कब आओगे समझ न आये

( आज मेरे लिए एक विशेष दिन है। यह कविता उस खास व्यक्ति को समर्पित है जिसने मुझे जीना सिखाया ।
 "कब आओगे समझ न आये" 
 
मैं तो बैठी पलक बिछाए , 
कब आओगे समझ न आए ।
 दिन भी ढल गया, हो गई रैना , 
जाने क्या ढूँढे ये नैना । 
 हर आहट लागे कर्ण प्रिय , 
तिय धर्म निभाऊँ कहे यह जिय । 
कुछ कहने को भी उद्धत है हिय , 
समझ न आये करूँ क्या पिय । 
 जानूँ मैं तुम जब आओगे , 
स्नेह का सागर छलकाओगे । 
फ़िर भी मेरे आर्द्र नयन हैं , 
सोच तिमिर यह ह्रदय विकल है। 
 - कुसुम ठाकुर -

7 comments:

ghughutibasuti said...

वाह,बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

Unknown said...

bahut hi achha laga
diwakar jha

Randhir Singh Suman said...

nice

नीरज गोस्वामी said...

सुन्दर शब्द और भाव से ओतप्रोत इस रचना के लिए बधाई...
नीरज

Ambarish said...

sundar...

rajani kapoor said...

bahut sunder or acchi laymakta hai kavita main

Kusum Thakur said...

घुघूती जी , दिवाकर जी , सुमन जी , नीरज जी, अम्बरीश जी और रजनी जी
आप सबों को बहुत बहुत धन्यवाद ।