कहती है नैना हसूँ अब मैं कैसे.


"कहती है नैना, हसूँ अब मैं कैसे"

बयाँ हाले दिल का करूँ अब मैं कैसे
खलिश को छुपाकर रहूँ अब मैं कैसे 

बुझी कब ख्वाहिश नहीं इल्म मुझको
है तन्हाइयाँ भी सहूँ अब मैं कैसे 

चिलमन से देखी बहारों को जाते
हिले होठ मेरे कहूँ अब मैं कैसे 

हो उल्फत की चाहत ये मुमकिन नहीं
जो दूर चेहरा पढूँ अब मैं कैसे 

 शोखी कुसुम की है पहले से कम क्यूँ 
  कहती है नैना, हसूँ अब मैं कैसे 

-कुसुम ठाकुर-

मेरा जीवन मेरी यात्रा.(पहली कड़ी)


किसी ने सच ही कहा है :"लेखन एक अनवरत यात्रा है  - जिसका न कोई अंत है न मंजिल ", और यह सच भी है। निरंतर अपने भावों को कलम बद्ध करना ही इस यात्रा की नियति होती है। अपने भावों को कलम बद्ध कर व्यक्ति को संतुष्टि के साथ ख़ुशी का अनुभव भी प्राप्त होता है। यह एक ऐसी यात्रा है जहाँ हर रचना एक पड़ाव होता है और पड़ाव पर आ व्यक्ति कभी तो अपने आप को तरोताजा महसूस करता है और अपनी अगली यात्रा को और दूने उत्साह के साथ तय करता है। कभी कभी उस रचना के शब्द जालों में उलझ व्यक्ति थकान का अनुभव भी करता है, फिर भी यात्रा पर निकल पड़ता है। कभी वह इतना खुश होता है कि ख़ुशी से आत्म विभोर हो अपनी अगली यात्रा को ही भूल जाता है। पर कभी तो उसे ऐसा महसूस होता है मानो सारे शब्द ही ख़त्म हो गए। ऐसी स्थिति में वह अपनी पिछली यात्रा को कामयाबी मान खुश होता है और ख़ुशी की उस धूरी पर घूमता रहता है। यों तो लेखन से आत्म तुष्टि कभी नहीं होती पर इस यात्रा में कभी कभी ऐसे मोड़ भी आते हैं जब व्यक्ति आत्म मुग्ध हो उठता है। 

लेखन एक कला है और अपने भावों को शब्दों द्वारा जिवंत बनाना ही लेखकीय कला कहलाता है, जो पाठक के मन में छाप छोड़ जाए, वही सार्थक लेखन कहलाता है। लेखक, कवि अपनी रचनाओं में अपने अनुभव अपनी ज़िन्दगी अपने भावों को व्यक्त करते हैं। वह किसी न किसी रूप में उनके इर्द गिर्द घूमती है। उन्हें यह छूट रहती है कि वह कल्पना की उड़ान में, अपने पात्र के माध्यम से अपने मन में आने वाले ज्वार भांटा, अपने अनुभव, विचार, हर्ष, उल्लास, सपने, अपनी इच्छाओं को चाहे तो काट छांटकर या फिर बढ़ा चढ़ाकर लोगों तक पहुंचा सके। पात्र  तो निमित्त मात्र होते हैं जिसे अपनी कल्पना, अनुभव से व्यापक दायरा प्रदान करना और लोगों का अनुभव बनने की कोशिश ही लेखक का उद्देश्य होता है। परन्तु इसके विपरीत आत्म कथा में यह गुंजाइश नहीं होती .......यहाँ पात्र ही उदेश्य होता है और लक्ष्य भी। यहाँ कल्पना की उड़ान में नहीं उड़ा जा सकता, जो कुछ देखा सुना और जो घटित हुआ उसी का वर्णन "अपनी कहानी" का उदेश्य होता है। अपने बारे में लिखना बहुत ही कठिन होता है। यहाँ न कल्पना की उड़ान में उड़ा जा सकता है न ही किसी से ताल मेल बिठाने की जरूरत होती है। बस अपने इर्द गिर्द  घटित घटनाओं को, अपने अनुभव, अपने मन के भावों को लिखना ही इसका लक्ष्य होता है। 

