हमारे देश की न्याय पालिका कितनी निकम्मी है वह हम सबको मालूम है. पैसा और ताकत के बलपर यहाँ कितने भी बड़े जुर्म से बाहर निकला जा सकता है. बड़े से बड़ा जुर्म करके भी गुनहगार आराम से बरी हो जाते हैं . वहीँ बिना किसी गुनाह के किसी को सज़ा मिल जाती है. हमारा न्याय प्रणाली ऐसा है कि गुनहगार पैसे और शक्ति के बल पर या तो बच निकलता है या साबित जबतक हो पाए उसके पहले ही वह मर जाता है।
हमारे यहाँ सरकारी नौकरी में प्रावधान है कि सरकारी अधिकारी को चुनाव के समय निर्वाचन अधिकारी बना दिया जाता है . कई ऐसे मामले होते हैं जब अधिकारियों को मांग पर तहकीकात के समय भी जाना पड़ता है. यह भी सरकारी नौकरी का एक हिस्सा होता है . अधिकारी उस समय मना नहीं कर सकते . यहाँ भी जिनकी पहुँच होती है वह तो इन सब झंझटों में नहीं पड़ते क्यों कि झंझट सिर्फ जाने का नहीं है उसके बाद सालों साल पिसते रहो बिना किसी गलती के गवाही देते रहो.
ऐसी ही कहानी एक ईमानदार केन्द्रीय सरकारी अफसर श्री एस एन झा की है . जिन्होंने अपनी पूरी उम्र ईमानदारी से नौकरी की . समय का पाबंद, पांच दस मिनट भी देरी से दफ्तर जाना उनके सिद्धांत के खिलाफ था. जहाँ भी सरकार ने भेजा सभी जगह बिना किसी शिकवा शिकायत के परिवार ले चले जाते कोई पैरवी का तो सवाल ही नहीं था. आज 82 की उम्र में उन्हें सिर्फ इसलिए अदालत के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं क्योंकि वो एक सरकारी तहकीकात में सरकारी मांग पर सीबीआई के एक छापे में मौजूद थे.
यह मामला सन 1986 की है, धनबाद में बीसीसीएल के किसी कर्मचारी ने शिकायत की थी. एक बीसीसीएल का डॉक्टर उससे ऑपरेशन करने का पैसा मांग रहा था. सीबीआई ने छापा मारा और रंगे हाथ बीसीसीएल कर्मचारी से डॉक्टर को घूस लेते पकड़ लिया. उस तहकीकात में झा साहब भी सरकार की मांग पर मौजूद थे. डॉक्टर पर मामला दर्ज हुआ और पहली बार उस मामले की सुनवाई 2009 में हुई. उस समय तक झा साहब को अवकाश प्राप्त किये 21-22 वर्ष हो गए थे. उस दिन से आजतक बेचारे अदालत की चक्कर गवाही देने के लिए लगा रहे हैं. इतना ही नहीं हर बार अदालत ही नहीं शहर भी बदल जाता है. बेचारे 82 की उम्र में हर बार ईमानदारी से अदालत समय पर पहुँच जाते हैं पर अभी तक मात्र एक बार ही गवाही दर्ज हुआ है. हर बार सम्मन आता है तो यही कहते हैं इस बार यह मामला ख़त्म हो जायेगा . मैंने कोई गलती तो नहीं की बस वहां मौजूद था इसलिए सरकार की और से गवाही तो देनी होगी मेरी जिम्मेदारी होती है। उनके बेटे बेटियां उन्हें समझाकर थक गए पर वो मानते ही नहीं, कहते हैं यह भी सरकार और देश के प्रति जिम्मेदारी है निभाना तो पड़ेगा. अब उन्हें दिखता भी कम है सुनाई कम पड़ता है . पर सरकार की निति और न्यायपालिका मालूम नहीं उन्हें उनकी इमानदारी की यह कैसी सजा दे रही है .
यह एक ऐसी कहानी है जो हमारे देश के लिए नयी बात तो नहीं परन्तु मैं जब सुनी तो मुझे इस देश की जनता पर खुद पर तरस आने लगी कि आखिर हम कबतक ऐसी कानून और न्याय पालिका को पूजते रहेंगे. क्या कभी वह दिन आएगा जब हमारे देश में भी सच्चा न्याय मिलेगा और बेकसूरों को परेशान नहीं किया जायेगा .
4 comments:
जहाँ दस लाख की आबादी पर 50 अदालतें होनी चाहिेए वहाँ भारत में इतनी आबादी पर केवल 1-12 अदालतें हैं। यदि सरकार अदालतों की संख्या नहीं बढ़ाती तो ये तो होना ही है।
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आपका आलेख बहुत ही सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया गया है हार्दिक बधाई
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