Friday, December 31, 2010

लेखन एक अनवरत यात्रा है

किसी ने सच ही कहा है :"लेखन एक अनवरत यात्रा है  - जिसका न कोई अंत है न मंजिल ", और यह सच भी है निरंतर अपने भावों को कलम बद्ध करना ही इस यात्रा की नियति होती है। अपने भावों को कलम बद्ध कर व्यक्ति को संतुष्टि के साथ ख़ुशी का अनुभव भी प्राप्त होता है। यह एक ऐसी यात्रा है जहाँ हर रचना एक पड़ाव होता है और पड़ाव पर आ व्यक्ति कभी तो अपने आप को तरोताजा महसूस करता है और अपनी अगली यात्रा को और दूने उत्साह के साथ तय करता है। कभी कभी उस रचना के शब्द जालों में उलझ व्यक्ति थकान का अनुभव भी करता है, फिर भी यात्रा पर निकल पड़ता है। कभी वह इतना खुश होता है कि ख़ुशी से आत्म विभोर हो अपनी अगली यात्रा को ही भूल जाता है पर कभी तो उसे ऐसा महसूस होता है मानो सारे शब्द ही ख़त्म हो गए ऐसी स्थिति में वह अपनी पिछली यात्रा को कामयाबी मान खुश होता है और ख़ुशी की उस धूरी पर घूमता रहता है। यों तो लेखन से आत्म तुष्टि कभी नहीं होती पर इस यात्रा में कभी कभी ऐसे मोड़ भी आते हैं जब व्यक्ति आत्म मुग्ध हो उठता है। 
 
लेखन एक कला है और अपने भावों को शब्दों द्वारा जिवंत बनाना ही लेखकीय कला कहलाता है, जो पाठक के मन में छाप छोड़ जाए, वही सार्थक लेखन कहलाता है लेखक, कवि अपनी रचनाओं में अपने अनुभव अपनी ज़िन्दगी अपने भावों को व्यक्त करते हैं। वह किसी न किसी रूप में उनके इर्द गिर्द घूमती है। उन्हें यह छूट रहती है कि वह कल्पना की उड़ान में, अपने पात्र के माध्यम से अपने मन में आने वाले ज्वार भांटा, अपने अनुभव, विचार, हर्ष, उल्लास, सपने, अपनी इच्छाओं को चाहे तो काट छांटकर या फिर बढ़ा चढ़ाकर लोगों तक पहुंचा सके पात्र  तो निमित्त मात्र होते हैं जिसे अपनी कल्पना, अनुभव से व्यापक दायरा प्रदान करना और लोगों का अनुभव बनने की कोशिश ही लेखक का उद्देश्य होता है। परन्तु इसके विपरीत आत्म कथा में यह गुंजाइश नहीं होती .......यहाँ पात्र ही उदेश्य होता है और लक्ष्य भी। यहाँ कल्पना की उड़ान में नहीं उड़ा जा सकता, जो कुछ देखा सुना और जो घटित हुआ उसी का वर्णन "अपनी कहानी" का उदेश्य होता है। अपने बारे में लिखना बहुत ही कठिन होता है। यहाँ न कल्पना की उड़ान में उड़ा जा सकता है न ही किसी से ताल मेल बिठाने की जरूरत होती है। बस अपने इर्द गिर्द  घटित घटनाओं को, अपने अनुभव, अपने मन के भावों को लिखना ही इसका लक्ष्य होता है 


मैं कभी यह नहीं सोची थी कि मैं कुछ लिखूंगी मैं तो बस हमसफ़र थी एक ऐसे व्यक्तित्व की जिसने अपने जीवन के चंद वर्षों में उतार चढ़ाव भरी जिंदगी को भी बड़े ही सहज, स्वाभाविक ढंग से सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए बिताया। एक बार मुझे किसी पत्रिका के लिए कुछ लिखने को कहा गया। मैं बस इतना ही लिख पाई मैं क्या लिखूं.....मेरी तो लेखनी ही छिन गयी है। पर आज महसूस करती हूँ कि मुझे एक अलौकिक लेखनी और उस लेखनी के रचना की जिम्मेदारी दे दी गयी है। न जाने क्यों आज लिखने की इच्छा हो रही है।  मैं तो केवल अपनी अभिव्यक्ति किया करती थी लेखनी और लिखने वाला तो कोई और था। उसके सामने मैं अपने आप को उसकी सहचरी, शिष्या एवं न जाने क्या क्या समझ बैठती थी। क्या उनकी कभी कोई रचना ऐसी है जो मैंने शुरू होने से पहले तीन चार बार न सुनी हो, या यों कह सकती हूँ कि लगभग याद ही हो जाता था। एक एक पात्र दिमाग मे इस प्रकार बैठ जाते थे कि एक सच्ची घटना सी मानस पटल पर छा जाता था ।

अदभुत कलाकार थे। एक कलाकार मे एक साथ इतने सारे गुण बहुत कम देखने को मिलता है। एक साथ लेखक निर्देशक, कलाकार सभी तो थे वो। मुझे क्या पता कि ऐसे आदमी का साथ ज्यादा दिनों का नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति की भगवान को भी उतनी ही जरूरत होती है जितना हम मनुष्यों को। परन्तु यदि ईश्वर हैं और मैं कभी उनसे मिली तो एक प्रश्न अवश्य पूछूंगी कि मेरी कौन सी गल्ती की सज़ा उन्होंने मुझे दी है। मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, न ही भगवान से कभी कुछ मांगी। मैं तो सिर्फ़ इतना चाही थी कि सदा उनका साथ रहे।

यह शायद किसी को अंदाज़ भी न हो कि मुझे हर पल हर क्षण उनकी याद आती है और मैं उन्ही स्मृतियों के सहारे जिंदा हूँ और अपनी जीवन नैया खिंच रही हूँ। उनका प्यार ही है जो मैं अपने आप को संभाल पाई। इतने कम दिनों का साथ फिर भी उन्होंने जो मुझे प्यार दिया, मुझ पर विशवास किया वह मैं किसे कहूं और कैसे भूलूँ ? मैं कैसे कहूं कि अभी भी मैं उन्हें अपने सपनों में पाती हूँ। मैं जब भी उनकी फोटो के सामने खड़ी हो जाती हूँ उस समय ऐसा महसूस होता है मानो कह रहे हों मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।

उनके जाने के बाद मैं ठीक से रो भी तो नहीं पाई। बच्चों को देखकर ऐसा लगा यदि मैं टूट जाउंगी तो उन्हें कौन सम्भालेगा। परन्तु उनकी एक दो बातें मुझे सदा रुला देतीं हैं। ऊपर से मजबूत दिखने या दिखाने का नाटक करने वाली का रातों के अन्धकार मे सब्र का बाँध टूट जाता है।

एक दिन अचानक बीमारी के दिनों मे इन्होने कहा " मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा"? उनकी यह वाक्य जब जब मुझे याद आती है मैं मैं खूब रोती हूँ। क्यों कहा था ऐसा ? एक दिन अन्तिम कुछ महीने पहले बुखार से तप रहे थे। मैं उनके सर को सहला रही थी । अचानक मेरी गोद मे सर रख कर खूब जोर जोर से रोते हुए कहने लगे इतना बड़ा परिवार रहते हुए मेरा कोई नहीं है। मैं तो पहले इन्हें सांत्वना देते हुए कह गयी कोई बात नहीं मैं हूँ न आपके साथ सदा। परन्तु इतना बोलने के साथ ही मेरे भी सब्र का बाँध टूट गया और हम दोनों एक दूसरे को पकड़ खूब रोये। यह जब भी मुझे याद आती है मैं विचलित हो जाती हूँ। मुझे लगता है उनके ह्रदय मे कितना कष्ट हुआ होगा जो ऐसी बात उनके मुँह से निकली होगी।

वैसे मैं शुरू से ही भावुक हूँ परन्तु इनकी बीमारी ने जहाँ मुझे आत्म बल दिया वहीँ मुझे और भावुक भी बना दिया। मैं तो कोशिश करती कि कभी न रोऊँ पर आंसुओं को तो जैसे इंतज़ार ही रहता था कि कब मौका मिले और निकल पड़े। इनके हँसाने चिढाने पर भी मुझे रोना आ जाता था। एक दिन इसी तरह कुछ कह कर चिढा दिया और जब मैं रोने लगी तो कह पड़े तुम बहुत सीधी हो तुम्हारा गुजारा कैसे चलेगा। शायद उन्हें मेरी चिंता थी कि उनके बाद मैं कैसे रह पाउंगी। उनके हाव भाव से यह तो पता चलता था कि वो मुझे कितना चाहते थे पर अभिव्यक्ति वे अपनी अन्तिम दिनों मे करने लगे थे जो कि मुझे रुला दिया करती थी। उनके सामने तो मैं हंस कर टाल जाती थी पर रात के अंधेरे मे मेरे सब्र का बाँध टूट जाता था और कभी कभी तो मैं सारी रात यह सोचकर रोती रहती कि अब शायद यह खुशी ज्यादा दिनों का नहीं है।

