'झलक दिखाने आ जाओ'
पलभर को कहीं गफलत ही सही, चेहरा तो दिखाने आ जाओ
तुम बुझे हुए नयनों के इन पलकों में समाने आ जाओ
प्रिय रुठे क्यों हो तुम अब तक बोलो कैसी है मजबूरी
ये बेचैनी मैं कासे कहूँ एहसास जगाने आ जाओ
हो दूर मगर तुम जुदा नहीं आंसूं का साथ हुआ अपना
तन्हाई संग-संग रहती है पल भर को सताने आ जाओ
इस पार हैं हम उस पार हो तुम फिर मिलना कैसे हो संभव
सपनों में यकीं है मुझको तुम इक झलक दिखाने आ जाओ
दिन भर तो प्रतीक्षा कुसुम करे फिर शाम ढले वो मुरझाए
भंवरों की गुंजन यही कहे सपनों को सजाने आ जाओ
-कुसुम ठाकर-
पलभर को कहीं गफलत ही सही, चेहरा तो दिखाने आ जाओ
तुम बुझे हुए नयनों के इन पलकों में समाने आ जाओ
प्रिय रुठे क्यों हो तुम अब तक बोलो कैसी है मजबूरी
ये बेचैनी मैं कासे कहूँ एहसास जगाने आ जाओ
हो दूर मगर तुम जुदा नहीं आंसूं का साथ हुआ अपना
तन्हाई संग-संग रहती है पल भर को सताने आ जाओ
इस पार हैं हम उस पार हो तुम फिर मिलना कैसे हो संभव
सपनों में यकीं है मुझको तुम इक झलक दिखाने आ जाओ
दिन भर तो प्रतीक्षा कुसुम करे फिर शाम ढले वो मुरझाए
भंवरों की गुंजन यही कहे सपनों को सजाने आ जाओ
-कुसुम ठाकर-
3 comments:
धन्यवाद.....
बहुत सुन्दर
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
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