ख़ुद को मैं तन्हा पाई


"ख़ुद को मैं तन्हा पाई "

दुनिया की इस भीड़ में ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

खुशियों के अम्बार को देखी ,
चाही गले लगा लूँ उसको ।
खुशियों के अम्बार में जाकर ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

सोची दुःख में होश न होगा ,
चल पडूँ मैं साथ उसी सँग ।
दुःख के गोते खाई फ़िर भी ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

सपनों के सपने मैं देखूँ ,
तन्हाई उसमे क्यों हो ।
पर सपना तो बीच में टूटा ।
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

कहने को तो साथ बहुत से ,
पर साथ चलन को मैं तरसी ।
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।।

- कुसुम ठाकुर -


11 comments:

अजय कुमार said...

कहने को तो साथ बहुत से ,
पर साथ चलन को मैं तरसी ।
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।।
bahut achchhi panktiyan

Mohinder56 said...

सुन्दर भाव भरी रचना है... सचमुच कभी कभी आदमी अकेला होते हुये भी अकेला नहीं होता और कभी भीड में भी नितान्त अकेला महसूस होता है..पर जीवन तो चलने का नाम है

SACCHAI said...

" behtarin ...bahut khub ,ek umda rachana "

----- eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

BAD FAITH said...

तन्हा- तनहा रहना, ये कोई बात है? पर अच्छा है.

M VERMA said...

सपनों के सपने मैं देखूँ ,
तन्हाई उसमे क्यों हो ।
सपनो के सपने देखना. बहुत खूब और सुन्दर

sandeep sharma said...

खूबसूरत रचना... मन को छूने वाली...

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर। अकेला महसूस करने के लिए अकेला होना आवश्यक नहीं है।
घुघूती बासूती

अजय कुमार झा said...

बहुत सुंदर रचना और एकाकीपन का भाव कुल मिला कर प्रभावी लगी...लिखते रहिये..आभार।

Kusum Thakur said...

आप सभी साथी चिट्ठाकारों को उत्साह बढाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

सचमुच बहुत ही सुन्दर रचना. बधाई.

श्यामल सुमन said...

प्रायः तनहा सब कुसुम भटक रहा इन्सान।
सुमन खोजता भीड़ में खुद अपनी पहचान।।
सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com