मुझे वे दिन अभी भी याद है। मैं उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ । वह तो मेरे लिए सबसे अशुभ दिन था। वेल्लोर मे जब डॉक्टर ने मेरे ही सामने इनकी बीमारी का सब कुछ साफ साफ बताया था और साथ ही यह भी कहा कि इस बीमारी में पन्द्रह साल से ज्यादा जिंदा रहना मुश्किल है। यह सुनने के बाद मुझ पर क्या बीती यह मेरे भी कल्पना के बाहर है। आज मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। मैं क्या कभी सपने मे भी सोची थी कि उनका साथ बस इतने ही दिनों का था। उस रात उन्होंने तो कुछ नहीं कहा पर उनके हाव भाव और मुद्रा सब कुछ बता रहे थे। मैं उनके नस नस को पहचानती थी, या यों कह सकती हूँ कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानते थे। उस रात बहुत देर से ही, ये तो सो गए पर मुझे ज़रा भी नींद नहीं आयी और सारी रात रोते हुए ही बीत गया।

लोग कहतें हैं कि भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है, पर मैं क्या कहूं मेरे तो समझ में ही कुछ नहीं आता? मैं कैसे विशवास करुँ कि उसने जो मेरे साथ किया वह सही है? मैं तो यही कहूँगी कि भगवान किसी को ज्यादा नहीं देता। उसे जब यह लगने लगता है कि अब ज्यादा हो रहा है तो झट उसके साथ कुछ ऐसा कर देता है जिससे फिर संतुलित हो जाता है। मेरे साथ तो भगवान ने कभी न्याय ही नहीं किया। आज तक मेरी एक भी इच्छा भगवान ने पूरी नहीं की या फिर यह कि मैंने एक ही इच्छा की थी, वह भी भगवान ने पूरी नहीं की। मैंने भगवान से सिर्फ़ इनका साथ ही तो माँगा था? पता नहीं क्यों मुझे शुरू से ही अर्थात बचपन से ही अकेलेपन से बहुत डर लगता था। ईश्वर की ऐसी विडंबना कि बचपन मे ही मुझे माँ से अलग रहना पड़ा। बाबुजी का तबादला गया से जनकपुर फिर अरुणाचल हो जाने की वजह से मुझे उनसे दूर अपनी मौसी चाचा के पास रहना पड़ा। तब से लेकर शादी तक माँ से अलग मौसी के पास रही। उस समय जब मुझे माँ के पास अच्छा लगता था उससे अलग रहना पड़ा। शादी के बाद लड़कियों को अपने पति के पास रहना अच्छा लगता है। उस समय मुझे कई कारणों से अपनी माँ के पास कई सालों तक रहना पड़ा। पहले माँ के पास छुट्टियों मे जाने का इंतजार करती थी बाद मे इनके आने का इंतजार करने लगी। इसी तरह दिन कटने लगा और एक समय आया जब हम साथ रहने लगे। जो भी था चाहे पैसे की तंगी हो या जो भी हम अपने बच्चों के साथ खुश थे और हमारा जीवन अच्छे से व्यतीत हो रहा था। अचानक भगवान ने फिर ऐसा थप्पड़ दिया कि उसकी चोट को भुलाना नामुमकिन है। आज हमारे पास पैसा है घर है बाकी सभी कुछ है पर नहीं है तो साथ। 

क्रमशः ...........

Wednesday, December 29, 2010

जिद्द भी करूँ क्यूँ न वादा करो

"जिद्द भी करूँ क्यूँ न वादा करो"

 गुम सुम रहो और न बातें करो,
कहूँ मैं क्या जो यकीं मुझपर करो 

पल पल की यादें हूँ मैं कितनी दूर,
विरह वेदना है बेताबी हरो 

नाराज़ जीवन, छुपे मुझसे क्यूँ ,
गिले शिकवे क्यों अब न मुझसे करो

मेरी भावनाएँ हुई कबसे गौण,
हो पहचान मेरी न आहें भरो 

अदाएँ भी मेरी रहे मुझसे दूर,
जिद्द भी करुँ क्यूँ न वादा करो 

लम्हें बची ना करो तुम यकीन,
  नजदीकियाँ हैं न चैन वरो  

- कुसुम ठाकुर -  

Wednesday, December 15, 2010

भगवान निरीह बनाकर क्यों भेजते


बाल विहार मूक वधिर स्कूल, जमशेदपुर


हमारी बातों को समझने की कोशिश करते हुए बाल विहार के मासूम बच्चे


बाल विहार के बच्चों को लिखकर अपनी बातें बताती हुई सरिता 

आज बहुत दिनों के बाद  बाल विहार गई थी. दरअसल अमेरिका से आने के बाद गई ही नहीं थी. मूक वधिर के इस स्कूल में जाती तो हूँ उनके साथ समय बिताने और उन्हें खुशियाँ देने पर मुझे जो खुशियाँ मिलती है वह कहीं उनकी खुशियों से अधिक है. उनके साथ कब समय बीत जाता है पता ही नहीं चलता. 

इस बार जबसे आई हूँ तबियत पूरी तरह ठीक नहीं है इसलिए मेरा कहीं भी जाना आना कम हो रहा है या यों कह सकती हूँ नहीं के बराबर . आज अचानक बाल विहार से एक बच्चे ने किसी से फ़ोन करवाया तो अपने आप को नहीं रोक पाई और अपनी एक सहेली के साथ वहाँ पहुँच गई. 

बच्चों की ख़ुशी देखने लायक थी. उन्हें तो उम्मीद ही नहीं थी हम अचानक पहुँच जाएँगे. हमें देख सभी अपनी अपनी जगह छोड़ हॉल में जो उनकी कक्षा भी है, पहुँच गए. ख़ुशी से कई कई बार नमस्ते करते, देखते देखते कुछ ही पलों में पूरी कक्षा में कुर्सियों को करीने से रख सारे बच्चे अपनी अपनी जगह बैठ गए . ऐसी अनुशासन तो मैंने अच्छे अच्छे स्कूलों में भी नहीं देखी, जो इस बाल विहार के बच्चों में है. 

हमने करीब एक डेढ़ घंटे उनके साथ बिताई, पर उनके चहरे की ख़ुशी देख प्रतीत होता था मानो उन्हें दुनिया की सारी खुशियाँ मिल गई हो और उनको खुश देख हमें संतुष्टि. हम जब चलने लगे एक बच्चे ने हाथ पकड़ रुकने को कहा और जल्दी से बोर्ड पर कुछ लिखने लगा, मैं मुड़ी तो बोर्ड पर वह कुछ लिख रहा था. उसने लिखी थी "Kusum mam tommorow". मैं समझ गई , वह पूछ रहा था मैं कल आऊँगी या नहीं. मैंने उसे कहा हाँ आऊंगी. वह समझ गया और सभी ताली बजा बजाकर उछलने लगे. चलते समय सभी हमारी गाड़ी तक आ हाथ हिला हिलाकर फिर से आने का इशारा कर रहे थे. 

रास्ते भर मैं सोचती रही भगवान जन्म देते हैं तो उन्हें निरीह बनाकर क्यों भेजते. अपनी बातों को समझाने के लिए ही उन्हें कितनी मेहनत करनी होती है. इतने मासूम बच्चे और अपने मन की सारी बातें सबसे नहीं कर पाते, लिखकर और इशारों से ही समझाना पड़ता है उन्हें . खैर, आज फिर जाने की तीव्र इच्छा है ............  




Saturday, November 27, 2010

हाले दिल बयां करूँ अब मैं कैसे

" बयाँ हाले दिल का करूँ अब मैं कैसे"

बयाँ हाले दिल का करूँ अब मैं कैसे 
खलिश को छुपाकर रहूँ अब मैं कैसे 

बुझी कब ख्वाहिश नहीं इल्म मुझको 
तन्हाइयाँ भी सहूँ अब मैं कैसे 

चिलमन से देखी बहारों को जाते 
हिले होठ मेरे कहूँ अब मैं कैसे 

हो उल्फत की चाहत ये मुमकिन नहीं   
रहे दूर चेहरा पढूं अब मैं कैसे 

- कुसुम ठाकुर -

शब्दार्थ :
खलिश - कसक, चिंता, आशंका,पीड़ा, 
इल्म - ज्ञान, जानकारी 
चिलमन - चिक, बांस के फट्टियों का पर्दा 

Thursday, November 4, 2010

गिले शिकवे सपनों में आके रुला दे


"गिले शिकवे सपनों में आके रुला दे "

सफ़र खूबसूरत जो वादे भुला दे ,
गिले शिकवे सपनों में आके रुला दे .

