मालुम नहीं मैं इसे क्या कहूँ लगाव या बंधन। शादी के एक वर्ष बाद जब मैं जमशेदपुर आयी थी उस समय सोची भी नहीं थी कि जमशेदपुर से इतनी सारी यादें जुड़ जाएँगी। कुछ ऐसी यादें जो मुझे खुशियाँ देंगीं कुछ दर्द का एहसास कराएंगी और कुछ तो जीवन भर सालती रहेंगी। जीवन का सबसे ज्यादा समय इस लौह नगरी में बिताउंगी यह भी तो नहीं जानती थी। पर होता वही है जो उसको मंज़ूर हो। किसके नसीब में कहाँ की मिट्टी है यह तो किसी को नहीं पता पर आज जो बंधन या लगाव मुझे जमशेदपुर से है वह मैं भी नहीं जानती क्यों?
शादी के एक वर्ष बाद जब मैं अपने बाबुजी के साथ जमशेदपुर आयी थी उस समय समय मेरे पति पढ़ रहे थे। सोची कुछ महीने बाद द्विरागमन (गौना ) हो जाएगा और तब मैं अतिथि की तरह कभी कभी आउंगी वह भी जब तक बाबुजी की बदली कहीं और नहीं हो जाती। यह किसको पता था कि बाबुजी की तो बदली हो जायेगी, मैं ही यहाँ रह जाउंगी। यहाँ तक कि मेरे दोनों बच्चों का जन्म भी यहीं होगा।
बाबुजी की बदली होने से कुछ महीने पहले मेरे पति श्री लल्लन प्रसाद ठाकुर को, जो पहले गंगा ब्रिज पटना में कार्यरत थे, टाटा स्टील में नौकरी मिल गयी। उसी वर्ष मेरे छोटे बेटे का जन्म हुआ था। बाबुजी तो राँची चले गए, हम जमशेदपुर ही रह गए। पहली बार अकेले वह भी दो दो बच्चों को लेकर रहने का मौका मिला। उसके पहले एक बार कुछ दिनों के लिए मैं पटना में अपने पति के साथ रही थी। मेरा बड़ा बेटा उस समय बहुत छोटा था।
कैसे समय बीते, पता ही नहीं चला। बड़ा बेटा पुत्तु (भास्कर)स्कूल जाने लगा मुझे उसके स्कूल का पहला दिन अब भी वैसे ही याद है। पास के ही एक नर्सरी स्कूल में उसका नाम लिखवाई थी । प्रतिदिन मेरे पति ऑफिस जाते समय उसे स्कूल छोड़ आते ओर मैं छुट्टी समय उसे लेने जाती थी। एक दिन संयोग से मेरा एवं मेरे पति, दोनों की घड़ी खरब हो गयी। मैं हर दिन सुबह नहलाने के बाद विक्की (छोटे बेटे)को सुला देती और जब पुत्तु के छुट्टी का समय होता तब तक वह उठ जाता था। उस दिन विक्की कुछ देरी से सोया, मैं काम में व्यस्त थी समय का भान ही नहीं हुआ। अचानक ध्यान आया और विक्की को गोद में लेकर जल्दी जल्दी स्कूल की ओर चल पड़ी। मैं जैसे ही स्कूल की ओर जाने के लिए मुड़ी अचानक मेरे कानों में पुत्तु के रोने की आवाज आयी और मेरी नजर सामने वाली सड़क पर गयी। उस सड़क से पुत्तु रोता हुआ दौडा चला आ रहा था साथ में उसकी अध्यापिका थीं। मैं अपने स्थान पर ही खड़ी हो गयी। पुत्तु दौड़ता हुआ मेरे पास आकर मुझसे बिल्कुल लिपट गया। मै उसे लेकर घर आ गयी और कुछ देर बाद उससे पूछी" तुम रो क्यों रहे थे? " उसने बड़े ही भोलेपन से जवाब दिया " मैं तो सोचा तुम मुझे छोड़, विक्की के साथ कहीं जा रही थी। लेने क्यों नहीं आयी"? मुझे भीतर से अपने आप पर बहुत ही गुस्सा आया। उस बाल बोध की कही बातें आज भी मुझे याद हैं और जब भी अकेली होती हूँ बच्चों द्वारा कही गयीं इस तरह की बातें सोच सोच कर अपने आप ही खुश होती हूँ। ऐसा लगता है मानो आज की ही घटना हो।
