" फिर से वे सपने जगा रही जो "
तुम्हारे ख़्वाबों में बस रही जो
ये कैसी उलझन है डस रही जो
ये तेरे वादे हैं सारी रस्में
है याद आए सता रही जो
तुमने दिया है जो सारी खुशियाँ
उसे ही पलकों में सज़ा रही जो
मुझे पता अब मिले कहाँ जब
ये दिल की धड़कन बढ़ा रही जो
कैसे कहूँ अब चाहत न जाना
बस अब तो दूरी सता रही जो
होठों पे छाई है दिल में खुशियाँ
फिर से वे सपने जगा रही जो
- कुसुम ठाकुर -