(यह एक श्रधांजलि उस व्यक्ति को है जिसने मुझे आज इस काबिल बनाया )
दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने
समेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
भ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने
दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने
दिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने
लो यादों की महफिल सजाया है मैंनेसमेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
जो मरजी थी मेरी, दिखाया है मैंने
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
उसी तान को फिर जगाया है मैंने
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
भ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने
- कुसुम ठाकुर -
22 comments:
बेहतरीन.
दिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने
लो यादों की महफिल सजाया है मैंने
प्रत्येक शेर... लाजवाब ! ये हुई न बात?
यह लिखाकर अपनी महफ़िल सजाने का पूरा हक्क है... दोनों हाथों से सलाम करता हूँ हूजूर !
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
उसी तान को फिर जगाया है मैंने
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
वाह लाजवाब। बधाई।
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
उसी तान को फिर जगाया है मैंने
वाह ..बहुत सुन्दर ..
दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने.... u write so beautiful.... excellent... superb...
समेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
जो मरजी थी मेरी, दिखाया है मैंने
सुंदर अहसासों से भरी एक बेहतरीन प्रस्तुति।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
दिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने
लो यादों की महफिल सजाया है मैंने
bahut khubsurat matla....
achhi gazal ....
सुंदर ग़ज़ल. हर शेर उम्दा !
जब रूहों का
मिलन होने लगे
जब बिना कहे ही
दूजे की आवाज़
सुनने लगें
तरंगों पर ही
भावों का
आदान- प्रदान
होने लगे...
उपर्युक्त पंक्तियाँ कविता को नई ऊँचाइयों पर ले जाती हैं... इस कविता में आपने प्रेम के सभी आयामों और लक्षों को परिभाषित सा कर दिया है.. कविता ए़क नदी कि तरह गतिमान है ! बहुत सुंदर रचना !
है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
भ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने
bahut sundar rachna.
.
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने..wow!
लाजबाव ।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
बेहतरीन भावों की अभिव्यकत्ति....
upendra ( www.srijanshikhar.blogspot.com )
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
Kya khoob kaha hai.
प्रशंसनीय ।
bahot achcha hai.
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
वाह वाह लाजवाब बधाई कुसुम जी।
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
उसी तान को फिर जगाया है मैंने
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
वाह कुसुम जी लाजवाब गज़ल है बधाई आपको।
बहुत सुन्दर ..
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
समझ का फेर, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वरूप की लघुकथा, पधारें
बहुत खूब ।
प्रतिक्रया के लिए आप सबों का बहुत बहुत धन्यवाद !!
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