आराधना


"आराधना"



माँ कैसे करूँ आराधना ,
कैसे मैं ध्यान लगाऊँ ।
द्वार तिहारे आकर मैया ,
कैसे मैं शीश झुकाऊँ ।

मन में मेरे पाप का डेरा ,
माँ कैसे उसे निकालूं ।
न मैं जानूं आरती बंधन ,
माँ कैसे तुम्हें सुनाऊँ ।

बीता जीवन अंहकार में ,
याद न आयी तुम माँ ।
अब तो डूब रही पतवार ,
माँ कैसे पार उतारूँ ।

कर्म ही पूजा रटते रटते ,
माँ बीता जीवन सारा ।
पर तन भी अब साथ न देवे ,
माँ, अर्चना करूँ मैं कैसे ।

मैं तो बस इतना ही जानूँ ,
माँ, तू सब की सुधि लेती ।
एक बार ध्यान जो धर ले ,
माँ दौड़ी उस तक आती ।


- कुसुम ठाकुर -

4 comments:

शरद कोकास said...

नवरात्रि की शुभकामनाये

मनोज कुमार said...

कविता काफी अर्थपूर्ण है। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

श्यामल सुमन said...

समसामयिक और सुन्दर।

सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com

Asha Joglekar said...

सच में ही मां सब के मन की जानती हैं ।