Saturday, August 18, 2012

आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है!!


 "आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है उसके लिए हमारे देश के अनेको देश भक्तों ने जान की बाजी लगाकर देश पर मर मिटने की कसम खाई और शहीद हुए. उनके वर्षों की तपस्या और बलिदान से हमने आजादी पाई है ". झंडा के सामने यह हर वर्ष ऐसे बोला जाता है मानो हम प्रतिज्ञा कर रहे हों कि इस देश की खातिर हम भी अपने उन शहीदों की तरह मर मिट सकते हैं जिन्होंने कई सौ वर्षों की गुलामी से हमें आजादी दिलाई है. पर वह भी मात्र औपचारिकता ही होती है. क्या ये वाक्य बोलते समय उनके ह्रदय में जरा भी देश पर मर मिटने की चाहत होती है ?  हर वर्ष जो भी झंडोत्तोलन करने आता है, पर उन्हें  यह औपचारिकता निभाना होता है इसलिए कह देते हैं.

हम कहते हैं अंग्रेजों कि नीति थी "divide and rule" पर क्या आजके हमारे नेताओं की भी यही नीति नहीं है? वे चाहते हैं कि हमारे युवा वर्ग दिग्भ्रमित रहें और जाति, राज्य, धर्म,भाषा लेकर इतना ज्यादा आपस में उलझे रहें कि उन्हें यह समझने की फुर्सत ही न हो कि वे सोचें कि हमारे देश के नेता क्या कर रहे हैं. सही मायने में हमारा भला कौन कर सकता है देश का भला कौन चाहता है? वैसे मेरी नज़र में एक भी नेता या पार्टी आजके दिन में ऐसा नहीं है जो खुद की भलाई से ऊपर उठकर हमरा, हमारे बच्चों का या देश का भला चाहे. 

आज आज़ादी के ६५ साल बाद भी क्या हम आजाद हैं ? और यदि नहीं हैं तो उसका जिम्मेदार कौन है ? क्या हम खुद उसके जिम्मेदार नहीं हैं ? यों तो लोग कहते हैं हमारे चौथे खम्भे की अहम भूमिका होती है पर मेरे हिसाब से हमरा चौथा खम्भा हमारे देश के युवा हैं . जिन्हें उनकी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाना होगा देश के प्रति उनकी अहम भूमिका देश को आज भी हर क्षेत्र में उंचाईयों पर ले जा सकती है. अगर वे दिग्भ्रमित न हों तो उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है. उन्हें समझना होगा कि आज के नेता चाहे किसी भी पार्टी के हों उनका उद्देश्य मात्र होता है गद्दी पर बने रहें चाहे देश को बेच ही क्यों न दें. आज भी हमारा घाव भरा नहीं है और कहते हैं अंग्रेज जाते जाते हमें बांटकर चले गए. 

हमारे देश में एक बहुत बड़ी क्रान्ति आई है जिसमे युवाओं का बहुत बड़ा योगदान है या हम कह सकते हैं कि उनकी सोच का ही नतीजा है कि आज वे राज्य, जाति, धर्म भूलकर शादी कर रहे हैं. यही सोच ऐसी ही क्रांति एकबार उनके मन में आ जाए तो हमारे देश से ऐसे नेताओं का सफाया हो जायेगा जो हमें बाँटकर देश पर राज्य करना चाहते हैं. उसके लिए देश के युवाओं को एकजुट होकर क्रान्ति लाना होगा. देश को बचाने के लिए राज्य, भाषा, जाति, धर्म के भेद भाव को छोड़ एक जुट होकर कृतसंकल्प होना होगा. पर आज जब हम राज्य, भाषा, धर्म, जाति के नाम पर टुकड़े टुकड़े हो चुके हैं उसके बावजूद भी हम यदि नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ़ नहीं करेगी. हमारे इतिहास से सभ्यता और संस्कृति का नामो निशान मिट जायेगा. 

Friday, August 10, 2012

भाव कुसुम यह कैसे छुपाए.


(आज जब मेरे पोते का जन्म हुआ है तब मैं समझ पाई हूँ कि लोग क्यों कहते हैं "मूल से सूद लोगों को ज्यादा प्यारा होता है". उद्गार के चंद शब्द मन में आए, वह मैं व्यक्त कर रही हूँ.)


