(यह एक श्रधांजलि उस व्यक्ति को है जिसने मुझे आज इस काबिल बनाया )
दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने
समेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
भ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने
दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने
दिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने
लो यादों की महफिल सजाया है मैंनेसमेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
जो मरजी थी मेरी, दिखाया है मैंने
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
उसी तान को फिर जगाया है मैंने
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
भ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने
- कुसुम ठाकुर -
बेहतरीन.
ReplyDeleteदिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने
ReplyDeleteलो यादों की महफिल सजाया है मैंने
प्रत्येक शेर... लाजवाब ! ये हुई न बात?
यह लिखाकर अपनी महफ़िल सजाने का पूरा हक्क है... दोनों हाथों से सलाम करता हूँ हूजूर !
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
ReplyDeleteउसी तान को फिर जगाया है मैंने
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
वाह लाजवाब। बधाई।
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
ReplyDeleteउसी तान को फिर जगाया है मैंने
वाह ..बहुत सुन्दर ..
दिलों जाँ से कतरा बहाया है मैंने.... u write so beautiful.... excellent... superb...
ReplyDeleteसमेटूं मैं पलकों में चाहत थी मेरी
ReplyDeleteजो मरजी थी मेरी, दिखाया है मैंने
सुंदर अहसासों से भरी एक बेहतरीन प्रस्तुति।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
दिलो जाँ से कतरा बहाया है मैंने
ReplyDeleteलो यादों की महफिल सजाया है मैंने
bahut khubsurat matla....
achhi gazal ....
सुंदर ग़ज़ल. हर शेर उम्दा !
ReplyDeleteजब रूहों का
ReplyDeleteमिलन होने लगे
जब बिना कहे ही
दूजे की आवाज़
सुनने लगें
तरंगों पर ही
भावों का
आदान- प्रदान
होने लगे...
उपर्युक्त पंक्तियाँ कविता को नई ऊँचाइयों पर ले जाती हैं... इस कविता में आपने प्रेम के सभी आयामों और लक्षों को परिभाषित सा कर दिया है.. कविता ए़क नदी कि तरह गतिमान है ! बहुत सुंदर रचना !
है सांसों की माला पिरोने की कोशिश
ReplyDeleteभ्रमर को कुसुम पे लुभाया है मैंने
bahut sundar rachna.
.
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
ReplyDeleteफलक को जमीं पर बुलाया है मैंने..wow!
लाजबाव ।
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
बेहतरीन भावों की अभिव्यकत्ति....
ReplyDeleteupendra ( www.srijanshikhar.blogspot.com )
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
ReplyDeleteफलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
Kya khoob kaha hai.
प्रशंसनीय ।
ReplyDeletebahot achcha hai.
ReplyDeleteहै मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
ReplyDeleteफलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
वाह वाह लाजवाब बधाई कुसुम जी।
जो सरगम के सुर अब न आगे को बढ़ते
ReplyDeleteउसी तान को फिर जगाया है मैंने
है मुमकिन कि मैं फासले को भी जानूं
फलक को जमीं पर बुलाया है मैंने
वाह कुसुम जी लाजवाब गज़ल है बधाई आपको।
बहुत सुन्दर ..
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
समझ का फेर, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वरूप की लघुकथा, पधारें
बहुत खूब ।
ReplyDeleteप्रतिक्रया के लिए आप सबों का बहुत बहुत धन्यवाद !!
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