समय की रफ़्तार इतनी तेज़ होती है कि पता ही नहीं चला कब विक्की भी स्कूल जाने लायक हो गया। बचपन से ही मेरे पति को लिखने एवं नाटक का शौक था और स्कूल कॉलेज की सारी नाट्य एवं कला की गतिविधियों में सक्रीय रहे। जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो कलाकार मन ज्यादा दिनों तक चुप न बैठ पाया और वे अपनी नाट्य गतिविधियों में जुट गए। शुरुआत तो उन्होंने की "टाटा स्टील" के सुरक्षा नाटक से पर वह शौक सिनेमा तक पहुँच गया।
कवि कोकिल विद्यापति (तृतीय)
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Kusum Thakur
on Wednesday, July 22, 2009
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कवि कोकिल विद्यापति
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कवि कोकिल विद्यापति
कहा जाता है कि महा कवि विद्यापति की भक्ति एवं पद की माधुर्य से प्रसन्न हो" त्रिभुवन धारी शंकर"
उनके यहाँ उगना(नौकर) के रूप में उनकी सेवा की।
विद्यापति को उगना जंगल में मिला था और उस दिन से वह विद्यापति की चाकरी करने लगा। एक बार भगवन शंकर उगना के साथ जंगल के रास्ते कहीं जा रहे थे। उन्हें जोरों की प्यास लगी। भगवान शंकर ने पानी पीने की इच्छा उगना के सामने रखी और कहा इस वन प्रदेश में कुँआ और पोखरा तो कहीं मिलेगा नहीं। उगना यह सुनते ही कह उठा कि उसे वहां का कुआँ देखा हुआ था और वह पानी लेने चला गया। कवि जब भी उससे कुछ लेने कहते वह तुंरत लाकर दे देता था जिससे कवि को बहुत आश्चर्य होता। उस दिन पानी पीकर कवि समझ गए कि वह तो गंगा का पानी था और उगना से इसकी चर्चा की। उगना के रूप में भगवन शंकर को तब असली रूप में आना पड़ा। उस समय उन्होंने विद्यापति से वचन लिया कि वे किसी को उनका असली रूप नहीं बताएँगे और जिस दिन बता देंगे उस दिन वह अंतर्ध्यान हो जायेंगे।
एक दिन उनकी धर्मपत्नी ने उगना को कुछ लाने को कहा पर उगना ने लाने में बहुत देर कर दी। ज्यों ही उगना उनके सामने आया वह उसे जलावन वाले लकडी लेकर मारने दौडीं, यह देख विद्यापति के मुहं से निकल गया "यह क्या कर रही हो साक्षात शिव को मार रही हो"। इतना सुनना था कि शिव जी अंतर्ध्यान हो गए। तत्पश्चात कवि जंगल जंगल भटक व्याकुल हो गाते :
उनके यहाँ उगना(नौकर) के रूप में उनकी सेवा की।
विद्यापति को उगना जंगल में मिला था और उस दिन से वह विद्यापति की चाकरी करने लगा। एक बार भगवन शंकर उगना के साथ जंगल के रास्ते कहीं जा रहे थे। उन्हें जोरों की प्यास लगी। भगवान शंकर ने पानी पीने की इच्छा उगना के सामने रखी और कहा इस वन प्रदेश में कुँआ और पोखरा तो कहीं मिलेगा नहीं। उगना यह सुनते ही कह उठा कि उसे वहां का कुआँ देखा हुआ था और वह पानी लेने चला गया। कवि जब भी उससे कुछ लेने कहते वह तुंरत लाकर दे देता था जिससे कवि को बहुत आश्चर्य होता। उस दिन पानी पीकर कवि समझ गए कि वह तो गंगा का पानी था और उगना से इसकी चर्चा की। उगना के रूप में भगवन शंकर को तब असली रूप में आना पड़ा। उस समय उन्होंने विद्यापति से वचन लिया कि वे किसी को उनका असली रूप नहीं बताएँगे और जिस दिन बता देंगे उस दिन वह अंतर्ध्यान हो जायेंगे।