चमन भी है सूना है घर मेरा सूना ,
ख़ुशी की वो घड़ियाँ जो गम को भुला दे . 

कटे भी न कटती हैं ये लम्बी सी रातें ,
यादों के मंज़र में मुझको झुला दे .

मिला मुझको वो जिसकी चाहत कभी थी,
परछाइयाँ जिसकी खुशियाँ दिला दे .

सफ़र यूँ तो कट जाए बाकी बचा जो,
दो शक्ति मुझे जो मन को भुला दे . 

- कुसुम ठाकुर -

Wednesday, October 27, 2010

My Visit To The United Nations Head Quarter

My Visit To The United Nations Head Quarter


At The Gate

At The Gate


The Gallery

The Caption On The Wall



Flags Of 192 Member Countries


In Front Of The UN Building


Flags Of 192 Member Countries


General Assembly Hall

The Ex Secretary General United Nations

The Ex Secretary General Of United Nations

The Gift Shop At UN Head Quarter

Thursday, October 7, 2010

आराधना


"आराधना"



माँ कैसे करूँ आराधना ,
कैसे मैं ध्यान लगाऊँ ।
द्वार तिहारे आकर मैया ,
कैसे मैं शीश झुकाऊँ ।

मन में मेरे पाप का डेरा ,
माँ कैसे उसे निकालूं ।
न मैं जानूं आरती बंधन ,
माँ कैसे तुम्हें सुनाऊँ ।

बीता जीवन अंहकार में ,
याद न आयी तुम माँ ।
अब तो डूब रही पतवार ,
माँ कैसे पार उतारूँ ।

कर्म ही पूजा रटते रटते ,
माँ बीता जीवन सारा ।
पर तन भी अब साथ न देवे ,
माँ, अर्चना करूँ मैं कैसे ।

मैं तो बस इतना ही जानूँ ,
माँ, तू सब की सुधि लेती ।
एक बार ध्यान जो धर ले ,
माँ दौड़ी उस तक आती ।


- कुसुम ठाकुर -

Sunday, September 26, 2010

सारे वादों को मैं भूल जाऊँ सही


"सारे वादों को मैं भूल जाऊँ सही "

सारे वादों को मैं भूल जाऊँ सही 
और कसमों को दिल से मिटाऊँ सही 

एक तुम ही सदा रहनुमा थे मेरे
सारे मंज़र को दिल में उतारूँ सही 

आइना भी मुझे अब लगे बदनुमा 
चाहे लाख मैं खुद को सवारूँ सही 


आहट भी मुझे अब लगे खौफ सा
सच्चाई गले से लगाऊँ सही 

अब दरख्तों की छावों तले न सुकून 
जो मैं बैठी हूँ कैसे बताऊँ सही 


इल्तजा भी करुँ तो अब कैसे करूँ 
कैसे ढूँढूँ जो मिल पाऊँ सही 

- कुसुम ठाकुर -


शब्दार्थ :
रहनुमा - पथ प्रदर्शक , मार्ग दर्शक 
बदनुमा - कुरूप, भद्दा , जो देखने में अच्छा न हो 
दरख्तों - पेड़ 
इल्तजा - प्रार्थना , विनय , निवेदन 

Monday, September 20, 2010

चलने का बहाना ढूँढ लिया

"चलने का बहाना ढूँढ लिया"


चलने की हो ख्वाहिश साथ अगर 
चलने का बहाना ढूंढ लिया 

यूं तो रहते थे दिल के पास मगर 
तसरीह का बहाना ढूंढ लिया

मुड़कर भी जो देखूं मुमकिन नहीं
आरज़ू थी जो मुद्दत से ढूंढ लिया

तसव्वुर में बैठे थे शिद्दत सही 
खलिश को छुपाना ढूंढ लिया 

कहने को मुझे हर ख़ुशी है मिली 
हँसने का बहाना ढूंढ लिया 

- कुसुम ठाकुर -

Thursday, September 9, 2010

दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने

(यह एक श्रधांजलि उस व्यक्ति को है जिसने मुझे आज इस काबिल बनाया )


दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने 

दिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने 
लो यादों की महफिल सजाया है मैंने

समेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
जो मरजी थी मेरी, दिखाया है मैंने

जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
उसी तान को फिर जगाया है मैंने

है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने

है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
भ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने 


- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, September 7, 2010

जाने मन ढूँढता क्यों है


जाने मन ढूंढता क्यों है 
पाकर स्नेह सम्भलता क्यों है

ठहर न पाया जो सदियों तक 
उसके लिए सिसकता क्यों है 

स्वप्न दिखा ज्यों बीते पल के 
बस उसमें  चमकता क्यों है 

समझ न पाया क्या थी नेमत 
फिर उससे डरता क्यों है 

चाहत की अनुभूति फिर भी 
हर पल वह लुढ़कता क्यों है 

पा सदियों का स्नेह पलों में 
न जाने तरसता क्यों है  

कुसुम कामना वह काम आए
फिर कलियां  मुरझाता क्यों है ?

- कुसुम ठाकुर -

Saturday, September 4, 2010

आई पी address पुलिस में देने की धमकी !!

वैसे तो मैं १९९६ से कंप्यूटर का प्रयोग कर रही हूँ और १९९९ से पूरे तौर पर इन्टरनेट और ईमेल से जुड़ी, पर ब्लॉग की दुनिया से जुड़े हुए मुझे दो साल और तीन महीने ही हुए हैं . यों तो लिखने पढ़ने का शौक पहले से ही था , या कह सकती हूँ कि मैं उसी माहौल का हिस्सा दशकों से थी . अतः  लेखन पाठन मेरे शौक का हिस्सा कब बना नहीं कह सकती . पर ब्लॉग न ही पढ़ती थी और न ही उसके बारे में ज्यादा कुछ मालूम ही था . वह तो २००८ में जब मैं बेटे के पास कैलिफोर्निया आई उस समय श्वेता, (बड़ी बहु) के कहने पर ब्लॉग लिखना शुरू की . शुरुआत तो की थी अपनी यात्रा से वह भी अंग्रेजी में . धीरे धीरे भिन्न भिन्न विषयों पर लिखने लगी और अलग अलग कई ब्लॉग बना ली . एक मित्र के कहने पर हिन्दी में भी लिखना शुरू कर दी . कभी कभी अपनी पोस्ट पर टिप्पणी देखती और यदि लिंक छोड़ा हुआ होता तो उत्सुकतावश उनके ब्लॉग पर जाती और उसे पढ़ती थी . कभी कभी औपचारिकतावश और कभी कभी मन को भा जाता तब भी, टिप्पणी देने लगी.  उस समय मुझे यह नहीं पता था ब्लॉग और ब्लॉगर की भी अपनी अलग दुनिया होती है . आम परिवार और समाज की तरह यहाँ भी लोग एक दूसरे से मिलते हैं उनके सुख दुःख में हिस्सा लेते हैं मित्रता के दायरे बढ़ाते हैं . साथ ही आम परिवार और समाज की तरह यहाँ भी आपस में नोक झोंक , सहृदयता और द्वेष की भावना विधमान है , जो कि एक समाज परिवार के लिए स्वाभाविक होता है . मैं भी इस परिवार समाज का हिस्सा कब बन गई मालूम नहीं . बहुत से खट्टे मीठे अनुभव हुए इस परिवार से जुड़ने के बाद . कई बहुत ही अच्छे मित्र बने पर स्वभावतः मैं विवादों से दूर रहने की कोशिश करती और अब भी करती हूँ . मुझे विवाद और राजनीति यह दोनों बिल्कुल ही पसंद नहीं है . मैं कर्म में विश्वास रखती हूँ और मेरी बातों से या किसी तरह के व्यवहार से किसी को ठेस न पहुँचे यह सदा प्रयास करती हूँ . 

