" वामन वृक्ष "
वामन वृक्ष करे पुकार ,
झेल रहा मनुज की मार ।
वरना मैं भी तो सक्षम ,
रहता वन मे स्वछंद ।
देख मनुज जब खुश होते ,
मेरी इस कद काठी को ।
कुढ़कर मैं रह जाता चुप ,
किस्मत मेरी है अभिशप्त ।
बेलों को तो मिले सहारा ,
पेडों को मिले नील गगन ।
पर हमारी किस्मत ऐसी ,
तारों से हमें रखें जकड़ ।
बढ़ना चाहें हम भी ऐसे ,
जैसे बेल और पेड़ बढ़ें ।
पर बदा किस्मत में मेरे ,
मिले हमें वामन का रूप ।
फल भी छोटा फूल भी छोटा ,
देख मनुज पर खुश होवें ।
पर हमारी अंतरात्मा की,
आह अगर वे देख सकें ।
चाहें हम भी रहना स्वछन्द ,
लगे हमें यह पिंजरे सा ।
हम भी तो प्रकृति की रचना ,
करे मनुज क्यों अत्याचार ।।
- कुसुम ठाकुर -
10 comments:
देख मनुज जब खुश होते ,
मेरी इस कद काठी को ।
atyant sundar !
चाहें हम भी रहना स्वछन्द ,
लगे हमें यह पिंजरे सा ।
हम भी तो प्रकृति की रचना ,
मनुज क्यों करे अत्याचार ।।
सुन्दर अभिव्यक्ति प्रकृति के साथ जोड़ती हुई
आपनी कविता के मार्फत से जो बात कहने की कोशिश की है वह अत्यंत ही सम्वेदनशील है ....जो मन को छू गयी.......
बिष्णु के वामन अवतार और बोन्साई की उससे तुलना - एक मौलिक सोच की संवेदनशील रचना बहुत पसन्द आयी कुसुम जी। यह बोन्साई की ही कथा नहीं, अपितु आजकल साधनहीन मानव भी तो बोन्साई बनकर ही रह गया है। सुन्दर भाव - बधाई।
बहुत ही समवेदनशील कविता और उसकी शानदार प्रस्तुति. बधाई
" aapki gaherai bhari soch ko salam bahut hi sunder abhivyakti hai ..."
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बेलों को तो मिले सहारा ,
पेडों को मिले नील गगन ।
पर हमारी किस्मत ऐसी ,
तारों से हमें रखें जकड़ ।
बहुत सुन्दर कविता है।
बधाई!
एक निवेदन है-
ब्लॉग का शीर्षक हिन्दी में कर दें।
इसके लिए मेरी सहायता की आवशयकता हो तो
अवश्य याद करें।
आप सबों को अपनी अपनी प्रतिक्रिया
देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
शास्त्री जी आपके सुझाव के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । पर इस ब्लॉग के शीर्षक से मेरा कुछ भावनात्मक लगाव है इसलिए इसे मैं नहीं बदल सकती ।
दूसरा ब्लॉग मैं बनाऊँगी जिसका शीर्षक हिंदी में होगा और आपकी सलाह अवश्य लूँगी ।
प्रकृति से तादत्म करती रचना
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