मुझे आज मेरा वतन याद आया

मुझे आज मेरा वतन याद आया

मुझे आज मेरा वतन याद आया।
ख्यालों में तो वह सदा से रहा है ,
 मजबूरियों ने जकड़ यूँ रखा कि,
मुड़कर भी देखूँ तो गिर न पडूँ मैं ,
यही डर मुझे तो सदा काट खाए ।
मुझे आज ......................... ।


छोड़ी तो थी मैं चकाचौंध को देख ,
 मजबूरी अब तो निकल न सकूँ मैं,
करुँ अब मैं क्या मैं तो मझधार में हूँ ,
इधर भी है खाई, उधर मौत का डर ।
मुझे आज ............................... ।


बचाई तो थी टहनियों के लिए मैं ,
है जोड़ना अब कफ़न के लिए भी ।
काश, गज भर जमीं बस मिलाता वहीँ पर ,
मुमकिन मगर अब तो वह भी नहीं है ।
मुझे आज ................................ ।


साँसों में तो वह सदा से रहा है ,
मगर ऑंखें बंद हों तो उस जमीं पर।
इतनी कृपा तू करना ऐ भगवन ,
देना जनम  निज वतन की जमीं पर ।
मुझे आज .................................. ।

-कुसुम ठाकुर-


बरसों मैं तो भूल गयी थी

"बरसों मैं तो भूल गई थी"


बरसों मैं तो भूल गई थी
सारे अरमानों ख्वाबों को
भूल गयी थी मैं हँसना
या हँसी में शामिल होना।
आज अचानक मुझमे
आई ऐसी तब्दिली कि
ख़ुद पर ही हैरान हूँ मैं,
दिन सोची रात सोची
पर समझ न आया कुछ
आख़िर एक दिन जब मैं
गुम सुम बैठी नयन पथारे
सोच रही किसी और ठौर
छलकी होंठों पर हँसी
और लगी गुन गुनाने मैं
आ गई समझ मेरे यही कि
किसी की बातों और विश्वासों ने
मुझे फ़िर से वही चुलबुली
हँसने वाली बाला बना दिया

-कुसुम ठाकुर -

जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ


जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ

जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?
वही तो मेरी धरोहर है
जिस पर नाज़ करूँ इतना
 साक्षात्कार कराया मुझको
जीवन की सच्चाई से
पग पग मेरे संग चला
और किया आसान डगर
अब क्या हुआ जो सँग नहीं
उसकी यादें करें मार्ग प्रशस्त
करे हर मुश्किलों को आसान
जो मैं याद करूँ हर पल
चाहे मन में ही सही
वह तो मेरे सँग ही है
मैं ने भी तो किया प्रयास
शायद मेरा कुछ दोष ही हो
अब जो छूटा तो हताश हूँ मैं
पर मैं कैसे न स्मरण करूँ ?
माना वह अब करे विचलित
जिसको मैं याद करूँ हर पल
पर यह तो एक सच्चाई है
जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?

-कुसुम ठाकुर -

बेटियाँ




"बेटियाँ"

जीवन में थी एक तमन्ना ,
वह हुई आज पूरी
जब भी देखती बेटियाँ ,
सोचती हरदम
जीवन
की यह कमी ,
क्या होगी कभी पूरी ?
मेरे
घर भी आएगी ,
कोई रूठने वाली
नाजों
नखरों और फरमाइशें,
करूँगी मैं उसकी पूरी।
विदा करूँ मैं उसे पिया घर ,
ख़ुद हाथों से श्रृंगार कर
सूने घर को फ़िर निहार ,
बाट
तकुँ मैं हर त्यौहार पर
दिन
बीता साल बीते ,
और
आया ऐसा दिन
मुझे मिली नाजों नखरों ,
और फरमाइशें करने वाली
विदा भी करना पड़ा ,
और ताकूँ बाट

-कुसुम-

आपना तो बस आपना है


"अपना तो बस अपना है"

चाहे तुम कितना झुठलालो,
अपना तो बस अपना है।

कुछ भी कर लो ख़ुशी मना लो ,
पर अपनों की याद न छूटे,
अपनों से कितना भी रूठो ,
अपनों के साथ ही रुचे।