इस बीच बराबर सुनने में आता है किसी का मेल a/c hack हो गया तो किसी का फेस बुक a/c . दो दिनों पहले मेरे एक मित्र का g mail a/c ही hack हो गया . बहुत ही परेशान था, उसके कई ब्लॉग हैं वह उनसब पर लॉग इन नहीं हो सकता . उसने कई जरूरी आंकड़े भी अपने IN BOX  में रखे थे ....जिसे खोने का उसे काफी दुःख था. मैं भी चिंतित थी और उसी को ध्यान में रख मैं अपने सारे e mail a/c के पास वर्ड बदलने की सोची . इसी सिलसिले में मैं अपने याहू a/c पर गई .  पर वहाँ मेरे नाम से कोई पहले से ही लॉग इन था . मेरी समझ में यह नहीं आया ऐसा  भी हो सकता है . पहले तो मैं याद करने की कोशिश की , कहीं कोई कुसुम ठाकुर मेरे मित्र सूची में तो नहीं . पर वह अगर होता तो अवश्य याद रहता . अपने नाम के मित्र को कैसे भूल सकती हूँ . 

मुझे जब कुछ समझ में नहीं आया तो मैं उसे एक मैसेज भेजी .....आप कौन हैं, जरा अपने बारे में बताएँगे ? उधर से जवाब आया "मैं कोई हूँ.....आप कौन हैं "? मैं तुरन्त जवाब दी मेरा नाम कुसुम ठाकुर है, मैं एक ब्लॉगर हूँ पर आप भी इसी नाम से लोग इन हैं . मुझे लगा एक व्यक्ति जो इन्टरनेट का प्रयोग करता है या उससे जुड़ा हुआ है उसके लिए ब्लॉग का परिचय देना ही उचित होगा . ताकि वह ब्लॉग पर जाकर मेरा परिचय देख पूरी तरह से वाकिफ हो सकता है और जो भी प्रश्न चाहे पूछ सकता है . उन्होंने कहा अपने ब्लॉग का url दें . मैंने कहा ....मेरे ब्लॉग का नाम "Kusum's journey"  है पर आप मेरे उत्सुकता का निवारण पहले करें . यह सुनते ही उस सज्जन को मालूम नहीं क्या लगा तुरन्त ही मैसेज किया " I work with police and I am giving your IP address to the police." मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया . पर जो कभी कुछ गलत काम नहीं करता उसे आत्म विश्वास की कमी नहीं होती . मैंने भी धैर्य के साथ उसे कहा "I also know police as well as google and yahoo first you enquire about me and if you feel give my IP Address to the police". इसके बाद मैं उन्हें किसी भी तरह का मैसेज नहीं भेजी और जुट गई यह ढूँढने में यह महानुभाव हैं कौन .

 बहुत खोज बीन के बाद पता चला उस व्यक्ति का mail ID अनूप भार्गव नाम से था . तब मेरी शंका और बढ़ गई पर यह कैसे हुआ मेरी समझ में नहीं आया . याहू पर मैं बहुत ही कम जाती हूँ और जहाँ मेल ID देना जरूरी होता है वहाँ yahoo ID का ही प्रयोग करती हूँ . हाँ एक और ब्लॉगर साथी के कहने पर मैंने एक बार ई कविता की सदस्य बन गई थी पर मात्र एक बार ही उसमे कविता भेजी थी और साथियों ने सुझाव भी भेजा था . जिसके लिए मैं उन साथियों का शुक्रगुजार हूँ. अब मैं ऑनलाइन ढूँढने लगी कहीं कोई अनूप भार्गव के नाम से मिले .....एक व्यक्ति मिले भी जो शायद लिखते भी हैं और उनका ब्लॉग भी देखी  ...और अभी अमेरिका में जहाँ मैं हूँ,  वहाँ से पास ही रहते है . पर मेरा मन नहीं माना... एक सभ्य व्यक्ति परिचय पूछने पर सीधा पुलिस की धमकी देगा ...मैंने तो उन्हें मेरे बारे में जानने के सुराग भी दी थी . उन्होंने तो सीधा बस पुलिस की ही धमकी दे डाली . सबसे पहले मैं उनके नाम को अपने संपर्क सूची (contact list) से हटा दी . संयोग वश एक दो साथी ब्लॉगर ऑन लाइन दिखे उनसे उन सज्जन के विषय में पूछी पर किसी ने उनके बारे में कुछ नहीं बताया ,बल्कि वे उस नाम को जानते ही नहीं थे . खैर, संयोग वश एक ब्लॉगर साथी से बातें हो रही थी और उन्होंने कहा हाँ वे उन्हें जानते हैं और अनूप जी सज्जन भी हैं . सज्जनता की यदि यही परिभाषा है तो शायद मैं उसकी परिभाषा ही नहीं जानती . क्या सज्जन इसे ही कहते हैं ? क्या सज्जन व्यक्ति की नज़रों में दूसरे सभी दुर्जन हैं ? यह कैसे कोई आंक लेता है कि सामने वाला व्यक्ति कमजोर है और धमकी से डर जाएगा ? 

Wednesday, September 1, 2010

मेरी सिक्स फ्लैग्स(six flags) की यादगार यात्रा


एल टोरो झूले पर बस भगवान ही मालिक हैं अब  

मैं जब भी अमेरिका आती बहन के बच्चे और बेटा सिक्स फ्लैग्स का नाम बड़े ही उत्सुकता से लेते और (Six Flags) चलने को कहते पर मेरी इतनी हिम्मत कहाँ जो मैं उन गगन चुम्बी और दिल को दहलाने वाले झूलों पर जाती . बल्कि मेरा वश चलता तो उन्हें भी नहीं जाने देती . मुझे याद है पहली बार जब हम दिल्ली गए थे . बच्चे बहुत छोटे थे , पति को बच्चों के साथ अप्पू घर जाने का शौक था . पति ने जाते ही, जितने झूले थे सबकी टिकट ले लिय़ा . पहले झूले का नाम ड्रैगन था (Dragon) . सबसे आगे अजगर का मुँह बना हुआ था और पीछे उसके सीट थे . उस झूले पर जब हम सवार हुए उस समय यह बिल्कुल ही अंदाजा ही नहीं था कि उसकी सवारी हमें रोमांचित करेगा या फिर डरूँगी. हम चारों बैठ गए और जैसे ही वह गतिमान हुआ लगा मैं एक तरफ फिसली जा रही हूँ . मैं जोर से दोनों हाथों से सामने के लोहे को पकड़ ली, पर तब भी लगता था एक तरफ फिसल रही हूँ मन होता था जोर जोर से चिल्लाऊं रोको .....रोको पर किसी तरह तीन चक्कर लगा वह अजगर के मुँह वाला झूला रुका और मेरे जान में जान आई . बच्चे बहुत खुश थे उन्हें बहुत मज़ा आया था, मेरे पति भी खुश थे . मैं बोलूं तो क्या बोलूं पर मैं धीरे से बोली अब मैं किसी झूले पर नहीं जाऊँगी . "हाथ दर्द कर गया मेरा",यह कह अपनी दोनों हाथों की तरफ ज्यों ही नज़र डाली दोनों बिल्कुल काले पड़े हुए थे . दरअसल मैंने इतने जोरों से सामने वाले लोहे को पकड़ी थी की नाखूनों से मेरी तलहत्थी काले पड़ गए थे . उसके बाद उस दिन क्या मैं उसके बाद कभी किसी झूले पर नहीं बैठी .

हर बार की तरह इसबार भी सिक्स फ्लैग की बात उठी और मैं बस इतना ही बोली चलो चलूंगी बहुत सुनी हूँ इसका नाम और इतने बड़े बड़े झूले हमारे यहाँ तो हैं नहीं इसलिए देख तो लूं . टिकट नेट पर ही बेटे ने ले लिया . ज्यों ही हम सिक्स फ्लैग्स के नजदीक पहुँचे जो पहला झूला दिखा उसे देख तो अचंभित अवश्य हुई उस करीब ३०० फूट ऊँचे झूले को देखने के बाद और मन में दृढ निश्चय कर ली कुछ हो जाए मैं उन झूलों पर चढ़ने की सोचूंगी भी नहीं . गेट के भीतर पहुँच विक्की और अनु ने तय किया किस झूले पर पहले जाना है . पहला झूला जिसकी सवारी सबसे पहले करना था उसका नाम था सुपर मैन . लम्बी क़तर लगी हुई थी उस कतार में हम भी लग गए . मुझे तो झूला पर नहीं जाना था पर विक्की अनु ने कहा जहाँ से लोग झूले पर चढ़ रहे हैं वहाँ तक चलो . अतः मैं भी कतार में लग गई . ऊपर की ओर सर उठा झूले को देखी ....मेरे मुँह से निकल गया हे भगवान यह झूला तो बिल्कुल उलटा ही जा रहा है . सबके पूरा का पूरा बदन सीट में बाँधा हुआ और उलटा जमीन की ओर लटके हुए थे . ठीक सुपर मैन को जैसे उड़ते हुए सिनेमा में दिखाता है वैसे ही सब लग रहे थे . जिस जगह हम कतार में खड़े थे उस जगह से झूले की रफ़्तार और लोगों की प्रतिक्रया साफ़ साफ़ दिख रही थी . ज्यों ज्यों हम झूले के पास पहुँचते जा रहे थे विक्की मुझे समझाने में लगा हुआ था ताकि मैं झूले पर सवारी करने को तैयार हो जाऊँ . जितनी बार विक्की और अनु कहते  "कुछ नहीं है चलिए मज़ा आएगा". मैं उतनी बार ऊपर की ओर देखती और लोगों को हँसते देख थोड़ा साहस बढ़ता. मैं कतार में आगे की ओर बढ़ तो रही थी पर मन में हो रहा था हमारी बारी जल्दी न आए . मैं लगातार सर को ऊपर की ओर उठा झूले पर सवार लोगों को देख रही थी . कितनी बार तो मैं ऊपर देखती रह जाती और जब लोग आगे बढ़ जाते तब विक्की अनु की आवाज पर मैं भी आगे की ओर बढती .