" भाव कुसुम यह कैसे छुपाए"

आज दर्श आया आँगन में,
ले अनंत खुशियाँ जीवन में,
 किलकारी से गूँजे कोना,
चाँद सा मुखड़ा सपन सलोना

छवि निहार मगन हो जाऊँ
जो चाहत थी उसमे पाऊँ
ईश कृपा अब द्वारे आया
जीवन का खोया सुख पाया

किसलय रूप देख खो जाऊँ
मुस्कानों पर बलि बलि जाऊँ
हैं चक्षु उसके दिव्यमान
नव खुशियों का है सोपान

दूर मगर तुम ह्रदय समाए
नयनों में पानी भर आए
मन की खुशियाँ बाँध न पाऊँ
आलिंगन को हाथ बढ़ाऊँ

लूं मैं बलैया ऐसे जो तेरे
कहीं नजर लगे न मेरे
कष्ट तुम्हे कभी छू न पाए
भाव कुसुम यह कैसे छुपाए

-कुसुम ठाकुर-

Friday, August 3, 2012

मेरा जीवन मेरी यात्रा.(दूसरी कड़ी)

मुझे अपने बचपन की बहुत कम बातें ही याद हैं, पर कुछ बातें जिसे माँ बराबर दुहराती रहती थी और हमेशा सबको बताती थी, वह मानस पटल पर इस तरह बैठ गए कि अब शायद ही भूल पाऊँ । उनमें कुछ हैं मेरे और मेरे भाई के बीच का प्रेम। 

मेरे बाबूजी उस समय भूटान में थे , मैं और मेरा भाई दोनों ही बहुत छोटे थे । उन दिनों मैं और मेरा भाई जिसे प्यार से हम बौआ कहते हैं और मुझसे १५ महीना छोटा है माँ के साथ दादी बाबा के पास रहते थे । हम दोनों भाई बहनों में बहुत ही प्यार था । बौआ तो फ़िर भी कभी कभी मुझे चिढा देता या मार भी देता था पर मैं उसे बहुत मानती थी । कभी कभी तंग करता तो उसे धमकी देती कि "मैं बाबुजी के पास चली जाऊँगी "। बौआ को यह अच्छा नही लगता था और बाबूजी के पास जाने के नाम सुनते ही कहने लगता "दीदी तुम मत जाओ मैं अब तंग नहीं करूँगा" और तब वह मेरी सारी बातें मान लेता।

मुझे यह तो याद नहीं है कि उस दिन हुआ क्या था पर यह अच्छी तरह से याद है कि बौआ ने मुझे किसी बात को लेकर चिढाया और मैं बहुत रोई । उस दिन भी मैं और दिनों की भाँति उसे धमकी दी कि मैं बाबुजी के पास चली जाऊँगी पर वह नहीं माना। हम दोनों बाहर में खेल रहे थे, बस क्या था मैं वहीं से रोते हुए यह कह कर चल पड़ी कि मैं बाबुजी के के पास जा रही हूँ । बौआ को इसकी उम्मीद न थी कि मैं सच में चल पडूँगी और मुझे जाता देख वह भी मेरे पीछे पीछे बढ़ने लगा। आगे आगे मैं रोती हुई जा रही थी, पीछे -पीछे बौआ "दीदी मत जाओ , बीच बीच में कहता " मेरी दीदी भागी जा रही है "। इस तरह से हम दोनों भाई बहन रोते हुए सड़क के किनारे तक पहुँच रुक गए । वहाँ एक बड़ा सा आम का बागीचा था और उस जगह पता नही क्यों मुझे बहुत डर लगता था , अतः उसके आगे न बढ़ पाई और वहीँ से रो रो कर बाबूजी को पुकारने लगी । मैं रो रो कर कहती "बाबुजी आप जल्दि आ जाईये बौआ मुझे चिढाता है, मारता है"। मैं जितनी बार यह कहती बौआ भी रोते हुए कहता "दीदी मत जाओ अब मैं तुमको कभी नहीं मारुंगा, न चिढाऊँगा घर चलो "। हम दोनों का इस तरह से रोना और मनाना उस रास्ते से जाता हुआ हर व्यक्ति देख रहा था और सब ने मनाने की कोशिश भी की पर हम न माने । अंत में सड़क पर भीड़ जमा हो गयी और उन्ही लोगों में से किसी ने जाकर बाबा दादी को हमारे बारे में बताया और दादी आकार हमें ले गयीं । घर जाने के बाद जब माँ हमसे पूछीं कि क्या हुआ तो मैं कुछ न बोली चुप रह गयी, अंत में बौआ से जब माँ ने पूछा तो वह सारी कहानी बता दिया ।

