क्या कहूँ,कब कहूँ ?

क्या कहूँ, कब कहूँ,चुप रहूँ या कहूँ ?
अपने दिल की सही दास्ताँ मैं कहूँ ?

मुद्दतों से कभी, दिल की माना नहीं,
अब मैं आहें भरूँ या तकब्बुर कहूँ .

टूटा अब तो वहम, याद आए कसम,
जब मैं तनहा रहूँ, अपने दिल से कहूँ.

आरज़ू थी मेरी, अंजुमन में सही,
बस मैं दीदार करूँ, चाहे कुछ न कहूँ.

- कुसुम ठाकुर-

शब्दार्थ :
 तकब्बुर - अभिमान, घमंड 
अंजुमन -मजलिस, सभा 

हुआ है सवेरा

"हुआ है सवेरा"

 बह चली ऐसी आँधी, छाया नभ में अँधेरा,
चहु दिशा कुछ न सूझे, उड़ गया है बसेरा 


दिन हो गया है काला, रात घनघोर अँधेरा,
लगता है अब न होगा, इस अंधियारे का सवेरा 

टहनियों पर काँपते खग, हैं बच्चों को समेटे ,
आस किरणों का बचा है जाने कब हो सवेरा

पौ फटते चहक उठे खग, देख उषा मुस्कुराती,
प्रलय के संताप से न रुके,जब हुआ हो सवेरा

खोज में चल पड़े खग, क्यों हो उत्साह कम,  
नीड़ निर्माण का सुख, क्यों न हो हुआ है सवेरा। 


- कुसुम ठाकुर-