" पुष्प गुच्छ भी दे न सकी मैं "
पुष्प गुच्छ भी दे न सकी मैं ,
अब कैसे मैं अश्रु छुपाऊं ।
तुम हो गए नक्षत्र गगन के ,
सखी धरणी की न बन पाऊँ ।
रस्म सदा से जो चली आई ,
ग्रहण सहज कैसे कर पाऊँ ।
अंतर्मन में प्रश्न उलझ गए ,
अब उनको कैसे सुलझाऊँ ?
इस अन्जान सफ़र पर एक दिन ,
जाते तो सब , समझ न पाऊँ ।
तुमको पा अभिमान हुआ क्यों ,
यह नादानी अब किसे बताऊँ ?
पुष्प गुच्छ भी दे न सकी मैं ,
अब कैसे मैं अश्रु छुपाऊं ?
- कुसुम ठाकुर -
(आचार्य संजीव वर्मा को परिचय देने की जरूरत नहीं है । आज मेरी कविता पर कविता द्वारा टिप्पणी क्या पूरी की पूरी कविता ही लिख डाला आचार्य जी ने । प्रस्तुत है उनका आशीर्वाद कहें, टिप्पणी कहें वा जवाब । )
मन को छूती रचना पढ़कर हुई प्रतिक्रिया 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' की भावना सहित आपको समर्पित-
पुष्प गुच्छ यदि दें न सकीं तुम
तो मत इस पर अश्रु बहाओ...
पुष्प गुच्छ देते उनको जो,
आमंत्रित मेहमां होते हैं।पुष्प गुच्छ देते उनको जो
ना तो दिल ना जां होते हैं.
हम अभिन्न हैं ऐसे कैसे
तुमसे पुष्प गुच्छ ले लेता।
तन बिछुड़े पर सात जन्म तक
आत्माओं का साथ निभाओ.
पुष्प गुच्छ यदि दें न सकीं तुम
तो मत इस पर अश्रु बहाओ...
शब्द तुम्हारे, मेरे ही हैं.
भाव उतारे, मेरे ही हैं.
बिम्ब प्रतीक और रस मेरे
साँझ-सकारे मेरे ही हैं.
प्रभु को जो अर्पित करतीं वे
ना तो दिल ना जां होते हैं.
हम अभिन्न हैं ऐसे कैसे
तुमसे पुष्प गुच्छ ले लेता।
तन बिछुड़े पर सात जन्म तक
आत्माओं का साथ निभाओ.
पुष्प गुच्छ यदि दें न सकीं तुम
तो मत इस पर अश्रु बहाओ...
शब्द तुम्हारे, मेरे ही हैं.
भाव उतारे, मेरे ही हैं.
बिम्ब प्रतीक और रस मेरे
साँझ-सकारे मेरे ही हैं.
प्रभु को जो अर्पित करतीं वे
सुमन स्वयं आकर ले लेता
हूँ अदृश्य पर अलग नहीं हूँ.
सदा साथ हूँ मान भी जाओ.
पुष्प गुच्छ यदि दें न सकीं तुम
तो क्यों इस पर अश्रु बहाओ?...
हूँ अदृश्य पर अलग नहीं हूँ.
सदा साथ हूँ मान भी जाओ.
पुष्प गुच्छ यदि दें न सकीं तुम
तो क्यों इस पर अश्रु बहाओ?...
(किसी अनुपस्थित के मनोभावों का अनुमान कर लिखी गयी रचना उनकी प्राणप्रिया को रुची तो कलम धन्य हो गयी. यह तो मेरी रचना नहीं है उन्हीं की है जिन्होंने अपनी बात मुझे माध्यम बनाकर कहलवाई. उनहोंने इसे आपके लिए लिखवाया...यह आपकी है...जब जहाँ जैसे चाहें उपयोग कीजिये । )
-आचार्य संजीव वर्मा -
-आचार्य संजीव वर्मा -
19 comments:
bahut hi gahan vedna ko parilakshit karti rachna hriday ko jhakjhor jati hai.........antarman ki vedna ka bahut hi marmik chitran.
Well said,
Gud one,
Congratulation.
अंतरमन में प्रश्न उलझ गए ,
अब उनको कैसे सुलझाऊँ ?
प्रश्न खुद उत्तर बन जायेंगे
जब भावनाओ से सन जायेंगे
सुन्दर
तुम हो गए नक्षत्र गगन के
...
इस अन्जान सफ़र पर एक दिन ,
जाते तो सब , समझ न पाऊँ ।
तुमको पा अभिमान हुआ क्यों ,
यह नादानी अब किसे बताऊँ ?"
उत्तम रचना - सोच इतनी पावन है तो लगाव को 'चाहत या अपनापन' कहेंगे "अभिमान" नहीं.
क्या बात है दीदी , बड़े दिनों कुछ लिखा , लेकिन लिखा तो लाजवाब लिखा है आपने ।
KUSUM ...Aapki kavita vedna ke raSTE HOTI HUE DHANATMAK URJA BATORTI HAI AUR JEEVAN KE AVSAAN KO SAHAJ kriya batati hueapne anterman ki ghatiyon mein upasthit hriday samrat ki sansarik anupasthiti ko bhi apna dukh na maanker apne pusp guch na diye jaane ki shikayat mein anupasthti ke dukh ko gaun kerti hue hame gehre tak spandit kerti hai ....wah
अच्छी रचना ।
रस्म सदा से जो चली आई ,
ग्रहण सहज कैसे कर पाऊँ ।
अंतरमन में प्रश्न उलझ गए ,
अब उनको कैसे सुलझाऊँ ?
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
आभार
संजीव वर्मा सलिल जी ने बहुत ही संबल बंधाने वाला कवित्त दिया है। सलिल जी आभार
बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवाब रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
दीदी को प्रणाम...ठाकुर जी को लेकर लिखी हुई आपकी हर पंक्ति मन की गहराइयों से उपजती हैं और उस कविता की सुंदरता अनायास ही और-और निखर आती है। पढ़ कर कुछ भीग गया अंतर्मन में।
शेष, आचार्य सलील जी पे तो कुछ कहना भी हिमाकत समान है।
आपकी भाव भीनी कविता और संजय आचार्य जी की प्रतिक्रिया दूध और शहद जैसा सम-समा संयोग लगा ।
ALFAZON MAIN DARD BAYAN KARNA MUSHKIL THA,TUM TAK KARIB AKAR AUR KARIB ANA MUSHKIL THA.
KYA KAHUN DARD KE SAU RANG HAI,EK RANG YE BHI HAI AUR AAP..............
अंतर्मन में प्रश्न है उलझे
अब उनको कैसे सुलझाउं
प्रवाहमान रचना
बधाई
देरी से आने पर क्षमा...अद्भुत रचना है आपकी और सलिल जी की टिपण्णी तो सोने पर सुहागा ...वाह..आनंद आ गया...
नीरज
umda aur khubsurat...
सभी साथी चिट्ठाकार साथियों को प्रतिक्रया के लिए आभार !!
sare uljhe prashno ka uttar ye zindagi swaym de jati hai, han samjhne me waqt lg jata hai kusum..
sare uljhe prashno ka uttar ye zindagi swaym de jati hai, han samjhne me waqt lg jata hai kusum..
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