"संघर्ष में ही जीवन"
रस्ते चली मैं जिस पर, छोडूँ उसे मैं कैसे ?
गैरों से न हूँ परेशां, खुद पर सितम न कम हो ।।
धिक्कार है मनुज को, अधिकार न दिया जो ,
संघर्ष में ही जीवन, संताप भी न कम हो ।।
जीवन के इस सफ़र में, मिलते तो सेज दोनों ,
फूलों की सेज पाकर, काँटों की चुभन न कम हो ।।
हौसला कहूँ उसे या, जज्बा है क्या न जानूं ।
अभिसार जिंदगी का, मुस्कान से न कम हो ।।
कुसुम की कामना है, मनुज के ही काम आए ,
बागों और घरों की,शोभा भी न कम हो ।।
-कुसुम ठाकुर -
रस्ते चली मैं जिस पर, छोडूँ उसे मैं कैसे ?
गैरों से न हूँ परेशां, खुद पर सितम न कम हो ।।
धिक्कार है मनुज को, अधिकार न दिया जो ,
संघर्ष में ही जीवन, संताप भी न कम हो ।।
जीवन के इस सफ़र में, मिलते तो सेज दोनों ,
फूलों की सेज पाकर, काँटों की चुभन न कम हो ।।
हौसला कहूँ उसे या, जज्बा है क्या न जानूं ।
अभिसार जिंदगी का, मुस्कान से न कम हो ।।
कुसुम की कामना है, मनुज के ही काम आए ,
बागों और घरों की,शोभा भी न कम हो ।।
-कुसुम ठाकुर -