मैं कभी यह नहीं सोची थी कि मैं कुछ लिखूंगी मैं तो बस हमसफ़र थी एक ऐसे व्यक्तित्व की जिसने अपने जीवन के चंद वर्षों में उतार चढ़ाव भरी जिंदगी को भी बड़े ही सहज, स्वाभाविक ढंग से सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए बिताया। एक बार मुझे किसी पत्रिका के लिए कुछ लिखने को कहा गया। मैं बस इतना ही लिख पाई मैं क्या लिखूं.....मेरी तो लेखनी ही छिन गयी है। पर आज महसूस करती हूँ कि मुझे एक अलौकिक लेखनी और उस लेखनी के रचना की जिम्मेदारी दे दी गयी है। न जाने क्यों आज लिखने की इच्छा हो रही है।  मैं तो केवल अपनी अभिव्यक्ति किया करती थी लेखनी और लिखने वाला तो कोई और था। उसके सामने मैं अपने आप को उसकी सहचरी, शिष्या एवं न जाने क्या क्या समझ बैठती थी। क्या उनकी कभी कोई रचना ऐसी है जो मैंने शुरू होने से पहले तीन चार बार न सुनी हो, या यों कह सकती हूँ कि लगभग याद ही हो जाता था। एक एक पात्र दिमाग मे इस प्रकार बैठ जाते थे कि एक सच्ची घटना सी मानस पटल पर छा जाता था ।

अदभुत कलाकार थे। एक कलाकार मे एक साथ इतने सारे गुण बहुत कम देखने को मिलता है। एक साथ लेखक निर्देशक, कलाकार सभी तो थे वो। मुझे क्या पता कि ऐसे आदमी का साथ ज्यादा दिनों का नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति की भगवान को भी उतनी ही जरूरत होती है जितना हम मनुष्यों को। परन्तु यदि ईश्वर हैं और मैं कभी उनसे मिली तो एक प्रश्न अवश्य पूछूंगी कि मेरी कौन सी गल्ती की सज़ा उन्होंने मुझे दी है। मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, न ही भगवान से कभी कुछ मांगी। मैं तो सिर्फ़ इतना चाही थी कि सदा उनका साथ रहे।

यह शायद किसी को अंदाज़ भी न हो कि मुझे हर पल हर क्षण उनकी याद आती है और मैं उन्ही स्मृतियों के सहारे जिंदा हूँ और अपनी जीवन नैया खिंच रही हूँ। उनका प्यार ही है जो मैं अपने आप को संभाल पाई। इतने कम दिनों का साथ फिर भी उन्होंने जो मुझे प्यार दिया, मुझ पर विशवास किया वह मैं किसे कहूं और कैसे भूलूँ ? मैं कैसे कहूं कि अभी भी मैं उन्हें अपने सपनों में पाती हूँ। मैं जब भी उनकी फोटो के सामने खड़ी हो जाती हूँ उस समय ऐसा महसूस होता है मानो कह रहे हों मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।

उनके जाने के बाद मैं ठीक से रो भी तो नहीं पाई। बच्चों को देखकर ऐसा लगा यदि मैं टूट जाउंगी तो उन्हें कौन सम्भालेगा। परन्तु उनकी एक दो बातें मुझे सदा रुला देतीं हैं। ऊपर से मजबूत दिखने या दिखाने का नाटक करने वाली का रातों के अन्धकार मे सब्र का बाँध टूट जाता है।

एक दिन अचानक बीमारी के दिनों मे इन्होने कहा " मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा"? उनकी यह वाक्य जब जब मुझे याद आती है मैं मैं खूब रोती हूँ। क्यों कहा था ऐसा ? एक दिन अन्तिम कुछ महीने पहले बुखार से तप रहे थे। मैं उनके सर को सहला रही थी । अचानक मेरी गोद मे सर रख कर खूब जोर जोर से रोते हुए कहने लगे इतना बड़ा परिवार रहते हुए मेरा कोई नहीं है। मैं तो पहले इन्हें सांत्वना देते हुए कह गयी कोई बात नहीं मैं हूँ न आपके साथ सदा। परन्तु इतना बोलने के साथ ही मेरे भी सब्र का बाँध टूट गया और हम दोनों एक दूसरे को पकड़ खूब रोये। यह जब भी मुझे याद आती है मैं विचलित हो जाती हूँ। मुझे लगता है उनके ह्रदय मे कितना कष्ट हुआ होगा जो ऐसी बात उनके मुँह से निकली होगी।

वैसे मैं शुरू से ही भावुक हूँ परन्तु इनकी बीमारी ने जहाँ मुझे आत्म बल दिया वहीँ मुझे और भावुक भी बना दिया। मैं तो कोशिश करती कि कभी न रोऊँ पर आंसुओं को तो जैसे इंतज़ार ही रहता था कि कब मौका मिले और निकल पड़े। इनके हँसाने चिढाने पर भी मुझे रोना आ जाता था। एक दिन इसी तरह कुछ कह कर चिढा दिया और जब मैं रोने लगी तो कह पड़े तुम बहुत सीधी हो तुम्हारा गुजारा कैसे चलेगा। शायद उन्हें मेरी चिंता थी कि उनके बाद मैं कैसे रह पाउंगी। उनके हाव भाव से यह तो पता चलता था कि वो मुझे कितना चाहते थे पर अभिव्यक्ति वे अपनी अन्तिम दिनों मे करने लगे थे जो कि मुझे रुला दिया करती थी। उनके सामने तो मैं हंस कर टाल जाती थी पर रात के अंधेरे मे मेरे सब्र का बाँध टूट जाता था और कभी कभी तो मैं सारी रात यह सोचकर रोती रहती कि अब शायद यह खुशी ज्यादा दिनों का नहीं है।