इसी प्रकार हम उस झूले के प्लेटफार्म तक पहुँच गए . एक बार में २० लोग ही जा सकते थे और एक कतार में ४ कुर्सियां थीं और सभी अपने अपने परिवार के साथ बैठ रहे थे . वहाँ भी जबतक हमारी बारी आती तबतक कई बार झूला लोगों को सवारी करा आ चुका था . मैं गौर से सबके चेहरों की तरफ उनके भावों और प्रतिक्रियाओं को देख रही थी . कुछ सहस बटोर रही थी क्यों कि विक्की अनु और मोनी तीनो ही कह रहे थे चलिए यह कुछ नहीं है, मज़ा आएगा . जब हमारी बारी आई तब भी मेरा मन हुआ पार कर वापस चली जाऊं और विक्की को बोली भी, पर उसने जिद्द की और मेरी कुछ न चली . अंत में डरते डरते जाकर उस झूले पार बैठ गई .

एक कतार में चार कुर्सियां थीं पहला छोड़ मैं बैठी बगल में अनु और उसके बगल में विक्की . कुर्सी तो बहुत ही आराम दायक थी साथ में पैर रखने की जगह बनी हुई थी साथ ही हाथ पकड़ने की भी सुविधा थी . पर मन में एक डर लग रहा था जब कुर्सी को उल्टा करेगा तब कहीं मैं चिल्ला न दूँ  . खैर वहाँ के कर्मचारी आकर सबकी कुर्सियों को बारी बारी से देख रहे थे ठीक से बंद है या नहीं . मैं तीन बार अनु से बोली अनु देखो ठीक से बंद है . अनु देखकर तीनो बार बोली हाँ तो मन में थोड़ी तसल्ली हुई चलो बंद तो है . अचानक कुर्सी उलटी हो गई और हम सुपर मैं बन गए . जान में जान आई जिस तरह की कल्पना की थी उतना बुरा नहीं लग रहा था . झूला हम जैसे सुपर मैन को लेकर आगे बढ़ा और अब जमीन साफ दिख रही थी . झूला बहुत धीरे धीरे आगे की ओर बढ़ रहा था और मैं एक बार जय बजरंगबली कहती और दूसरी बार जय भोला नाथ. कहते है बजरंगबली सबसे ताकतवर हैं इसलिए सुपर मैन बन तो गई थी, पर ताकत के लिए बजरंगबली को याद कर रही थी और कह रही थी आज तुम ही बचाना इस सुपरमैन को . भोलेनाथ को इस विपत्ति में कैसे छोड़ देती अतः बार बार जय भोले नाथ कह अपनी प्रार्थना उनतक पहुँचने की कोशिश कर रही थी . अचानक झूले की गति बढ़ गई और मुझे कुछ भी याद नहीं उस समय मेरे मन में क्या आया . मैं तो अपनी दोनों आँखें जोड़ से बंद कर ली और इतंजार थी कब झूला रुके और मैं सकुशल जमीन पर लौटूं . वह समय आया और हमारा झूला जमीन पर रुका और हमें बंधन मुक्त किया गया . बेटे ने उतरते के साथ पूछा कैसा लगा मैं कह दी ज्यादा डर नहीं लगा अच्छा ही लगा . सुपरमैन बनकर जो लौटी थी, कैसे  कहती डर लग रहा था . उन सारे झूलों का  सवारी करते हुए सबकी फोटो ली जाती है और जिन्हें चाहिए वे पैसे दे ले सकते हैं . हम भी अपनी फोटो देखने पहुँच गए . पर मैं बहुत मायूस हो गई इतनी बहादुरी के कार्य जीवन में पहली बार की थी पर फोटो में मेरा चेहरा जरा भी नहीं दिख रहा था, बाल से मेरा पूरा चेहरा ढका हुआ था . वह फोटो लेकर क्या करती जब चेहरा ही नहीं दिख रहा था .

सुपर मैं बनाए के बाद मेरी हिम्मत नहीं थी किसी और झूले पर सवारी करने की फिर भी बच्चों की जिद्द पर एक दो छोटे झूलों पर बैठी . उसके बाद सबसे ऊँचे झूले की बारी आई और वह देख मैं नहीं जाने की जिद्द कर दी और वहाँ भी प्लेटफार्म तक गई और बच्चे सवारी पर गए और मैं वहीँ खड़ी रही .

अब बारी आई जिस झूले की उसका नाम था "एल टोरो" यह झूला भी देखकर ही डरावना लग रहा था . खुले आसमान में २०० फुट की उंचाई से कम यह भी नहीं था और लम्बाई बहुत ज्यादा थी इसकी . इस झूले में ६-७ जगह ऐसे थे जहाँ झूला सीधा खडा जाती थी और वहाँ से बस सीधा नीचे को आती थी वह भी तेज़ रफ़्तार से . यहाँ मैंने कितना भी कहा मैं नहीं जाऊँगी ...पर विक्की अनु नहीं माने . उनका कहना था यह झूला सुपर मैन के सामने कुछ भी नहीं था अर्थात बहुत आसन आसान था . विक्की ने जिद्द कर दिया और मैं साहस जुटाकर फिर सूली पर चढ़ गई .

इस बार दो लोगों के बैठने के लिए ही कुर्सी थी. तय हुआ मैं और अनु एक साथ बैठेंगे विक्की अकेला बैठेगा और मोनी आशीष एक साथ . खैर जब सर ओखली में डाल ही दी थी तो फिर अकेले बैठूं या दुकेले क्या फर्क पड़ता है . बजरंगबली को फिर याद कर झूले पर बैठ गई . इसबार सुपर मैन की तरह कुर्सी नहीं थी . बिल्कुल सीधा बैठना था और झूला की सवारी बिलुक सीधा तय करना था . खैर बैठी और बेल्ट ठीक से बाँध ली और अनु ने भी देख लिय़ा बेल्ट ठीक से बंधा था या नहीं. अभी अभी बहादुरी का झंडा गाड़कर आई थी .......एक बार मेरे भी मन में आया ......अरे यह तो सच में सुपर मैन से आसन झूला है . पर ज्यों ही खुले आसमान की ओर मेरी नज़र गई मन हुआ वहाँ से वापस भाग जाऊं . पर अब उसकी सम्भावना नहीं बची थी . हमारा झूला हमारे जैसे १६ बहादुरों को ले धीमी गति से अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ी थी . मेरे मन में आया मैन आकाश की ओर देखूंगी ही नहीं ...और न ही नीचे की ओर . बस सामने देख रही थी उस समय एक क्षण के लिए लगा यह सच में उतना भयावह नहीं था जितने की मैन कल्पना की थी . अचानक हमारा झूला बिल्कुल सीधी चढ़ाई करने लगा और कुछ ही क्षणों में ऊपर आ उसकी गति और कम हो गई. मेरी आंखे खुली और मैं एक बार जय बजरंगबली और एक बार जय भोले नाथ का जाप कर रही थी . अचानक झूले का किनारा नज़र आया और मेरी नज़र नीचे की ओर गई . मेरे मुँह से भगवान का नाम भी जाता रहा . अचानक लगा मैं आगे की ओर फिसल रही हूँ और मैं अपने हाथों से सामने वाले लोहे को जो पकड़ने के लिए ही थी को और जोरों से पकड़ ली . अब हम नीचे की ओर जा रहे थे पर मेरी ऑंखें बिल्कुल ही बंद और सर ऊपर आकाश की ओर . उसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं है ...बस लग रहा था कैसे झूला जल्दी रुके . पर झूला वैसे वैसे ५-६ और चढ़ाई पर बारी बारी से सफलता प्राप्त करने के बाद हमें हमारी जान के साथ सकुशल प्लेटफार्म पर वापस ला दिया . उस दिन तो हमने सिक्स फ्लैग्स गाड़ दिए पर अब यदि कभी बच्चे सिक्स फ्लैग्स की सैर को भी कहेंगे तो मैं बीमार होने का बहाना कर लुंगी .