नेपाल की तराई में होने की वजह से हमारे गाँव में बहुत ठण्ड पड़ती है. प्रतिदिन शाम को माँ जब हमें गर्म कपडे पहनकर तैयार कर देती. गाँव में हमारा दो घर था एक घर में हम सभी रहते थे दूसरे घर को हम घोठा कहते थे, बाबा वहीँ दिन भर रहते थे और खेतीबारी का काम भी वहीँ से सारा होता था. बाबा खाने के समय आते और फिर चले जाते थे. वैसे तो हम हमलोग दिन भर में कई बार घर से घोठा आना जाना करते रहते थे पर शाम में तैयार होकर निश्चित जाते थे. वह शाम मुझे अभी भी याद है, हम दोनों भी बहन तैयार होकर प्रतिदिन की तरह घोठा खुशी ख़ुशी गए. घोठा के के पास एक छोटा पुल टूटा हुआ था जिसे पार करने के लिए एक लकड़ी इस पार से उसपार डाला हुआ था. हम वहां जाकर रुक जाते और आवाज देकर किसी को बुला लेते थे, जो हमें पार करा देता था या बाबा बाहर में होते या देख लेते तो पार करवा देते थे. उस दिन न जाने हमें क्या सूझा हम दोनों भाई बहन खुद ही  पार  करने की सोच आगे बढ़ गए आगे मैं, बौआ मेरे पीछे . हम दोनों हाथ पकड़ उस लकड़ी पर पैर रख आगे बढ़ने लगे. एक दो कदम बढ़ाते ही मैं पीछे मुड़कर बौआ को देखने लगी वह ठीक से आ रहा है या नहीं. दूसरे ही पल छपाक .......हम दोनों पानी में गिर पड़े.  हमारे घर (घोठा) पर कुछ लोग उस समय मौजूद थे उन्हने हमें गिरते देखा और वे दौड़कर हम दोनों को पानी से निकला और घर ले गए. बौआ और मैं दादी के पास जैसे ही पहुंचे दादी ने तुरंत हमें कपडे बदलकर चादर में लपेट दिया और आग के पास बिठा दिया फिर भी हम दोनों कांप रहे थे. जब हमारा कांपना कम हुआ.......दादी मुझसे पूछीं ...."तुम दोनों पानी में कैसे गिर गए " ? मेरी समझ में यह नहीं आया कैसे कहूँ कि मैं बौआ को देखने के लिए मुड़ी थी वह ठीक से आ रहा है या नहीं. 

क्रमशः ............

Saturday, July 28, 2012

कहती है नैना हसूँ अब मैं कैसे.


"कहती है नैना, हसूँ अब मैं कैसे"

बयाँ हाले दिल का करूँ अब मैं कैसे
खलिश को छुपाकर रहूँ अब मैं कैसे 

बुझी कब ख्वाहिश नहीं इल्म मुझको
है तन्हाइयाँ भी सहूँ अब मैं कैसे 

चिलमन से देखी बहारों को जाते
हिले होठ मेरे कहूँ अब मैं कैसे 

हो उल्फत की चाहत ये मुमकिन नहीं
जो दूर चेहरा पढूँ अब मैं कैसे 

 शोखी कुसुम की है पहले से कम क्यूँ 
  कहती है नैना, हसूँ अब मैं कैसे 

-कुसुम ठाकुर-

Friday, July 20, 2012

मेरा जीवन मेरी यात्रा.(पहली कड़ी)


किसी ने सच ही कहा है :"लेखन एक अनवरत यात्रा है  - जिसका न कोई अंत है न मंजिल ", और यह सच भी है। निरंतर अपने भावों को कलम बद्ध करना ही इस यात्रा की नियति होती है। अपने भावों को कलम बद्ध कर व्यक्ति को संतुष्टि के साथ ख़ुशी का अनुभव भी प्राप्त होता है। यह एक ऐसी यात्रा है जहाँ हर रचना एक पड़ाव होता है और पड़ाव पर आ व्यक्ति कभी तो अपने आप को तरोताजा महसूस करता है और अपनी अगली यात्रा को और दूने उत्साह के साथ तय करता है। कभी कभी उस रचना के शब्द जालों में उलझ व्यक्ति थकान का अनुभव भी करता है, फिर भी यात्रा पर निकल पड़ता है। कभी वह इतना खुश होता है कि ख़ुशी से आत्म विभोर हो अपनी अगली यात्रा को ही भूल जाता है। पर कभी तो उसे ऐसा महसूस होता है मानो सारे शब्द ही ख़त्म हो गए। ऐसी स्थिति में वह अपनी पिछली यात्रा को कामयाबी मान खुश होता है और ख़ुशी की उस धूरी पर घूमता रहता है। यों तो लेखन से आत्म तुष्टि कभी नहीं होती पर इस यात्रा में कभी कभी ऐसे मोड़ भी आते हैं जब व्यक्ति आत्म मुग्ध हो उठता है। 

