क्या पाया यह मत बोल !



"क्या पाया यह मत बोल"

कल-कल करती निशदिन नदियाँ,
अंक में अपने भर लेती हैं,
चाहे पत्थर हो या फूल,
क्या पाया यह मत बोल ।

काँटों में रहकर मुस्काना ,
मुरझाकर भी काम में आना,
कुसुम न हो कमजोर,
क्या पाया यह मत बोल ।

दिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
फिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।

हम स्वतंत्र आए जग में जब
और अकेला ही जाना अब
करे बेड़ियाँ कमजोर
क्या पाया यह मत बोल


मूल से सूद सभी को प्यारा
खुशियाँ जो मिलती दोबारा
अब मिले न ख़ुशी का ओर
क्या पाया यह मत  बोल

-कुसुम ठाकुर- 

8 comments:

bikharemoti said...

अच्छी रचना के लिए बधाई

संगीता पुरी said...

सच्‍ची बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ..

अच्‍छी लगी रचना !!

श्यामल सुमन said...

है प्रवाह संग रचना प्यारी
कुसुम की खुशबू जैसी न्यारी
ह्रदय सुमन का दिया है खोल
जो भी पाया जल्दी बोल
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
http://meraayeena.blogspot.com/
http://maithilbhooshan.blogspot.com/

अनुपमा पाठक said...

सुन्दर रचना!

Anonymous said...

Very well written.

dr mukesh said...

very nice @heart touching poem

Noopur said...

First time i steeped in here....nice post

Pallavi saxena said...

दिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
फिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।
वाह!!! बहुत ही सुंदर भाव संयोजन किया है आपने बहुत खूब।