Tuesday, August 17, 2010

न्यू यॉर्क में स्वतन्त्रता दिवस और तिरंगा की शान !!



"न्यू यॉर्क का इंडिया डे परेड "


२००८ के १५ अगस्त को मैं कैलिफोर्निया में थी और भारतीयों द्वारा मनाया जाने वाला स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम देख मुझे अच्छा तो लगा ही था साथ ही गर्व भी महसूस हुआ था . बहुत दिनों से सुनती थी वाशिंगटन और न्यू यॉर्क में इंडिया डे परेड बहुत ही शान के साथ धूम धाम से मनाया जाता है . 14 th - 15 th दो दिनों तक एम्पायर स्टेट बिल्डिंग के शीर्ष पर भारत के झंडा के तीनो रंगों से रोशनी इस प्रकार की जाती है यह सुन मुझे भी अपने देश की शान, तिरंगा का यह पावन पर्व देखने की बहुत इच्छा होती थी . संयोगवश इस वर्ष मुझे यह मौक़ा मिल गया . 



हमारे यहाँ कोई भी कार्यक्रम हो, इतनी भीड़ हो जाती है कि यदि आप विशिष्ट व्यक्ति हैं या किसी प्रकार विशिष्ट व्यक्तियों वाले निमंत्रण का इंतजाम कर लिया हो, तब तो ठीक है, वरना धक्का खाकर ही कोई कार्यक्रम देख सकते हैं वह भी ऐसी जगह से देखने का अवसर मिलेगा कि आप सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं यह हुआ वह हुआ होगा . न सही सही किसी का चेहरा दिख पाता है न ही आप कार्यक्रम का आनंद ले सकते हैं . मैं स्वभाव वश भीड़ से दूर रहती हूँ . यही कारण है कि कई बार मन रहते हुए भी बहुत से कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले पाती या देख नहीं पाती . 

4th जुलाई को अमेरका का स्वतंत्रता दिवस होता है पर उस दिन भीड़ की वजह से जाने की हिम्मत नहीं हुई थी . आज "इंडिया डे परेड " जाने का मन बना ली पर मन में एक शंका हो रही थी पता नहीं कहाँ से देख पाऊँगी और भीड़ कितनी होगी ? परेड 38th स्ट्रीट से शुरू होकर 26th   स्ट्रीट तक जाती है.  बेटे ने भी कहा भीड़ तो बहुत होगी . मैं प्रतिवर्ष १५ अगस्त और २६ जनवरी को सुबह सुबह तैयार हो जाती हूँ और झंडा को सलामी देने अवश्य जाती हूँ . पर इस बार कुछ अलग स लग रहा था . हम समय पर घर से निकले और 23 rd  स्ट्रीट समय पर पहुँच गए . पर वहाँ की भीड़ देख सांत्वना मिली . मैं तो भूल ही गई थी, यहाँ कितनी भी भीड़ हो हमारे यहाँ की तरह नहीं हो सकती . 


न्यू यॉर्क के मुख्य सड़क, एम्पायर स्टेट बिल्डिंग तथा बड़ी बड़ी इमारतों के बीच भारतीय स्वतंत्रता दिवस के परेड देखने आई थी, गर्व मिश्रित ख़ुशी का अनुभव लाज़मी था. 38 th स्ट्रीट पर उद्घाटन के साथ कुछ झाकियां दिखाई गई और फिर वहाँ से परेड शुरू होकर 26th स्ट्रीट तक गई . 26 th स्ट्रीट से 24 th स्ट्रीट तक खाने पीने के स्टाल लगे हुए थे और 23 rd स्ट्रीट पर एक भव्य स्टेज जहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम की व्यवस्था थी . इसबार मुख्य आकर्षण फिल्म जगत की प्रीटी जिंटा और त्रिनिदाद की प्रधान मंत्री कमला परसाद थीं . 


सभी अपना स्थान ग्रहण किये हुए थे अर्थात प्रतीक्षा थी कब शान के साथ तिरंगा निकले . कार्यक्रम के साथ ज्यों ही तिरंगा नज़र आई देख अवश्य ही गर्व महसूस हो रही थी. घोड़ों पर जवान के हाथों में तीन झंडे थे दोनों तरफ अमेरिका एवम न्यू यॉर्क राज्य का झंडा और बीच में हमारा झंडा शान से लहराता हुआ आगे की ओर बढ़ रहा था . जिसे देख हम गर्व से फूले नहीं समां रहे थे . 


झंडे के पीछे राजकीय बैंड की धुन सुन मन हर्षित हो गया . उस बैंड के पीछे  सिलसिला शरू हुआ झाकियों का हर क्षेत्र से जुड़े भारतीयों ने अपनी अपनी झाकियां निकाली थी . सभी के हाथों में तिरंगा और उत्साह से "भारत माता की जय " "वन्दे मातरम" कहते, साथ में हम जैसे दर्शक भी उनका साथ दे रहे थे. सभी झंडा और हाथ हिला हिलाकर एक दूसरे का अभिवादन कर रहे थे . 


एक एक कर सारी झांकियां जा रही थीं बीच बीच में न्यू यॉर्क के स्कूल के बच्चों का एवम वहाँ के स्थाई निकायों का बैंड देख महसूस हो रहा था मानो पूरा न्यू यॉर्क शहर ही हमारी ख़ुशी में शामिल हो और हमारे तिरंगा को सलामी दे रहा हो . एक एक कर सारी झाकियां चली गईं और कुछ लोग स्टेज की ओर अग्रसर होने लगे और कुछ वापस अपने घर . 


हम भी वापस घर की ओर मुड़ गए . मेरे मन में अनेक प्रश्न थे जिसका जवाब खुद ही ढूंढ रही थी . एक प्रश्न मन में आया....क्या इस तरह के कार्यक्रम हमारे देश में संभव है ? अमेरका के व्यस्तम सड़कों पर इतनी आसानी और सहजता से कार्यक्रम........क्या कभी हमारे यहाँ भी हो सकता है . क्या हम भी कभी दूसरों को भी उतनी इज्जत दे पायेंगे  ?
        

Saturday, August 14, 2010

शहीदों की बयां करना


"शहीदों की बयां करना "

देश की आन में जीना,
उसी की शान में मरना 
कहो किस्सा पुराना है,
जज्बा न कम करना 

हम आज़ाद हुए तो क्या ,
कीमत की लाज बस रखना 
अब स्वछन्द हम विचरें,
मगर संताप से डरना 

लगे देश भक्ति की रंग में,
दिखे हैं अब यही कहना 
मगर देश भक्तों की टोली,
छलावे से बस दूर रहना

झंडा और प्रभात फेरी,
बस फैशन ही उसे माना 
ना कीमत है न कसमे हैं ,
बस शहीदों की बयां करना 
देश की आन में ...... ......

- कुसुम ठाकुर -

Thursday, August 12, 2010

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज

"जन्म मरण अज्ञात क्षितिज"

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज ,
जिसे समझ सका न कोई ।
न इसका कोई मानदंड ,
और जोड़ न है इसका दूजा ।


कभी लगे यह चमत्कार सा ,
लगे कभी मृगमरीचिका ।
कभी तो लागे दूभर जीवन ,
कभी सात जन्म लागे कम ।


धूप के बाद छाँव है आता ,
है यह रीति प्रकृति का ।
पर जीवन की धूप छाँव ,
रहे कभी न एक सा ।


कभी लगे जन्मों का फल ,
पर साथ है फल भी मिलता ।
पुनर्जन्म भी बीच में आए ,
पर सिद्ध है करन को ।


आत्मा तो है सदा अमर ,
दार्शनिकों का कहना ।
वैज्ञानिकों ने बस इतना माना ,
कुछ नष्ट न होवे पूर्णतः ।।


- कुसुम ठाकुर -

Wednesday, August 4, 2010

हाइकु सजा

(आज एक समाचार पढ़ी जिसमे माँ पर अपनी ही बेटी के क़त्ल का इल्जाम था ....आज उसे जमानत मिल गई. मन में कुछ प्रश्न उठे... उसे मैं लिखने से अपने आप को नहीं रोक पाई. )

" हाइकु सजा "

 माँ की सज़ा  
पूछूं सच में बदा 
वह व्यथित 

शोक तो करे 
किससे वह कहे 
समझे कौन ?