एक दिन उनकी धर्मपत्नी ने उगना को कुछ लाने को कहा पर उगना ने लाने में बहुत देर कर दी। ज्यों ही उगना उनके सामने आया वह उसे जलावन वाले लकडी लेकर मारने दौडीं, यह देख विद्यापति के मुहं से निकल गया "यह क्या कर रही हो साक्षात शिव को मार रही हो"। इतना सुनना था कि शिव जी अंतर्ध्यान हो गए। तत्पश्चात कवि जंगल जंगल भटक व्याकुल हो गाते :
उगना रे मोर कतय गेलाह।
कतय गेलाह शिव किदहु भेलाह।।
भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जोहि हेरि आनि देल हंसि उठलाह।।
जे मोर कहताह उगना उदेस।
ताहि देवओं कर कंगना बेस। ।
नंदन वन में भेंटल महेश।
गौरी मन हखित मेटल कलेश। ।
विद्यापति भन उगना सों काज।
नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज। ।
कतय गेलाह शिव किदहु भेलाह।।
भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जोहि हेरि आनि देल हंसि उठलाह।।
जे मोर कहताह उगना उदेस।
ताहि देवओं कर कंगना बेस। ।
नंदन वन में भेंटल महेश।
गौरी मन हखित मेटल कलेश। ।
विद्यापति भन उगना सों काज।
नहि हितकर मोर त्रिभुवन राज। ।
कवि विद्यापति की इन पाक्तियों में व्याकुलता और शिव जी को खोने का दुःख भरा हुआ है। कवि कहते हैं :
हे मेरे उगना तुम कहाँ चले गए। हे शिव यह क्या हो गया, कहाँ चले गए। भांग नहीं है इसलिए शिव मुझसे रूठ गए हैं। ढूंढ कर ला दूँगा तो फिर खुश हो जायेंगे। मुझे तो महेश नंदन वन में मिले थे और उनके आने से गौरी का मन हर्षित हो उठा था सारे क्लेश दूर हो गए थे। अंत में विद्यापति कहते हैं, उगना से काम करवाकर मैंने त्रिभुवन के राजा के साथ अच्छा नहीं किया।
हे मेरे उगना तुम कहाँ चले गए। हे शिव यह क्या हो गया, कहाँ चले गए। भांग नहीं है इसलिए शिव मुझसे रूठ गए हैं। ढूंढ कर ला दूँगा तो फिर खुश हो जायेंगे। मुझे तो महेश नंदन वन में मिले थे और उनके आने से गौरी का मन हर्षित हो उठा था सारे क्लेश दूर हो गए थे। अंत में विद्यापति कहते हैं, उगना से काम करवाकर मैंने त्रिभुवन के राजा के साथ अच्छा नहीं किया।
कवि कोकिल विद्यापति(द्वितीय)
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Kusum Thakur
on Friday, July 17, 2009
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कवि कोकिल विद्यापति
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कवि कोकिल विद्यापति
कवि विद्यापति ने सिर्फ़ प्रार्थना या नचारी की ही रचना नहीं की है अपितु उनका प्रकृति वर्णन भी उत्कृष्ठ है। बसंत और पावस ऋतु पर उनकी रचनाओं से मंत्र मुग्ध होना आश्चर्य की बात नहीं। गंगा स्तुति तो किसी को भाव विह्वल कर सकता है। ऐसा महसूस होता है मानों हम गंगा तट पर ही हैं।
गंगा स्तुति
बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे। ।
कर जोरि बिनमओं विमल तरंगे।
पुन दरसन दिय पुनमति गंगे। ।
एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माय पाय तुअ पानी । ।
कि करब जप तप जोग धेआने।
जनम कृतारथ एक ही सनाने। ।
भनहि विद्यापति समदओं तोहि।
अंत काल जनु बिसरह मोहि। ।