लेखन एक कला है और अपने भावों को शब्दों द्वारा जिवंत बनाना ही लेखकीय कला कहलाता है, जो पाठक के मन में छाप छोड़ जाए, वही सार्थक लेखन कहलाता है। लेखक, कवि अपनी रचनाओं में अपने अनुभव अपनी ज़िन्दगी अपने भावों को व्यक्त करते हैं। वह किसी न किसी रूप में उनके इर्द गिर्द घूमती है। उन्हें यह छूट रहती है कि वह कल्पना की उड़ान में, अपने पात्र के माध्यम से अपने मन में आने वाले ज्वार भांटा, अपने अनुभव, विचार, हर्ष, उल्लास, सपने, अपनी इच्छाओं को चाहे तो काट छांटकर या फिर बढ़ा चढ़ाकर लोगों तक पहुंचा सके। पात्र  तो निमित्त मात्र होते हैं जिसे अपनी कल्पना, अनुभव से व्यापक दायरा प्रदान करना और लोगों का अनुभव बनने की कोशिश ही लेखक का उद्देश्य होता है। परन्तु इसके विपरीत आत्म कथा में यह गुंजाइश नहीं होती .......यहाँ पात्र ही उदेश्य होता है और लक्ष्य भी। यहाँ कल्पना की उड़ान में नहीं उड़ा जा सकता, जो कुछ देखा सुना और जो घटित हुआ उसी का वर्णन "अपनी कहानी" का उदेश्य होता है। अपने बारे में लिखना बहुत ही कठिन होता है। यहाँ न कल्पना की उड़ान में उड़ा जा सकता है न ही किसी से ताल मेल बिठाने की जरूरत होती है। बस अपने इर्द गिर्द  घटित घटनाओं को, अपने अनुभव, अपने मन के भावों को लिखना ही इसका लक्ष्य होता है। 

मैं कभी यह नहीं सोची थी कि मैं कुछ लिखूंगी मैं तो बस हमसफ़र थी एक ऐसे व्यक्तित्व की जिसने अपने जीवन के चंद वर्षों में उतार चढ़ाव भरी जिंदगी को भी बड़े ही सहज, स्वाभाविक ढंग से सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए बिताया। एक बार मुझे किसी पत्रिका के लिए कुछ लिखने को कहा गया। मैं बस इतना ही लिख पाई मैं क्या लिखूं.....मेरी तो लेखनी ही छिन गयी है। पर आज महसूस करती हूँ कि मुझे एक अलौकिक लेखनी और उस लेखनी के रचना की जिम्मेदारी दे दी गयी है। न जाने क्यों आज लिखने की इच्छा हो रही है।  मैं तो केवल अपनी अभिव्यक्ति किया करती थी लेखनी और लिखने वाला तो कोई और था। उसके सामने मैं अपने आप को उसकी सहचरी, शिष्या एवं न जाने क्या क्या समझ बैठती थी। क्या उनकी कभी कोई रचना ऐसी है जो मैंने शुरू होने से पहले तीन चार बार न सुनी हो, या यों कह सकती हूँ कि लगभग याद ही हो जाता था। एक एक पात्र दिमाग मे इस प्रकार बैठ जाते थे कि एक सच्ची घटना सी मानस पटल पर छा जाता था ।

अदभुत कलाकार थे। एक कलाकार मे एक साथ इतने सारे गुण बहुत कम देखने को मिलता है। एक साथ लेखक निर्देशक, कलाकार सभी तो थे वो। मुझे क्या पता कि ऐसे आदमी का साथ ज्यादा दिनों का नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति की भगवान को भी उतनी ही जरूरत होती है जितना हम मनुष्यों को। परन्तु यदि ईश्वर हैं और मैं कभी उनसे मिली तो एक प्रश्न अवश्य पूछूंगी कि मेरी कौन सी गल्ती की सज़ा उन्होंने मुझे दी है। मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, न ही भगवान से कभी कुछ मांगी। मैं तो सिर्फ़ इतना चाही थी कि सदा उनका साथ रहे।

