क्या कहूँ, कब कहूँ,चुप रहूँ या कहूँ ?
अपने दिल की सही दास्ताँ मैं कहूँ ?
मुद्दतों से कभी, दिल की माना नहीं,
अब मैं आहें भरूँ या तकब्बुर कहूँ .
टूटा अब तो वहम, याद आए कसम,
जब मैं तनहा रहूँ, अपने दिल से कहूँ.
आरज़ू थी मेरी, अंजुमन में सही,
बस मैं दीदार करूँ, चाहे कुछ न कहूँ.
- कुसुम ठाकुर-
शब्दार्थ :
तकब्बुर - अभिमान, घमंड
अंजुमन -मजलिस, सभा
6 comments:
सुन्दर ग़ज़ल ! अंतिम शेर लाजवाब !
अहसासों को सुंदर रूप दिया है आपने।
खूब कहा..!!
सुन्दर विचार....बधाई.. आपकी भावनाओं को मैं कुछ इस तरह स्वर दे रहा हूँ.
दिल की बातें दिल से कहना अच्छा है.
दिल ही अपना दोस्त मगर ये सच्चा है.
अच्छे शेर हैं
बहुत बहुत धन्यवाद !!
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