"वक्त भी कब वक्त देता"
आज कहने को बहुत, जो अश्क में ही बह गए
अपनी खुशियाँ कह न पाऊँ, उलझनों में रह गए
गम को सींचें क्यों भला, जब दूर थीं खुशियाँ खड़ीं
वक्त तो अब है मेरा जो, सारे गम को सह गए
वक्त भी कब वक्त देता, मात दो उस वक्त को
तिश्नगी ऐसी कि अरमां, वक्त के संग ढह गए
डूबना हो याद में या फिर किनारे बैठकर
स्निग्ध-सी मुस्कान में ही भाव सारे कह गए
इक समर्पण प्यार है, या खेल फिर शह मात का
दूर ये न हो कुसुम से, जैसे कह कर वह गए
-कुसुम ठाकुर-
शब्दार्थ :
तिशनगी - अभिलाषा, इच्छा, प्यास , तृष्णा