"क्या पाया यह मत बोल"
कल-कल करती निशदिन नदियाँ,
अंक में अपने भर लेती हैं,
चाहे पत्थर हो या फूल,
क्या पाया यह मत बोल ।
काँटों में रहकर मुस्काना ,
मुरझाकर भी काम में आना,
कुसुम न हो कमजोर,
क्या पाया यह मत बोल ।
दिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
फिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।
हम स्वतंत्र आए जग में जब
और अकेला ही जाना अब
करे बेड़ियाँ कमजोर
क्या पाया यह मत बोल
मूल से सूद सभी को प्यारा
खुशियाँ जो मिलती दोबारा
अब मिले न ख़ुशी का ओर
क्या पाया यह मत बोल
-कुसुम ठाकुर-