यह शायद किसी को अंदाज़ भी न हो कि मुझे हर पल हर क्षण उनकी याद आती है और मैं उन्ही स्मृतियों के सहारे जिंदा हूँ और अपनी जीवन नैया खिंच रही हूँ। उनका प्यार ही है जो मैं अपने आप को संभाल पाई। इतने कम दिनों का साथ फिर भी उन्होंने जो मुझे प्यार दिया, मुझ पर विशवास किया वह मैं किसे कहूं और कैसे भूलूँ ? मैं कैसे कहूं कि अभी भी मैं उन्हें अपने सपनों में पाती हूँ। मैं जब भी उनकी फोटो के सामने खड़ी हो जाती हूँ उस समय ऐसा महसूस होता है मानो कह रहे हों मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।

उनके जाने के बाद मैं ठीक से रो भी तो नहीं पाई। बच्चों को देखकर ऐसा लगा यदि मैं टूट जाउंगी तो उन्हें कौन सम्भालेगा। परन्तु उनकी एक दो बातें मुझे सदा रुला देतीं हैं। ऊपर से मजबूत दिखने या दिखाने का नाटक करने वाली का रातों के अन्धकार मे सब्र का बाँध टूट जाता है।

एक दिन अचानक बीमारी के दिनों मे इन्होने कहा " मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा"? उनकी यह वाक्य जब जब मुझे याद आती है मैं मैं खूब रोती हूँ। क्यों कहा था ऐसा ? एक दिन अन्तिम कुछ महीने पहले बुखार से तप रहे थे। मैं उनके सर को सहला रही थी । अचानक मेरी गोद मे सर रख कर खूब जोर जोर से रोते हुए कहने लगे इतना बड़ा परिवार रहते हुए मेरा कोई नहीं है। मैं तो पहले इन्हें सांत्वना देते हुए कह गयी कोई बात नहीं मैं हूँ न आपके साथ सदा। परन्तु इतना बोलने के साथ ही मेरे भी सब्र का बाँध टूट गया और हम दोनों एक दूसरे को पकड़ खूब रोये। यह जब भी मुझे याद आती है मैं विचलित हो जाती हूँ। मुझे लगता है उनके ह्रदय मे कितना कष्ट हुआ होगा जो ऐसी बात उनके मुँह से निकली होगी।

वैसे मैं शुरू से ही भावुक हूँ परन्तु इनकी बीमारी ने जहाँ मुझे आत्म बल दिया वहीँ मुझे और भावुक भी बना दिया। मैं तो कोशिश करती कि कभी न रोऊँ पर आंसुओं को तो जैसे इंतज़ार ही रहता था कि कब मौका मिले और निकल पड़े। इनके हँसाने चिढाने पर भी मुझे रोना आ जाता था। एक दिन इसी तरह कुछ कह कर चिढा दिया और जब मैं रोने लगी तो कह पड़े तुम बहुत सीधी हो तुम्हारा गुजारा कैसे चलेगा। शायद उन्हें मेरी चिंता थी कि उनके बाद मैं कैसे रह पाउंगी। उनके हाव भाव से यह तो पता चलता था कि वो मुझे कितना चाहते थे पर अभिव्यक्ति वे अपनी अन्तिम दिनों मे करने लगे थे जो कि मुझे रुला दिया करती थी। उनके सामने तो मैं हंस कर टाल जाती थी पर रात के अंधेरे मे मेरे सब्र का बाँध टूट जाता था और कभी कभी तो मैं सारी रात यह सोचकर रोती रहती कि अब शायद यह खुशी ज्यादा दिनों का नहीं है।

मुझे वे दिन अभी भी याद है। मैं उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ । वह तो मेरे लिए सबसे अशुभ दिन था। वेल्लोर मे जब डॉक्टर ने मेरे ही सामने इनकी बीमारी का सब कुछ साफ साफ बताया था और साथ ही यह भी कहा कि इस बीमारी में पन्द्रह साल से ज्यादा जिंदा रहना मुश्किल है। यह सुनने के बाद मुझ पर क्या बीती यह मेरे भी कल्पना के बाहर है। आज मैं उसका वर्णन नहीं कर सकती। मैं क्या कभी सपने मे भी सोची थी कि उनका साथ बस इतने ही दिनों का था। उस रात उन्होंने तो कुछ नहीं कहा पर उनके हाव भाव और मुद्रा सब कुछ बता रहे थे। मैं उनके नस नस को पहचानती थी, या यों कह सकती हूँ कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानते थे। उस रात बहुत देर से ही, ये तो सो गए पर मुझे ज़रा भी नींद नहीं आयी और सारी रात रोते हुए ही बीत गया।

