बरसों मैं तो भूल गयी थी

"बरसों मैं तो भूल गई थी"


बरसों मैं तो भूल गई थी
सारे अरमानों ख्वाबों को
भूल गयी थी मैं हँसना
या हँसी में शामिल होना।
आज अचानक मुझमे
आई ऐसी तब्दिली कि
ख़ुद पर ही हैरान हूँ मैं,
दिन सोची रात सोची
पर समझ न आया कुछ
आख़िर एक दिन जब मैं
गुम सुम बैठी नयन पथारे
सोच रही किसी और ठौर
छलकी होंठों पर हँसी
और लगी गुन गुनाने मैं
आ गई समझ मेरे यही कि
किसी की बातों और विश्वासों ने
मुझे फ़िर से वही चुलबुली
हँसने वाली बाला बना दिया

-कुसुम ठाकुर -

5 comments:

pushpa said...

bahut hi umda bhaw hai kabita ke.
sachmuch kisi ka biswas kisi ke zindgi ko nayi rah dikha sakta hai.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

vikram7 said...

किसी की बातों और विश्वासों ने
मुझे फ़िर से वही चुलबुली
हँसने वाली बाला बना दिया।।
वाह अति सुन्दर

ओम आर्य said...

किसी की बातों और विश्वासों ने
मुझे फ़िर से वही चुलबुली
हँसने वाली बाला बना दिया।।
bahut hi sundar bhaaw hai ..........aapki is rachana me .....badhayi

Kusum Thakur said...

आप सबों का प्रतिक्रिया के लिए आभार ।