नहीं समझे?


"नहीं समझे"


दुखी करना नहीं जानूँ, मगर दुःख तुम नहीं समझे
उलझना क्यों है शब्दों में, अभी तक तुम नहीं समझे  


मेरी उलझन मेरी बातें, न खुद समझी यही गम है
मैं चाहूँ पर मेरी चाहत, अभी तक तुम नहीं समझे


इशारे भी चिढाते हैं, करूँ फिर व्यक्त मैं कैसे 
है जीना मूक बनकर क्यों, न सोचा जो वही समझे 


है कहने को बहुत कुछ पर, यहाँ बंदिश नहीं कम है 
हिलोरें दिल की समझूँ पर, थपेड़ों को नहीं समझे 


निगाहें तुम न फेरोगे, सदा विश्वास है मुझको
अहम तेरी सदा खुशियाँ, ये उलझन भी नहीं समझे


जुदाई हो तो रूठे रब, कठिन होता बहुत सहना
मिलन में सुख तो होता है, तड़प को क्यों नही समझे


दिशा का ज्ञान मिलते ही, रहूँ संज्ञान मैं हरदम
इशारों से कहूँ कैसे कुसुम को भी नहीं समझे


 -कुसुम ठाकुर- 

हमारे देश की जनता कब जागेगी !


 जमशेदपुर भी अब बाकी शहरों की तरह असुरक्षित हो गया है. आये दिन हत्या, अपहरण की वारदातें सुनने को मिलती है. कभी डॉक्टरों की हत्या तो कभी बैंक अधिकारी का अपहरण.

अभी हाल में ही एक बैंक के अधिकारी का अपहरण हो गया, जिसे अपहरणकर्ता ने बाद में फिरौती की रकम वसूल कर छोड़ दिया.

बैंक अधिकारी घर जाने के लिए निकले ही थे कि किसी ने गाड़ी रोक जबरदस्ती गाड़ी में सवार हो गया और उन्हें जंगल की और ले गया. जंगल में ले जाने के बाद अपहरणकर्ता ने ५० हज़ार रकम की मांग रखी और कहा उसी समय मंगवाकर दे. पत्नी से फ़ोन द्वारा पैसे मंगवाने की जिद्द की तो अधिकारी को उस सुनसान जंगल में कुछ नहीं सूझा और उसने पत्नी को फ़ोन कर दी कि उसे ५० हज़ार की अभी तुरंत जरूरत है किसी से मांगकर भेजे. पत्नी के पूछने पर कि पैसा कौन ले जायेगा .....अपहरण कर्ताओं ने उस अधिकारी से कह्वाया उसके बैंक का एक आदमी जाकर ले आयेगा. पर पत्नी से ५० हज़ार का इंतजाम नहीं हो पाया. अब उस अधिकारी को अपहरणकर्ता ने जबरदस्ती अपने दोस्तों और परिचितों को फ़ोन द्वारा रुपैये मंगवाने की धमकी दी.

अधिकारी क्या करता उन्होंने बारी बारी अपने दोस्तों और सहकर्मियों को फ़ोन से पैसे का इंतजाम करने कहता. अंत में एक सहकर्मी ने इंतज़ाम किया और उसे उनके खाते में डाल दिया. जिसकी पुष्टि हो गयी तो अपहरणकर्ता अधिकारी को ले गया और ATM से रुपैये निकलवाकर ले लेने के पश्चात अधिकारी को घर जाने की अनुमति दे दी. कुछ दिनों बाद फिर उसका फ़ोन आया और ५० हज़ार की मांग फिर उस अपहरणकर्ता ने रखी और साथ में धमकी भी कि अगर पुलिस को बताया तो बीवी बचे को उठवा लेगा. कोई चारा नहीं देख उस अधिकारी ने फिर ५० हज़ार उसे दे दिया, पर इस बार अपहरण कर्ता को अपने इलाके में ही बुलाकर पैसे दी. साथ ही पैसे देने के बाद पुलिस में खबर कर दी और एफआईआर भी दर्ज करवा दिया.

दरअसल अपहरणकर्ता को बैंक अधिकारी पहचानता है. वह कभी बैंक से क़र्ज़ लेने के सिलसिले में अधिकारी के पास आया था. क़र्ज़ के नियमो के अनुसार उसे क़र्ज़ नहीं मिल पाया था. इस वारदात के बाद अधिकारी ने पुलिस को सारी बातें बता दी थी और पुलिस ने आश्वासन भी दिया था कि अपराधी अवश्य पकड़ा जायेगा. परन्तु एक महीने से ऊपर हो गया है अबतक अपराधी नहीं पकड़ाया है. पुलिस अधिकारी आश्वासन तो देते हैं.... पर अपहरणकर्ता अब फिर से पैसे कि मांग कर रहा है. पुलिस कहती है वह अपराधी फरार है...पुलिस उसे ढूंढ रही है.

दहशत में पूरा परिवार है... अब उनके पास विकल्प क्या है ? क्या हमारी निकम्मी पुलिस सक्षम नहीं है कि अपराधी को ढूढ़ निकाले या यहाँ भी अपराधी ने पैसे से मुंह बंद कर दिया है? कुछ वर्ष पहले जिस शहर की शांति से प्रभावित होकर कई लोग यहीं बस जाते थे आज वही शहर बिलकुल असुरक्षित होता जा रहा है.

