी मिल पाता है, जिसकी वह हकदार है या जो दिवस मनाते वक्त कही जाती है। कहने को तो आज सभी कहते हैं "नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं". परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जबतक होती रहेगी तबतक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।  

नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी। यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होता ही है। आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी आरक्षण की जरूरत क्यों ? आरक्षण शब्द ही कमजोरी का एहसास दिलाता है आज एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है। क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे?  हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की। 

आज भी हमारे यहाँ यदि कोई बेटी अपने माता पिता या परिवार में अपने अधिकार की बात करती है तो परिवार उसे पसंद नही करता. कानून तो बन गया है पर कितने लोग उसपर अमल करते हैं यह सोचनीय है. दहेज़ जैसे दानव  के जन्म का एक यह भी कारण है. कब हर बात में कहना बंद होगा बेटियाँ पराई होती हैं. हम सरकार से आरक्षण तो मंगाते हैं पर अपने परिवार में अपने माता पिता से अपना अधिकार कब मांगेंगे ? 

  

नीम गुणों का खान


"नीम गुणों का खान"

औषधीय गुणों मान  
नीम गुणों का खान, कहे सब 
नीम गुणों का खान 
और मिलना भी आसान 

उच्च हिमालय नहीं है भाता 
जगह जगह मिल जाता 
दोषमुक्त औषधीय गुण वाला 
चमत्कार दिखलाता 

छाल पत्तियाँ फल फूल बीज 
के नियमित सेवन से 
रोगों को दूर भगाता 
है पर्यावरण बचाता 

-कुसुम ठाकुर-