"साल नया फिर इक आया "
साल नया फिर इक आया
न कहता वह क्या-क्या लाया
आशा है भरपूर
कहीं यह भी न हो शूल
बंद पिटारे अब खुलने हैं
आस लगाए सब बैठे हैं
क्या होगा अब भी दूर
कहीं यह भी न हो शूल
देख जिसे सब खुश होते
सपने भी सब सच लगते
अब हो गए हमसे दूर
कहीं यह भी न हो शूल
सहें सभी सहमी सी बाजी
हूँ राजा क्या करेगा क़ाज़ी
चाहें, जनता न हो दूर
कहीं यह भी न हो शूल
अहंकार- न डरूं किसी से
दूजे का अपराध दिखा
क्या घटा कभी है कसूर
कहीं यह भी न हो शूल
सच की परिभाषा ही झूठी
घड़े फूटे जब झूठ औ सच की
कुसुम को है न कबूल
कहीं यह भी न हो शूल
नए वर्ष से आस जगाकर
भूल गए कुछ नया बताकर
कुर्सी ज्यों होगी दूर
कहीं यह भी न हो शूल
- कुसुम ठाकुर-
No comments:
Post a Comment