"अब खुशियाँ समेटूं मैं "
मुद्दत बाद मिली खुशियाँ, उसे कैसे संभालूं मैं
तुम जो दूर हो इतनी, कैसे ना बताऊँ मैं
कहने को तो उद्धत है,चंचल शोख नटखट नैना
मगर जब पास आओगे, रहूँ बस मूक जानूं मैं
लगे तो सब मुझे सपना, मगर अनमोल और अपना
पलटकर तुम जो ना देखो, समझ उलझन बता दूँ मैं
लगे मुझको तो सच्चाई, सुखी जीवन जो कहते हैं
दुःख में सुख जो मैं ढूंढूं, अब खुशियाँ समेटूं मैं
गिले शिकवे करे कैसे, कुसुम को यह ना भाता है
लफ़्ज़ों की कीमत को, कहो कैसे ना सम्भालूँ मैं
- कुसुम ठाकुर-
bahut sundar bhaavavyakti.
ReplyDeletebhavbhini kavita..........bahut sundar
ReplyDeleteकुसुम जी,
ReplyDeleteअपकी कविता दिलकी छोर तक तो जाती है, लेकिन इस्का श्रेय मै िस्मे चयन किये गये शब्दोको ज्यादा दुंगा .
इसमे कोइ दो मत नहि कि आप साहित्य के लिये एक वरदान हो . पर ये कविता आपकी उत्कृष्टों मे से नहि लिया जायेगा.
ये बस एक रचना है जिसे हम गर्व से नहि केह सक्ते कि ये कुसुमजी कि कविता है. आपकी कवितामे जो रस मिल्ति है, जो आनन्द उसे पढने मे मिल्ते हैं , वो मुझे इसमे नहि मिला.
पुरी उम्मिद ले के बैठा हुं कि बहुत जल्द आपकी स्याही से फिर एक आखर पढ्नेको मिलेगा .
ईति
अनुज
हृदय में उठती उसाँस जैसी मर्मभेदी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसुन्दर सहज अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआप तो बस खुशियाँ समेटती रहिए और यहाँ लिखती रहिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
गिला शिकवा करे कैसे, कुसुम को यह ना भाता है
ReplyDeleteलफ़्ज़ों की कीमत को, कहो कैसे ना सम्भालूँ मैं
waah waah !!! bahut khusurat makta