बिदाई तो करे 
सँग लांछन लगे 
वह निश्छल 

मिली जो सज़ा 
बिसरे वह यदा 
भरपाई क्या  

दुनिया कहे 
सब लाठी सहे
वह है तो माँ 

- कुसुम ठाकुर - 

Wednesday, July 28, 2010

हाइकु सुख औे दुुख

" सुख औे दुुख " 

सुख औ दुःख 
जीवन के दो पाट 
तो गम कैसा 

चलते रहो 
हौसला ना हो कम 
दूरियाँ क्या है 

लक्ष्य जो करो 
ज्यों ध्यान तुम धरो 
मिलता फल 

हार ना मानो 
ज्यों सतत प्रयास 
मंजिल पाओ 

कर्म ही पूजा 
उस सम ना दूजा 
कहो उल्लास 

ध्यान धरो 
बस मौन ही रहो 
पाओ उल्लास 

- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, July 27, 2010

पर मुझे स्वर्ग सा नहीं लगा !!

मुझे अमेरिका आए हुए एक महीने से ज्यादा हो गए, १६ जून को आई थी. एक महिना कैसे बीता, पता ही नहीं चला . वैसे भी बच्चों के साथ रहने पर समय का पता कहाँ चलता है . इस बार तो कुछ ख़ास ही व्यस्तता और ख़ुशी है . बेटे ने घर जो लिय़ा है . बच्चे की तरक्की प्रत्येक माता पिता को खुशियाँ देती है . खासकर ऐसे माता पिता को जिसे अकेले ही माँ और पिता दोनों की जिम्मेदारी निभानी पड़ी हो और वह बड़े ही तन्मयता से अपने बच्चों में अपनी आशा को पूरी होते देखने की आशा रखता हो. उनकी हर छोटी बड़ी इच्छा का ध्यान यह सोच रखता हो कि कहीं उसे अपने माता पिता दोनों में से किसी एक की कमी महसूस ना हो और अपनी इच्छाओं को कभी उनपर थोपने की कोशिश ना करता हो. जो समाज परिवार से परे जाकर अपने बच्चे की हर इच्छा और ख़ुशी में शामिल होने से कभी ना चुका हो. 

जीवन का १५ साल कैसे बीता समझ में ही नहीं आता  ...... बच्चे कब बड़े हुए , कैसे बड़े हुए, इसका भान तो है . अपनी जिम्मेदारी निभाने में कहाँ तक सफल हुई इसकी सफलता और असफलता का लेखा जोखा कुछ वर्षों बाद ही लिया जा सकता है पर अपने बच्चों की ख़ुशी और तरक्की देख दूसरे माता पिता की तरह मैं भी ख़ुशी से फूली नहीं समाती . 

अमेरिका के शहर बहुत छोटे छोटे सुन्दर और व्यवस्थित हैं . शहर की सीमा नाम की कोई चीज़ ही नहीं है . कहाँ से शहर शुरू होता और कहाँ खत्म होता यह आम पर्यटक या नए लोगों को समझ पाना बहुत मुश्किल है.  २३ को गृहप्रवेश था और अब हम नए घर में रह रहे हैं . "वेस्ट औरेंज" नु यार्क शहर से मात्र १५ मील की दूरी पर अवस्थित है . प्रसिद्ध वैज्ञानिक और बल्ब के अविष्कारक ने यहीं रह बल्ब का आविष्कार किया और अपनी अंतिम सांस भी यहीं पर लिय़ा . इस वजह से इस शहर का अपना अलग महत्त्व है. एडिसन की यादों को ताज़ा रखने के लिए खास खास जगहों पर प्रतीक के रूप में बड़े बड़े बल्ब बने हुए हैं . एडिसन हिस्टोरिक पार्क, संग्रहालय इस शहर में अब भी है . 

एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि अमेरिका का सबसे अच्छा क्या लगा...... तुरन्त ही मैंने जवाब दिया वहाँ के लोगों में अनुशासन और प्रदूषण रहित वातावरण . अमेरिका का नु यार्क वाला भाग भी अपनी प्राकृतिक छटाओं से भरा है .  हमारा घर पहाड़ों पर अवस्थित है और घर के ठीक पीछे जंगल है जहाँ हिरन और तरह तरह के जानवरों को स्वाभिक रूप से विचरण करते देखा जा सकता है .

मैं पूरा अमेरिका घूम चुकी हूँ ऐसा तो नहीं कह सकती, क्यों कि अमेरिका बहुत बड़ा है , पर अमेरिका में काफी घूम चुकी हूँ यह कह सकती हूँ . खान पान से लेकर अनुशासन, सफाई और यातायात तक हर जगह बहुत सी सुविधाएँ हैं जो हमारे भारत में अभी होने में बहुत समय लगेगा . फिर भी कुछ दिनों रहने के बाद अपने वतन की याद तो आती ही है . घूमने के लिए आना और बात है .........पर लालसा कभी नहीं होती कि यहाँ सदा के लिए बस जाऊं . 

अभी कुछ ही दिनों पहले मैं नेट पर किसी की लेख पढ़ रही थी .....उन्होंने लिखा था  "हमारे यहाँ मरने के बाद लोग स्वर्ग जाते है .........अमेरिका तो साक्षात स्वर्ग है ". अमेरिका अच्छा तो मुझे बहुत लगता है सुविधाओं की तो बात ही क्या है . पर मुझे स्वर्ग सा नहीं लगा  . मैं तो कहूँगी स्वर्ग की परिभाषा ही शायद उन्हें नहीं मालूम . एक तो स्वर्ग किसने देखा है. जिसे देखा जा सके वह स्वर्ग कैसे हो सकता है ? स्वर्ग की तो मात्र कलपना की जा सकती है .

Wednesday, July 21, 2010

अब खुशियाँ समेटूं मैं

"अब खुशियाँ समेटूं मैं " 

मुद्दत बाद मिली खुशियाँ, उसे कैसे संभालूं मैं 
तुम जो दूर हो इतनी, कैसे ना बताऊँ मैं 

कहने को तो उद्धत है,चंचल शोख नटखट नैना 
मगर जब पास आओगे, रहूँ बस मूक जानूं मैं 

लगे तो सब मुझे सपना, मगर अनमोल और अपना 
पलटकर तुम जो ना देखो, समझ उलझन बता दूँ मैं 

लगे मुझको तो सच्चाई, सुखी जीवन जो कहते हैं 
दुःख में सुख जो मैं ढूंढूं, अब खुशियाँ समेटूं मैं 

गिले शिकवे करे कैसे, कुसुम को यह ना भाता है 
लफ़्ज़ों की कीमत को, कहो कैसे ना सम्भालूँ मैं 

- कुसुम ठाकुर-

Monday, July 12, 2010

मन को समझाती रही !!

मन को समझाती रही "

यूँ गए कि  फिर न आए मन को समझाती रही 
बागबाँ बन अपने सूने मन को भरमाती रही 

शोख चंचल भावना हो पर फ़रह मुमकिन कहाँ 
सपनों मे थी कुछ संजोई सोच मुस्काती रही 

इब्तिदा जो प्यार की अलफ़ाज़ से मुमकिन नहीं  
दिल के हर एहसास का मैं गीत दुहराती रही 

चंद लम्हों का ये जीवन कुछ भला मैं भी करूँ  
कोशिशें हर पल करूँ और गम को बहलाती रही

आरज़ू थी कुछ कुसुम की अश्क शब्दों में ढले
काश मिल जाए वो खुशियाँ मन को झुठलाती रही 

- कुसुम ठाकुर -


शब्दार्थ :
फ़रह - प्रसन्नता, ख़ुशी 
इब्तिदा - शुरू , प्रारंभ 
अलफ़ाज़ - शब्द समूह 
अश्क - आंसू 



Saturday, June 26, 2010

चलने का नाम ही जीवन है .

