"जन्म मरण अज्ञात क्षितिज"
जन्म मरण अज्ञात क्षितिज ,
जिसे समझ सका न कोई ।
न इसका कोई मानदंड ,
और जोड़ न है इसका दूजा ।
कभी लगे यह चमत्कार सा ,
लगे कभी मृगमरीचिका ।
कभी तो लागे दूभर जीवन ,
कभी सात जन्म लागे कम ।
धूप के बाद छाँव है आता ,
है यह रीति प्रकृति का ।
पर जीवन की धूप छाँव ,
रहे कभी न एक सा ।
कभी लगे जन्मों का फल ,
पर साथ है फल भी मिलता ।
पुनर्जन्म भी बीच में आए ,
पर सिद्ध है करन को ।
आत्मा तो है सदा अमर ,
दार्शनिकों का कहना ।
वैज्ञानिकों ने बस इतना माना ,
कुछ नष्ट न होवे पूर्णतः ।।
- कुसुम ठाकुर -
जन्म मरण अज्ञात क्षितिज ,
जिसे समझ सका न कोई ।
न इसका कोई मानदंड ,
और जोड़ न है इसका दूजा ।
कभी लगे यह चमत्कार सा ,
लगे कभी मृगमरीचिका ।
कभी तो लागे दूभर जीवन ,
कभी सात जन्म लागे कम ।
धूप के बाद छाँव है आता ,
है यह रीति प्रकृति का ।
पर जीवन की धूप छाँव ,
रहे कभी न एक सा ।
कभी लगे जन्मों का फल ,
पर साथ है फल भी मिलता ।
पुनर्जन्म भी बीच में आए ,
पर सिद्ध है करन को ।
आत्मा तो है सदा अमर ,
दार्शनिकों का कहना ।
वैज्ञानिकों ने बस इतना माना ,
कुछ नष्ट न होवे पूर्णतः ।।
- कुसुम ठाकुर -
बहुत गहरी सोच.
ReplyDeleteजन्म मरण के सन्दर्भ में बहुत ही सही प्रतीकों के साथ आध्यात्मिकता और चिन्तनात्मक सोच से उभरी हुई है ये कविता | यहाँ तक खींच लाने के लिएँ आभारी हूँ |
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने ……………………।जनम मरण है ही अज्ञात क्षितिज़्……………जिसने इसे जान लिया समझिये उसे और कुछ जानना शेष नही रहा।
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