जन्म मरण अज्ञात क्षितिज

"जन्म मरण अज्ञात क्षितिज"

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज ,
जिसे समझ सका न कोई ।
न इसका कोई मानदंड ,
और जोड़ न है इसका दूजा ।


कभी लगे यह चमत्कार सा ,
लगे कभी मृगमरीचिका ।
कभी तो लागे दूभर जीवन ,
कभी सात जन्म लागे कम ।


धूप के बाद छाँव है आता ,
है यह रीति प्रकृति का ।
पर जीवन की धूप छाँव ,
रहे कभी न एक सा ।


कभी लगे जन्मों का फल ,
पर साथ है फल भी मिलता ।
पुनर्जन्म भी बीच में आए ,
पर सिद्ध है करन को ।


आत्मा तो है सदा अमर ,
दार्शनिकों का कहना ।
वैज्ञानिकों ने बस इतना माना ,
कुछ नष्ट न होवे पूर्णतः ।।


- कुसुम ठाकुर -

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी सोच.

Pankaj Trivedi said...

जन्म मरण के सन्दर्भ में बहुत ही सही प्रतीकों के साथ आध्यात्मिकता और चिन्तनात्मक सोच से उभरी हुई है ये कविता | यहाँ तक खींच लाने के लिएँ आभारी हूँ |

vandana gupta said...

बिल्कुल सही कहा आपने ……………………।जनम मरण है ही अज्ञात क्षितिज़्……………जिसने इसे जान लिया समझिये उसे और कुछ जानना शेष नही रहा।