एक तरफ अतिक्रमण को हटाया जा रहा है दूसरी तरफ नेताओं के इशारे पर उनके आदमी अतिक्रमण कर रहे हैं. हमारे देश की जनता कब जागेगी ?

उल्फत न कहूँ तो ठीक नहीं


"उल्फत न कहूँ तो ठीक नहीं"

जब भूली ना उन लम्हों को, याद आए कहूँ तो ठीक नहीं
कह दूँ कैसे तुम रूठ गए, बेवफा कहूँ तो ठीक नहीं

डूबी रहती हूँ  खयालों में , ख़्वाबों को संजोया है दिल में
जब होश में आती हूँ सचमुच, उल्फत न कहूँ तो ठीक नहीं

क्या करूँ जो दिल ये माने ना, मजबूरी को भी जाने ना
जब तुम बसते हो साँसों में, दर्मियाँ कहूँ तो ठीक नहीं

जीवन के भाव नहीं वश में,गम खुशियों का ही संगम है
यादों के साये  में जी कर, तन्हाई कहूँ तो ठीक नहीं

कुसुम ने जीवन से सीखा, भाए ना शब्दों की बंदिश
न मिलन बिछोह समझ पाई, मजबूरी कहूँ तो ठीक नहीं


-कुसुम ठाकुर-

विद्यापति पर्व समारोह मात्र औपचारिकता !!


आज अचानक लल्लन जी लिखी हुई एकांकी "विद्यापतिक दुर्दशा" याद आ गई. आज से २० साल पहले लल्लन जी ने मैथिलि में लिखी अपनी रचना के माध्यम से समाज को एक सन्देश देने की कोशिश की थी. 

लल्लन जी अपने हर नाटक के मंचन से पहले अपनी ही लिखी हुई एकांकी का मंचन बच्चों से करवाते थे. "विद्यापतिक दुर्दशा" के माध्यम से उन्होंने जो कहना चाहा था वह आज अचानक "मिथिला सांस्कृतिक परिषद्"  द्वारा आयोजित विद्यापति पर्व समारोह को देख मुझे याद आ गई. 

मिथिला के सर्वश्रेष्ठ कवि " कवि कोकिल विद्यापति " एक ऐसे कवि श्रेष्ठ हैं जिनकी भक्ति से प्रसन्न हो स्वयं भगवान शिव उनके घर चाकर बन वर्षों तक उनकी सेवा की थी. ऐसे कवि को याद करने के लिए पर्व मानाने का प्रचलन है. प्रचलन इसलिए कह रही हूँ क्यों कि अपनी यादाश्त में मैं ३५ वर्षों से जमशेदपुर में विद्यापति पर्व समारोह मानते हुए देखती आ रही हूँ. इन ३५ वर्षों में यदि बदलाव की ओर देखती हूँ तो लगता है मैं कई पीढ़ी पहले की हूँ परन्तु यदि "विद्यापति पर्व समारोह" जो की प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है...... के कार्यक्रम की समीक्षा करती हूँ तो पाती हूँ आज भी उसके आयोजन में कोई बदलाव नहीं आया है. 

अपने संस्कार, अपने कवि अपनी विभूतियों को याद करने के नाम पर, अपने समाज का कल्याण करने के नाम पर, उद्धार करने के नाम पर संस्था का क्या औचित्य है कितना औचित्य है यह मेरी समझ के बाहर है. हाँ एक मंच अवश्य जरूरी होता है जहाँ अपनी भावनाएँ अपने विचार रखा जा सके, समाज को सन्देश दिया जा सके, जरूरत मंदों की सहायता की जा सके, कला एवं संस्कृति को प्रोत्साहित किया जा सके. 

कहने को तो "विद्यापति पर्व" मनाया जाता है....परन्तु एक कोने में विद्यापति के चित्र रख बड़े बड़े नेताओं से जिन्हें यह भी मालुम नहीं होता कि विद्यापति कौन थे, न ही बताने की कोशिश की जाती है, उनसे  दीप प्रज्वलित करवा उसे पर्व नाम देने की कोशिश तो की जाती है, परन्तु उस विभूति, उस कवि श्रेष्ठ के बारे में कम से कम संक्षिप्त परिचय देने की किसी को सुध कहाँ ? आयोजक को चिंता रहती है आयोजन सफल कैसे हो. आयोजन के सफलता की भी परिभाषा मेरी समझ में तो नहीं आती. जिस बार जितने बड़े बड़े नेता और जितने ज्यादा पत्रकार आएं उस बार का आयोजन उतना सफल माना जाता है. चाहे दर्शक उन नेताओं और आयोजक के भाषण ही सुनकर वापस क्यों न चले जाएँ. इसके लिए आयोजक साल भर एड़ी चोटी लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.  आखिर एड़ी चोटी क्यों न लगाएँ ? साल भर इंतज़ार जो करते हैं उस पल का,  नेताओं के साथ मंच पर बैठ गौरवान्वित होने का, नेताओं के मुख से अपने नाम और अच्छे कार्यक्रम की तारीफ़ सुनने का. 

यह विद्यापति की दुर्दशा नहीं तो और क्या है ?