"ख़ुद को मैं तन्हा पाई "
दुनिया की इस भीड़ में ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।
खुशियों के अम्बार को देखी ,
चाही गले लगा लूँ उसको ।
खुशियों के अम्बार में जाकर ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।
सोची दुःख में होश न होगा ,
चल पडूँ मैं साथ उसी सँग ।
दुःख के गोते खाई फ़िर भी ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।
सपनों के सपने मैं देखूँ ,
तन्हाई उसमे क्यों हो ।
पर सपना तो बीच में टूटा ।
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।
कहने को तो साथ बहुत से ,
पर साथ चलन को मैं तरसी ।
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।।
- कुसुम ठाकुर -
11 comments:
कहने को तो साथ बहुत से ,
पर साथ चलन को मैं तरसी ।
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।।
bahut achchhi panktiyan
सुन्दर भाव भरी रचना है... सचमुच कभी कभी आदमी अकेला होते हुये भी अकेला नहीं होता और कभी भीड में भी नितान्त अकेला महसूस होता है..पर जीवन तो चलने का नाम है
" behtarin ...bahut khub ,ek umda rachana "
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
तन्हा- तनहा रहना, ये कोई बात है? पर अच्छा है.
सपनों के सपने मैं देखूँ ,
तन्हाई उसमे क्यों हो ।
सपनो के सपने देखना. बहुत खूब और सुन्दर
खूबसूरत रचना... मन को छूने वाली...
बहुत सुन्दर। अकेला महसूस करने के लिए अकेला होना आवश्यक नहीं है।
घुघूती बासूती
बहुत सुंदर रचना और एकाकीपन का भाव कुल मिला कर प्रभावी लगी...लिखते रहिये..आभार।
आप सभी साथी चिट्ठाकारों को उत्साह बढाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
सचमुच बहुत ही सुन्दर रचना. बधाई.
प्रायः तनहा सब कुसुम भटक रहा इन्सान।
सुमन खोजता भीड़ में खुद अपनी पहचान।।
सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
Post a Comment