अपने देश की बात क्या कहना,
पास अगर तो मोल न समझें,
दूर हुए तो मन भर आये ,
उसकी मिट्टी को भी तरसें ।

-कुसुम ठाकुर -

स्वतंत्रता दिवस के दिन छाया रहा शाहरुख खान

हमारे यहाँ विशिष्ट व्यक्तियों की लम्बी फेहरिस्त है और उन्हें जो सुविधायें दी जाती हैं उसका वह इतना आदी हो जाता है कि जब वह बाहर जाता है और उसे सुरक्षा जाँच से गुजरना पड़ता है या फिर नियम कानूनों का पालन करना पङता है तो वह उसे असह्य हो उठता है और उसे वह अपना अपमान समझता है। विशिष्ट व्यक्ति के साथ उसके बाल बच्चे, पूरे परिवार को ही विशिष्ट का दर्जा प्राप्त हो जाता है। उसकी किसी भी प्रकर की सुरक्षा जाँच करना तो दूर उसे अधिकार प्राप्त हो जाता है सारे नियमों कानूनों तोड़ने का।

विदेशो और खास कर अमेरिका की नक़ल करने वालों ने क्या कभी इस बात पर गौर किया है कि वहाँ हर नागरिक के लिए नियम क़ानून एक है, चाहे वह राष्ट्रपति के बच्चे ही क्यों न हों? कभी उसकी भी नक़ल करें। " वहाँ राष्ट्रपति की बेटी को भी शराब पीकर गाड़ी चलाने की जुर्म में २४ घंटे के लिए जेल में डाल दी जाती है। यहाँ जेल में डालना तो दूर क्या मजाल कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को, उसके बच्चों या परिवार के किसी भी सदस्य को सुरक्षा के नाम पर छू भी सकें या क़ानून तोड़ने के जुर्म पर सज़ा दे सकें।

शाहरुख खान को नेवार्क हवाई अड्डे पर सुरक्षा जाँच के लिए कुछ घंटे रुकना क्या पड़ गया हमारे देश की आजादी के जश्न का समाचार ही फीका पड़ गया। सारा दिन हर समाचार चैनेल पर शाहरुख़ खान ही छाया रहा। स्वतंत्रता दिवस तो फ़िर अगले वर्ष भी मनाई जायेगी पर शाहरुख खान की गिनती अगले वर्ष विशिष्टो में हो न हो?

यदि सच में इतना ख़राब लगा तो कभी" टॉम क्रूज़"(Tom Cruis) या "ब्राड पिट"(Brad Pitt) को यहाँ के सुरक्षा अधिकारीयों को सुरक्षा जाँच करने का अधिकार देकर तो देखें या फ़िर उनकी सुरक्षा जाँच करके तो देखें ? मगर नहीं यहाँ "टॉम क्रूज़" और "ब्राड पिट" तो दूर किसी भी गोरी चमड़ी को देख लिया बस सारे के सारे यह भूल जाते हैं कि हमारी आम जनता के अधिकार क्या हैं और वे किस सुविधा के अधिकारी हैं । सारे के सारे आम जनता की असुविधाओं को भूल बस उनके पीछे लग जाते हैं।

वह हंसती है

"वह हँसती है"

वह हँसती है..
पर क्या किसी ने उसकी हँसी के
पीछे की सिसकियों को देखा है ?
ऊपर से खिलखिला कर हँसने वाली
आत्मा की पुकार को देखा है ?
ऊपर से दृढ दिखने वाली को,
रातों के अँधेरे में बेसहारा होते हुए देखा है ?
मैंने देखा है..
वह हँसती है लोगों को झुठलाने के लिए 
दृढ दिखती है कमजोरी को छुपाने के लिए 
सहारा देती है तो बस , लोग उसे बेसहारा न कहें

-कुसुम ठाकुर-


गुम सुम सी बैठी रहती हूँ

"गुम सुम सी बैठी रहती हूँ " 
 
