था मेरा सचमुच कभी


 "था मेरा सचमुच कभी"

उड़ सकूँ स्वछन्द होकर सोचा नहीं था यह कभी  
मन के तारों से बंधूँ हो न सका मुमकिन कभी

नभ में तारा दिख गया इक थी चमक सबसे अलग
खोजती उसको थी कब से था मेरा सचमुच कभी  

चांदनी भी श्वेत चादर ओढ़कर हँसती है जब 
निस्तब्धता की वो तरंगे आ चूम लेगी फिर कभी

सीप अपना मुँह खोले राह कब से तक रहा है
बूँद स्वाति की गिरेगी आएगा वो दिन कभी

ओस बूंदों को समेटे देख निशिकर मुस्कुराये
और कुसुम रवि- तेज सहकर कुम्भला जाए न कभी  

-कुसुम ठाकुर- 

10 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

नभ में तारा दिख गया इक थी चमक सबसे अलग
खोजती उसको थी कब से था मेरा सचमुच कभी

बहुत खूबसूरत भाव ..

अरुण चन्द्र रॉय said...

sundar kavita.. man ke bhavon kee komal abhivyakti...

Anonymous said...

बहुत सुंदर चित्रण

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आज पूरे 36 घण्टे बाद ब्लॉग पर आना हुआ!
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आपकी ग़ज़ल बहुत सारगर्भित है!

Yashwant R. B. Mathur said...

बेहतरीन.

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कल 17/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Minakshi Pant said...
This comment has been removed by the author.
Minakshi Pant said...

आस कभी मत छोडना वो दिन लौट का जरुर आएगा दोस्त जी :)

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

नभ में तारा दिख गया इक थी चमक सबसे अलग
खोजती उसको थी कब से था मेरा सचमुच कभी

लाजवाब....

रस्ता वही और मुसाफिर वही
एक तारा ना जाने कहाँ खो गया ?

Anupama Tripathi said...

ओस बूंदों को समेटे देख निशिकर मुस्कुराये
और कुसुम रवि-तेज सहकर हो नहीं घायल कभी
sunder bhav

मीनाक्षी said...

शब्द शैली ...भावों का सौन्दर्य मन को बाँधता है....