लोग कहतें हैं कि भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है, पर मैं क्या कहूं मेरे तो समझ में ही कुछ नहीं आता? मैं कैसे विशवास करुँ कि उसने जो मेरे साथ किया वह सही है? मैं तो यही कहूँगी कि भगवान किसी को ज्यादा नहीं देता। उसे जब यह लगने लगता है कि अब ज्यादा हो रहा है तो झट उसके साथ कुछ ऐसा कर देता है जिससे फिर संतुलित हो जाता है। मेरे साथ तो भगवान ने कभी न्याय ही नहीं किया। आज तक मेरी एक भी इच्छा भगवान ने पूरी नहीं की या फिर यह कि मैंने एक ही इच्छा की थी, वह भी भगवान ने पूरी नहीं की। मैंने भगवान से सिर्फ़ इनका साथ ही तो माँगा था? पता नहीं क्यों मुझे शुरू से ही अर्थात बचपन से ही अकेलेपन से बहुत डर लगता था। ईश्वर की ऐसी विडंबना कि बचपन मे ही मुझे माँ से अलग रहना पड़ा। बाबुजी का तबादला गया से जनकपुर फिर अरुणाचल हो जाने की वजह से मुझे उनसे दूर अपनी मौसी चाचा के पास रहना पड़ा। तब से लेकर शादी तक माँ से अलग मौसी के पास रही। उस समय जब मुझे माँ के पास अच्छा लगता था उससे अलग रहना पड़ा। शादी के बाद लड़कियों को अपने पति के पास रहना अच्छा लगता है। उस समय मुझे कई कारणों से अपनी माँ के पास कई सालों तक रहना पड़ा। पहले माँ के पास छुट्टियों मे जाने का इंतजार करती थी बाद मे इनके आने का इंतजार करने लगी। इसी तरह दिन कटने लगा और एक समय आया जब हम साथ रहने लगे। जो भी था चाहे पैसे की तंगी हो या जो भी हम अपने बच्चों के साथ खुश थे और हमारा जीवन अच्छे से व्यतीत हो रहा था। अचानक भगवान ने फिर ऐसा थप्पड़ दिया कि उसकी चोट को भुलाना नामुमकिन है। आज हमारे पास पैसा है घर है बाकी सभी कुछ है पर नहीं है तो साथ। 

क्रमशः ...........

Friday, July 13, 2012

और एक प्यास है मन


मेरी आज की रचना उस ख़ास व्यक्ति के लिए जिसने मुझे इस काबिल बनाया कि मैं मन में आये भावों को आज शब्दों में अभिव्यक्त कर सकूँ .

"और एक प्यास है मन"

ऐ चाँद तुमसे पूछूं, फिर क्यूँ उदास है मन
कहने को दूर तन से, पर उनके पास है मन

किस हाल में है प्रीतम, सन्देश कैसे भेजूं
दिल में तड़प मिलन की, और एक प्यास है मन

पूनम की लम्बी रातें, यादों में उनकी बातें
छू जातीं उनकी नज़्में, मेरा जो ख़ास है मन

अब रागनी कहाँ वो, जो गीत गुनगुनाऊं
यादों में उनका आना, मुखरित सुहास है मन

आँखें छलक रहीं हैं, पर मुस्कुराता चेहरा
कुम्हलाये ना कुसुम का, हरदम सुवास है मन

-कुसुम ठाकुर-

Thursday, June 21, 2012

हम कबतक क़ानून और न्यायपालिका को पूजते रहेंगे ?