गुम सुम सी बैठी रहती हूँ। 
ख़्वाबों को ख्यालों को , 
नयनों मे बसाती रहती हूँ । 
थक जाते हैं मेरे ये नयन , 
पर मैं तो कभी नहीं थकती । 
गुम सुम ........................ । 
कानों को कभी लगे आहट , 
आते हैं होठों पर ये हँसी । 
पल भर की ये उम्मीदें थीं , 
दूसरे क्षण ही विलीन हुए । 
गुम सुम सी ................... । 
फिर आया एक झोंका ऐसा , 
सब लेकर दूर चला गया । 
अब बैठी हूँ चुप चाप मगर , 
न ख्वाब है, न ख़्याल ही है।
-कुसुम ठाकुर -

ख़ुद को ही न समझ पाई


ख़ुद को ही न समझ पाई

लोग दूसरों को नहीं समझते।
मैं ख़ुद को ही न समझ पाई।।

जब भी अकेली होती हूँ।
ख्यालों में डूब जाती हूँ।।

तलाशती हूँ मैं अपनी खुशी।
पर ढूंढ न पाऊं वह मैं ख़ुशी ।।

 जब भी लगता मंजिल यह मेरी।
तन्हाई भी संग मेरे।।

पर बेडियों ने जकड़ रखा।
न पैर मेरे उस ओर उठे ।।

 आखिर में आह मैं भरती हूँ।
ख़ुद की तलाश में भटकती हूँ।।

-कुसुम ठाकुर -

संस्मरण(चतुर्थ कड़ी )

टाटा स्टील के पदाधिकारी एवं कर्मचारियों मे सुरक्षा के प्रति जागरूकता लाने के लिए टाटा स्टील प्रतिवर्ष एक अन्तर विभागीय नाट्य प्रतियोगिता का आयोजन करती थी। अपने अपने विभाग के पदाधिकारी और कर्मचारी इसमें भाग लेते थे परन्तु इस पर बहुत ही कम खर्च किया जाता था और यह बिल्कुल ही नीरस होता था जो मात्र संदेश के लिए होता था । इस नाटक में मात्र अपने विभागीय पदाधिकारी और कुछ दूसरे विभाग के लोग होते थे। टाटा स्टील में पद भर संभालने के कुछ ही महीने बाद श्री ठाकुर ने अपने विभाग के सुरक्षा नाटक में भाग लिया और उस नाटक के संवाद को कुछ अपने तरीके से फेर बदल कर उस नाटक में श्रेष्ठ कलाकार का पुरस्कार प्राप्त किया।


दूसरे वर्ष जब श्री ठाकुर को नाटक के लिए बोला गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया वे नाटक रविन्द्र भवन , जो कि जमशेदपुर का सबसे अच्छा प्रेक्षागृह था, में ही मंचित करेंगे। उस वर्ष नाटक रविन्द्र भवन में ही हुआ और उस नीरस विषय पर मंचित नाटक की प्रशंसा श्री ठाकुर जी को मिली साथ ही यहीं से उनके नाट्य यात्रा की शुरुआत भी हुई।


सुरक्षा नाटक की सफलता के बाद सदा श्री ठाकुर जी के मन में रहता था कि हिन्दी एवं अपनी मात्रृ भाषा मैथिली की सेवा अपने कलम से करें साथ ही उन्हें लगा कि अपने विचारों को आम जनता तक पहुंचाने का सबसे अच्छा माध्यम भी यही है।यह उस समय की बात है जिस समय मैथिली को अष्ठम सूचि में शामिल आन्दोलन चल रहा था और निर्णय लिया गया था कि प्रत्येक शहर और गाँव से पोस्टकार्ड पर मैथिली को अष्ठम सूचि में शामिल करने का अनुरोध लिखकर प्रधानमन्त्री तक पहुंचाई जाय। जमशेदपुर से भी पोस्टकार्ड भेजने का निर्णय लिया गया और साथ ही एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन का भी निर्णय लिया गया जिसका भार श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को दी गयी। समय कम था पर उन्होंने कुछ अलग सा कार्यक्रम करने की सोची।


उन्होंने एक संगीत संध्या करने की सोची और उस कार्यक्रम का नाम "संकल्प दिवस" दिया। पूरे कार्यक्रम के लिए मैथिली में गीत स्वयं लिख सारे गीतोंके धुन भी दी तथा मुख्य गायक भी स्वयं ही थे। उस कार्यक्रम के उद्घाटन गीत का नाम " संकल्प गीत" रखा। यह कार्यक्रम अत्यन्त ही सफल रहा ओर श्री ठाकुर जी के कला का परिचय जमशेदपुर के कलाकार और दर्शकों से हुआ।


