"क्या पाया यह मत बोल"
कल-कल करती निशदिन नदियाँ,
अंक में अपने भर लेती हैं,
चाहे पत्थर हो या फूल,
क्या पाया यह मत बोल ।
काँटों में रहकर मुस्काना ,
मुरझाकर भी काम में आना,
कुसुम न हो कमजोर,
क्या पाया यह मत बोल ।
दिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
फिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।
हम स्वतंत्र आए जग में जब
और अकेला ही जाना अब
करे बेड़ियाँ कमजोर
क्या पाया यह मत बोल
मूल से सूद सभी को प्यारा
खुशियाँ जो मिलती दोबारा
अब मिले न ख़ुशी का ओर
क्या पाया यह मत बोल
-कुसुम ठाकुर-
अच्छी रचना के लिए बधाई
ReplyDeleteसच्ची बेहतरीन अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteअच्छी लगी रचना !!
है प्रवाह संग रचना प्यारी
ReplyDeleteकुसुम की खुशबू जैसी न्यारी
ह्रदय सुमन का दिया है खोल
जो भी पाया जल्दी बोल
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
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सुन्दर रचना!
ReplyDeleteVery well written.
ReplyDeletevery nice @heart touching poem
ReplyDeleteFirst time i steeped in here....nice post
ReplyDeleteदिन तो प्रतिदिन ही ढलता है ,
ReplyDeleteफिर भी तेज़ कहाँ थमता है
यह राज न पाओ खोल ,
क्या पाया यह मत बोल ।
वाह!!! बहुत ही सुंदर भाव संयोजन किया है आपने बहुत खूब।