हमारे देश की न्याय पालिका कितनी निकम्मी है वह हम सबको मालूम है.  पैसा और ताकत के बलपर यहाँ कितने भी बड़े जुर्म से बाहर निकला जा सकता है.  बड़े से बड़ा जुर्म करके भी गुनहगार आराम से बरी हो जाते हैं . वहीँ बिना किसी गुनाह के किसी को सज़ा मिल जाती है. हमारा न्याय प्रणाली ऐसा है कि गुनहगार पैसे और शक्ति के बल पर या तो बच निकलता है या साबित जबतक हो पाए उसके पहले ही वह मर जाता है।

हमारे यहाँ सरकारी नौकरी में प्रावधान है कि सरकारी अधिकारी को चुनाव के समय  निर्वाचन अधिकारी बना दिया जाता है . कई ऐसे मामले होते हैं जब अधिकारियों को मांग पर तहकीकात के समय भी जाना पड़ता है. यह भी सरकारी नौकरी का एक हिस्सा होता है . अधिकारी उस समय मना नहीं कर सकते . यहाँ भी जिनकी पहुँच होती है वह तो इन सब झंझटों में नहीं पड़ते क्यों कि झंझट सिर्फ  जाने का नहीं है उसके बाद सालों साल पिसते रहो बिना किसी गलती के गवाही देते रहो. 

ऐसी ही कहानी एक  ईमानदार केन्द्रीय सरकारी अफसर श्री एस एन झा की है . जिन्होंने अपनी पूरी उम्र ईमानदारी से नौकरी की . समय का पाबंद, पांच दस  मिनट भी देरी से दफ्तर जाना उनके सिद्धांत के खिलाफ था. जहाँ भी सरकार ने भेजा सभी जगह बिना किसी शिकवा शिकायत के परिवार ले चले जाते कोई पैरवी का तो सवाल ही नहीं था. आज  82 की उम्र में उन्हें सिर्फ इसलिए अदालत के चक्कर लगाने पड़  रहे हैं क्योंकि वो एक सरकारी तहकीकात में सरकारी मांग पर सीबीआई के एक छापे में मौजूद थे. 

यह मामला सन 1986 की है, धनबाद में  बीसीसीएल के किसी कर्मचारी ने शिकायत की थी. एक  बीसीसीएल का डॉक्टर उससे ऑपरेशन करने का पैसा मांग रहा था. सीबीआई ने छापा मारा और रंगे हाथ  बीसीसीएल कर्मचारी से डॉक्टर को घूस लेते पकड़ लिया. उस  तहकीकात में झा साहब भी सरकार की मांग पर मौजूद थे. डॉक्टर पर मामला दर्ज हुआ  और पहली बार उस मामले की सुनवाई 2009 में हुई. उस समय तक झा साहब को अवकाश प्राप्त किये 21-22 वर्ष हो गए थे. उस दिन से आजतक  बेचारे अदालत की चक्कर गवाही देने के लिए लगा रहे हैं. इतना ही नहीं हर बार अदालत ही नहीं शहर भी बदल जाता है. बेचारे 82 की उम्र में हर बार ईमानदारी से अदालत समय पर पहुँच जाते हैं पर अभी तक मात्र एक बार ही गवाही दर्ज हुआ है. हर बार सम्मन  आता है तो यही कहते हैं इस बार यह मामला ख़त्म हो जायेगा . मैंने कोई गलती तो नहीं की बस वहां मौजूद था इसलिए सरकार की और से गवाही तो देनी होगी मेरी जिम्मेदारी होती है। उनके बेटे बेटियां उन्हें समझाकर थक गए पर वो मानते ही नहीं, कहते हैं यह भी सरकार और देश के प्रति जिम्मेदारी है निभाना तो पड़ेगा. अब उन्हें दिखता भी कम है सुनाई कम पड़ता है . पर सरकार की निति और न्यायपालिका मालूम नहीं उन्हें उनकी इमानदारी की यह कैसी सजा दे रही है .

यह एक ऐसी कहानी है जो हमारे देश के लिए नयी बात तो नहीं परन्तु मैं जब सुनी तो मुझे इस देश की जनता पर खुद पर तरस आने लगी कि आखिर हम कबतक ऐसी कानून और न्याय पालिका को पूजते रहेंगे. क्या कभी वह दिन आएगा जब हमारे देश में भी सच्चा न्याय मिलेगा और बेकसूरों को परेशान  नहीं किया जायेगा . 


Wednesday, May 30, 2012

क्या पाया यह मत बोल !



"क्या पाया यह मत बोल"

कल-कल करती निशदिन नदियाँ,
अंक में अपने भर लेती हैं,
चाहे पत्थर हो या फूल,
क्या पाया यह मत बोल ।

काँटों में रहकर मुस्काना ,
मुरझाकर भी काम में आना,
कुसुम न हो कमजोर,
क्या पाया यह मत बोल ।

दिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
फिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।

हम स्वतंत्र आए जग में जब
और अकेला ही जाना अब
करे बेड़ियाँ कमजोर
क्या पाया यह मत बोल


मूल से सूद सभी को प्यारा
खुशियाँ जो मिलती दोबारा
अब मिले न ख़ुशी का ओर
क्या पाया यह मत  बोल

-कुसुम ठाकुर- 

Thursday, May 17, 2012

उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है ?


"उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है"

जो आता है जाता क्यूँ है ?
और बेबस इतने पाता क्यूँ हैं ? 

 सज़ा मिले सत्कर्मों की 
यह सोच हमें सताता क्यूँ है ? 

सच्चाई की राह कठिन है 
उसपर चलकर  रोता क्यूँ है ? 

है राग वही रागनी भी वही 
फिर गीत नया भाता क्यूँ है ? 

ममता तो अनमोल है फिर 
  वंचित उससे रहता क्यूँ है ? 

माली सींचे जिस सुमन को   
उसे तोड़ खुश होता क्यूँ है ?

प्यार कुसुम सच्चा जो कहो 
प्रतिबन्ध लगाता क्यूँ है ?   

-कुसुम ठाकुर-

Wednesday, May 9, 2012

धोखा सगा दिया


"धोखा सगा दिया"

कसूर था क्या मेरा, फिर क्यूँ  सजा दिया
सोई थी आस क्यों फिर, उसको जगा दिया 

कहने को कुछ न था, सोहबत नसीब थी 
जब साथ ढूँढती हूँ तनहा बना दिया 

जो ढूँढती निगाहें, उजड़ा हुआ चमन है
सूखा हुआ गुलाब जैसे, मुझको चिढ़ा दिया 

चाहत किसे कहें हम, समझी नही थी तब 
चाहत जगी तो यारों, किस्मत दगा दिया 

मझधार में कुसुम है, पतवार थामकर 
अब जाऊँगी किधर को , धोखा सगा दिया

- कुसुम ठाकुर- 



Tuesday, April 17, 2012

वक्त भी कब वक्त देता


"वक्त भी कब वक्त देता" 

आज कहने को बहुत, जो अश्क में ही बह गए 
अपनी खुशियाँ कह न पाऊँ, उलझनों में रह गए  

गम को सींचें क्यों भला, जब दूर थीं खुशियाँ खड़ीं 
वक्त तो अब है मेरा जो, सारे गम को सह गए 

वक्त भी कब वक्त देता, मात दो उस वक्त को 
तिश्नगी ऐसी कि अरमां, वक्त के संग ढह गए  

डूबना हो याद में या फिर किनारे बैठकर 
स्निग्ध-सी मुस्कान में ही भाव सारे कह गए

इक समर्पण प्यार है, या खेल फिर शह मात का 
दूर ये न हो कुसुम से, जैसे कह कर वह गए

-कुसुम ठाकुर- 
  



शब्दार्थ :
तिशनगी - अभिलाषा, इच्छा, प्यास , तृष्णा 

Tuesday, March 20, 2012

ऐसा भी मन पावन देखा



ऐसा भी मन पावन देखा "

  कैसे कह दूँ ख्वाब न देखा
आज करूँ कैसे अनदेखा


न वो बातें, न वो रिश्ते
फिर भी लगता है मन देखा


तन्हाई भी साथ रहे जब
ऐसा क्यूँ लगता घन देखा


साथ चले थे बरसों पहले 
ऐसा भी मन पावन देखा


हरियाली का पता नहीं है
किस्मत से वह सावन देखा  


-कुसुम ठाकुर- 

Sunday, February 5, 2012

नैनो से बरसात क्यों


(आज की रचना उस प्रिय व्यक्ति के लिए है जिन्होंने मुझे इस काबिल बनाया कि आज मैं अपने भावों को लिख पाऊं)

नैन से बरसात क्यों?
***************
कह सकूं मैं आज फिर से ना कहूँ वो बात क्यों?
आज फिर छलकीं हैं, खुशियाँ नैन से बरसात क्यों?

बात कर इंसानियत की पहले तू इंसान बन
तुम ख़ुशी गर दे ना पाए बेवजह आघात क्यों?

गीत विस्मृत गुनगुनाऊं, अब भी वह अनुराग है
अपने सुर में गीत वो गाऊँ बदल जज्बात क्यों?

रिश्ते होते जो भी नाजुक बाँध उसको प्यार से
जिन्दगी कितने दिनों की बात से फिर घात क्यों?

सींचता है सोच माली गुल से ही गुलजार हो
जो कुसुम खुशबू लुटाए, तोड़ते बेबात क्यों?

© कुसुम ठाकुर