"संकल्प दिवस" कार्यक्रम की सफलता ने श्री ठाकुर जी को नाटक मंचित करने को प्रेरित किया। उसी समय जमशेदपुर की मिथिला सांस्कृतिक परिषद् ने अपने महिला शाखा की स्थापना की थी और महिला शाखा की सदस्यों ने श्री ठाकुर जी से एक कार्यक्रम करने का अनुरोध किया जिसे उनहोंने स्वीकार भी कर ली और तय हुआ कि नाटक का मंचन होगा। श्री ठाकुर का पहला नाटक "बड़का साहब" उसी की देन है। उस नाटक की रचना के समय की एक एक बातें अब भी मुझे याद हैं।उन्होंने इतने सरल और सामान्य भाव से नाटक लिखा कि मालुम ही नहीं हुआ कि नाटक लिखना भी किसी के लिए कठिन काम हो सकता है। उसके एक एक संवाद मुझे कई कई बार सुनना पडा था। पूर्वाभ्यास से पहले ही मुझे नाटक के सारे संवाद याद हो गए


बड़का साहब का पूर्वाभ्यास महिला शाखा की एक सदस्य के घर पर ही होता थाकलाकार के चुनाव में ही अंदाजा हो गया कि जितने भी इच्छुक कलाकार थे सभी नए थेकलाकार के आभाव में मुख्य भूमिका श्री ठाकुर को स्वयं ही करना पड़ा हम चारों प्रतिदिन पूर्वाभ्यास में जाते थेविक्की को तो उस नाटक में बाल कलाकार की भूमिका निभानी थी मुझे नाटक सम्बंधित अनेको कार्य बता दिया था और उन सब के लिए प्रतिदिन नाटक का पूर्वाभ्यास देखना जरूरी था न जाने क्यों, शायद महिला शाखा की सदस्यों को इनके कार्य करने का ठंग पसंद नहीं था या उन्हें यह विशवास नहीं था कि नाटक अच्छा होगा, पर वे प्रतिदिन पूर्वाभ्यास के दौरान कुछ न कुछ नाटक किया करती थीं कुछ को तो होता था कि उन्हें नाटक का अधिक ज्ञान था पर असलियत यही होता है कि हर निर्देशक की अपनी सोच होती है और वह उसी के अनुसार निर्देशन करता है एक तो कलाकार अच्छे नहीं थे दूसरा बिल्कुल नए, व्यवस्थापक ऐसे कि हर बात में टांग अड़ाने की तो जैसे उन्होंने ठान ली थी हर दिन श्री ठाकुर जी उन व्यवस्थापक को समझाते कि वे निश्चिंत रहें नाटक अच्छा होगा ही पर वे नहीं समझतीं पूर्वाभ्यास के बाद प्रतिदिन मैं और बालमुकुन्द जी श्री ठाकुर जी को समझाती एक तो अच्छे कलाकार का अभाव दूसरा व्यवस्थापकों का हस्तक्षेप उसी नाटक में श्री ठाकुर जी ने सोच लिया कि दूसरों या दूसरी संस्था के लिए नाटक नहीं करेंगे, वह भी महिलाओं के लिए तो बिल्कुल ही नहीं


नाटक मंचन की तारीख से तीन चार दिन पहले श्री मति इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और प्रशासन की ओर से सारे कार्यक्रम रद्द करने का आदेश आ गया
नाटक के मंचन की दूसरी तारीख तय करने में देरी नहीं की गयी और सभी समाचार पत्रों में भी दे दी गई पर नाटक मंचन की पूर्व तारीख के दिन कुछ लोगों और कलाकारों को साथ लेकर खुद भी रविन्द्र भवन के सामने खड़े हो गए जिससे आम लोगों को तकलीफ न हो


२० नवम्बर को जमशेदपुर में बड़का साहब नाटक का सफल मंचन हुआ जिसे देख जमशेदपुर वासी अचम्भित रह गए
पहली बार किसी मैथिली नाटक का मंचन टिकट पर हुआ था "बड़का साहब" नाटक की सफलता और अनुभव ने श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को दूसरा नाटक लिखने और मंचित करने पर बाध्य कर दिया