मुझे वे दिन अभी भी याद है। मैं उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ । वह तो मेरे लिए सबसे अशुभ दिन था। वेल्लोर मे जब डॉक्टर ने मेरे ही सामने इनकी बीमारी का सब कुछ साफ साफ बताया था और साथ ही यह भी कहा कि इस बीमारी में पन्द्रह साल से ज्यादा जिंदा रहना मुश्किल है। यह सुनने के बाद मुझ पर क्या बीती यह मेरे भी कल्पना के बाहर है। आज मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। मैं क्या कभी सपने मे भी सोची थी कि उनका साथ बस इतने ही दिनों का था। उस रात उन्होंने तो कुछ नहीं कहा पर उनके हाव भाव और मुद्रा सब कुछ बता रहे थे। मैं उनके नस नस को पहचानती थी, या यों कह सकती हूँ कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानते थे। उस रात बहुत देर से ही, ये तो सो गए पर मुझे ज़रा भी नींद नहीं आयी और सारी रात रोते हुए ही बीत गया।

लोग कहतें हैं कि भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है, पर मैं क्या कहूं मेरे तो समझ में ही कुछ नहीं आता? मैं कैसे विशवास करुँ कि उसने जो मेरे साथ किया वह सही है? मैं तो यही कहूँगी कि भगवान किसी को ज्यादा नहीं देता। उसे जब यह लगने लगता है कि अब ज्यादा हो रहा है तो झट उसके साथ कुछ ऐसा कर देता है जिससे फिर संतुलित हो जाता है। मेरे साथ तो भगवान ने कभी न्याय ही नहीं किया। आज तक मेरी एक भी इच्छा भगवान ने पूरी नहीं की या फिर यह कि मैंने एक ही इच्छा की थी, वह भी भगवान ने पूरी नहीं की। मैंने भगवान से सिर्फ़ इनका साथ ही तो माँगा था? पता नहीं क्यों मुझे शुरू से ही अर्थात बचपन से ही अकेलेपन से बहुत डर लगता था। ईश्वर की ऐसी विडंबना कि बचपन मे ही मुझे माँ से अलग रहना पड़ा। बाबुजी का तबादला गया से जनकपुर फिर अरुणाचल हो जाने की वजह से मुझे उनसे दूर अपनी मौसी चाचा के पास रहना पड़ा। तब से लेकर शादी तक माँ से अलग मौसी के पास रही। उस समय जब मुझे माँ के पास अच्छा लगता था उससे अलग रहना पड़ा। शादी के बाद लड़कियों को अपने पति के पास रहना अच्छा लगता है। उस समय मुझे कई कारणों से अपनी माँ के पास कई सालों तक रहना पड़ा। पहले माँ के पास छुट्टियों मे जाने का इंतजार करती थी बाद मे इनके आने का इंतजार करने लगी। इसी तरह दिन कटने लगा और एक समय आया जब हम साथ रहने लगे। जो भी था चाहे पैसे की तंगी हो या जो भी हम अपने बच्चों के साथ खुश थे और हमारा जीवन अच्छे से व्यतीत हो रहा था। अचानक भगवान ने फिर ऐसा थप्पड़ दिया कि उसकी चोट को भुलाना नामुमकिन है। आज हमारे पास पैसा है घर है बाकी सभी कुछ है पर नहीं है तो साथ। 

क्रमशः ...........

और एक प्यास है मन


मेरी आज की रचना उस ख़ास व्यक्ति के लिए जिसने मुझे इस काबिल बनाया कि मैं मन में आये भावों को आज शब्दों में अभिव्यक्त कर सकूँ .

"और एक प्यास है मन"

ऐ चाँद तुमसे पूछूं, फिर क्यूँ उदास है मन
कहने को दूर तन से, पर उनके पास है मन

किस हाल में है प्रीतम, सन्देश कैसे भेजूं
दिल में तड़प मिलन की, और एक प्यास है मन

पूनम की लम्बी रातें, यादों में उनकी बातें
छू जातीं उनकी नज़्में, मेरा जो ख़ास है मन

अब रागनी कहाँ वो, जो गीत गुनगुनाऊं
यादों में उनका आना, मुखरित सुहास है मन

आँखें छलक रहीं हैं, पर मुस्कुराता चेहरा
कुम्हलाये ना कुसुम का, हरदम सुवास है मन

-कुसुम ठाकुर-