 " चलने का नाम ही जीवन है "

गैरों से उम्मीद नहीं थी, अपनो ने जख्म दिया मुझको ।
चाहत कैसी तलबगार की, नेह सुधा न मिला मुझको ।।

सुख दुःख की आँख मिचौनी भी, शिरोधार्य किया मैंने ।
जीवन की हर सच्चाई से , साक्षात्कार न हुआ मुझको।।

चलने का नाम ही जीवन है, बस उसका अलख जगा बैठे ।
छोर निकट आया मंजिल की, ना आभास हुआ मुझको ।।

सिद्धांत कभी जो मन में बसा, उसे आज निभाना कठिन सही
क्या मार्ग उचित है, प्रगति भी हो, या यूँ ही भरमाया मुझको।।

है कुसुम नाम उत्सर्गों का , रहे उचित ध्यान सत्कर्मों से ।
कामना करूँ हर पल उससे , अभिमान कभी न छुए मन को ।।

- कुसुम ठाकुर -

Thursday, June 24, 2010

कलकत्ता से उड़ान का अनुभव !!

वैसे तो मुंबई या दिल्ली से ही मैं अक्सर अमेरिका के लिए फ्लाइट  लेना पसंद करती हूँ पर  अक्सर लोगों से सुनती थी कलकत्ता पास है इसलिए उन्हें कलकत्ता से ही उड़ान (फ्लाइट) लेने में सुविधा होती है । करीब करीब मेरे सारे सम्बन्धी और दोस्त कलकत्ता से ही फ्लाइट लेते हैं  इस बार जब अनु ऑन लाइन टिकट ले रही थी तो मुझसे पूछी कहाँ से आप फ्लाइट लेना पसंद करेंगी.........और उस समय मेरे मन में आया क्यों न एक बार कलकत्ता से उड़ान ली जाय । कलकत्ता से मात्र एअर इंडिया की उड़ाने ही नन स्टॉप हैं। अनु ने देख कर बताया कि तीन उड़ाने कोलकाता से  न्यू यार्क की थी जो दिल्ली में मात्र रूकती थी और उसके बाद सीधा न्यू यार्क मैं ने शाम की उड़ान लेने का फैसला लिया जो कि ५ बजे शाम में कलकत्ता से उड़ती है और सुबह ६ बजे न्यू यार्क पहुँच जाती है । 


टिकट देखी तो पता चला दिल्ली में करीब पाँच घंटे रुकना पड़ेगा । मेरा सामान कलकत्ता में ही चेक इन होना था यह तो टिकट ही बता रहा था और कलकत्ता तक की उड़ान भी डोमेस्टिक (घरेलू) थी यह टिकट संख्या से लग रहा था। मुझे भी लगा और सबने कहा भी अगर कलकत्ता तक की उड़ान घरेलू है तो मैं बाहर भी जा सकती हूँ। मुझे लगा बहुत दिनों से मेरा एक भाई जो कि गुडगाँव में ही रहता है, घर आने कह रहा था अच्छा है उसे ही खबर कर दूंगी आकर ले जायेगा और एक डेढ़ घंटे उसके साथ बिताकर फिर वापस आ जाउंगी। चेक इन का झंझट तो था ही नहीं। इस आशय से कि पूरी तरह और सही जानकारी मुझे एअर इडिया के ऑफिस से ही मिलेगा मैं उसके टोल फ्री  नंबर पर फ़ोन की और टिकट का पूरा व्योरा फ़ोन पर बता उनसे पूरी जानकारी माँगी । जिसने फ़ोन उठाया था उसने जानकारी देते हुए कहा ......मुझे अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल में ही ही चेक इन करना है इसलिए बाहर जाने का सवाल ही नहीं उठता । यह सुन मैं बाहर जाने का इरादा छोड़ दी। चलने से दो दिनों पहले मैं अपने सीट और उड़ान की पुष्टिकरण के लिए एअर इडिया के ऑफिस में फोन की वहाँ उपस्थित एअर इंडिया के अधिकारी ने उस दिन भी पुष्टि करते हुए बताया कि.....मेरी उड़ान अन्तराष्ट्रीय टर्मिनल से है ।  


२५ जून को ५ बजे शाम में मेरी उड़ान थी। जमशेदपुर से कलकत्ता जाने  के रास्ते में ही झारग्राम पड़ता है , जहाँ २७ मई को जनेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटना ग्रस्त हो गई थी । रेल यातायात की अनियमितता और अन्तराष्ट्रीय उड़ान होने की वजह से मैंने सुबह की ट्रेन से कलकत्ता जाने का निर्णय लिय़ा। १:४५ दिन में कलकत्ता का नेताजी सुभाष अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा पहुँची। 


जैसे ही मैं सुभाष चन्द्र बोस अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा के गेट के पास पहुँची अपना सामान ट्रॉली पर रख अपना पास पोर्ट और टिकट निकाल ली ....सी आइ एस एफ के सिपाही को गेट पर देख अपनी टिकट और पास पोर्ट उसे जाँच के लिए थमा दी। टिकट देख आश्वस्त हो उसने मुझे भीतर जाने दिया । भीतर वाला गेट भी बंद था और वहाँ भी दो सिपाही खड़े थे उन्होंने मुझसे उड़ान संख्या पूछी। और जैसे ही मैं उन्हें उड़ान संख्या बताई कहने लगे यह उड़ान यहाँ से नहीं है....।  मेरे हाथ में टिकट थी पर वे कह रहे थे वहाँ से नहीं है खैर उसी समय एक और व्यक्ति जो उसी हवाई अड्डा का अधिकारी प्रतीत होता था उसने मुझसे उड़ान संख्या पूछी और बहुत सोचने के बाद उसने बतया कि वह उड़ान संख्या शायद डोमेस्टिक टर्मिनल से हो । 


कलकत्ता का दोनों टर्मिनल बिल्कुल आस पास है, ट्रॉली लेकर मैं सीधा दूसरे टर्मिनल पर पहुँच गई और टिकट दिखा सीधा एअर इंडिया के ऑफिस यह सोच पहुँच गई कि पहले यह तो पता करूँ मेरी उड़ान आखिर है किस टर्मिनल से। वहाँ ऑफिस में एक महिला और एक पुरुष अधिकारी मिले उनसे मैं अपनी उड़ान संख्या बताकर पूछी....मेरी उड़ान आखिर कहाँ से थी....पर हाय रे एअर इंडिया के कर्मचारी.... उन्हें पता ही नहीं था कि उस संख्या की कोई उड़ान भी है। मेरा सब्र अब टूट चुका था और मैं उनसे गुस्से में बातें कर रही थी ....मैं उनसे कह रही थी अगर यह उड़ान संख्या है ही नहीं तो फिर यह टिकट मुझे कैसे दी गई है .....उसी समय हमारे वार्तालाप को सुन भीतर से एक अधिकारी आए और वे मुझसे मेरी परेशानी का कारण पूछने लगे .....मैं उन्हें अपनी टिकट दिखा अपनी परेशानी का कारण बताई। मेरी टिकट देखते ही उन्होंने कहा कि...मेरी उड़ान उसी टर्मिनल से थी यानि डोमेस्टिक टर्मिनल से। उन्होंने खुद ही मुझे चेक इन काउंटर तक पहुँचा दिया साथ ही असुविधा के लिए खेद भी प्रकट करते हुए कहा .. .sorry madam for the inconvenience अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया this is called Air India.


चेक इन काउंटर पर मैं अपनी टिकट और पास पोर्ट वहाँ उपस्थित अधिकारी को देते हुए जब पूछी कि मेरे दोनों बोर्डिंग पास वहाँ मिलेगा या नहीं... तो उसने मुझे जवाब दिया वह इंडियन एअर लाइंस का स्टाफ था अब चूंकि दोनों का विलय हो चुका है इसलिए वह काम तो कर रहा है पर उसे सारी बातें मालूम नहीं है। यह कह वह बगल के काउंटर से किसी को बुलाया और पूछने के बाद मुझे दोनों बोर्डिंग पास दिया । खैर किसी तरह मुझे बोर्डिंग पास भी मिला और उड़ान भी समय पर थी


अंततः हमें दिल्ली के इन्द्रा गाँधी अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा के डोमेस्टिक टर्मिनल पर ही ले जाया गया और वहाँ से फिर अन्तराष्ट्रीय टर्मिनल मैं समय से ५ घंटे पहले पहुँच गई थी और वह समय एअर इंडिया वालों की मेहरबानी से बैठकर बिताना पड़ा । यात्रा शुरू होने से पहले ही मैं थक चुकी थी


क्या यही कलकत्ता हवाई अड्डा और एअर इंडिया की व्यवस्था है। क्या यही है एअर इंडिया के कर्मचारियों और अधिकारियों की कार्य प्रणाली जिसके लिए आए दिन वे तनख्वाह और सुविधा बढाने के लिए हड़ताल करने की धमकी देते हैं ?