उपरोक्त पंक्तियों मे कवि गंगा लाभ को जाते हैं और वहां से चलते समय माँ गंगा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि :
हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।
कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।
अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।
हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।
कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।
अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।
संस्मरण(दूसरी कड़ी)
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Kusum Thakur
on Thursday, July 16, 2009
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संस्मरण
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मैं जिस दिन पन्द्रह साल की हुई उसके ठीक दूसरे दिन मेरी शादी हो गयी। शादी का मतलब क्या होता है यह भी तो मैं नहीं जानती थी। मुझे तो यह यह भी पता नहीं था कि दीदी की शादी के तुंरत बाद मेरी भी शादी हो जायेगी। मैं तो मैट्रिक की परीक्षा देकर खुशी खुशी अपनी दोस्तों को यह कह कर गाँव गयी थी कि अपने चाचा की बेटी यानि अपनी बड़ी बहन बहन की शादी में जा रही हूँ खूब मस्ती करूंगी। मैं उससे पहले कभी शादी नहीं देखी थी। मैं अपने सारे भाई बहनों में सबसे बड़ी हूँ पर मुझे बचपन में बड़ी बहन का बहुत शौक था। जब भी मेरी सहेलियां अपनी बड़ी बहन की बातें करतीं तो मैं दुखी हो जाती जो मेरी बड़ी बहन नहीं हैं।
मेरे चाचा की शादी मेरी मौसी से हुई है। मैं उन्ही के पास रह कर राँची में पढ़ रही थी, कारण मेरे बाबुजी उस समय अरुणाचल में पदासीन थे और वहां केवल छोटे बच्चों के लिए ही स्कूल थी। हम छः भाई बहनों में से मैं और मेरा बड़ा भाई चाचा के पास राँची रह गए और बाकी तीन बहनें और सबसे छोटा भाई बाबुजी माँ के साथ अरुणाचल चले गए।
दीदी की शादी में मैं अपने चाचा मौसी के साथ गयी थी और माँ बाबुजी अरुणाचल से आए थे। मुझे इस बात की बहुत खुशी थी कि पहली बार किसी की शादी वह भी अपने घर में देखूंगी, साथ ही अपने माँ बाबुजी और सभी भाई बहनों से मिलूंगी यह सोचकर खुशी और दुगनी हो रही थी। शादी के तुंरत बाद बाबुजी और चाचा कहीं चले गए। कहाँ वह तो मुझे किसी ने बताया भी नहीं और मैं अपने भाई बहनों और सहेलियों में इतना व्यस्त थी कि जानने की इच्छा भी नही हुई। खूब आम खाती और खूब खेलती थी।
वैसे तो हम जब भी जाते तो दादी हमे बहुत मानतीं थीं पर इस बार मुझे कुछ ज्यादा ही मानतीं थी। एक दिन सुबह जब मेरी नींद खुली और अपने कमरे से बाहर आयी तो कुछ अजीब ही लगा। घर में सभी व्यस्त थे दादी सब को डांट कर कह रही थीं जल्दी जल्दी सब काम करो अब समय नहीं है। मुझे देखते ही बोल पड़ीं यह देखो अभी तक मेरी पोती फ्राक में ही घूम रही है। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं धत बोल कर वहां से चली गयी। मुझे लगा शायद कल मेरा जन्मदिन है और दादी पहले से ही मुझे चिढाने के लिय कह रही थीं जन्मदिन के दिन इस बार साड़ी पहनना पड़ेगा इसलिए ऐसा कह रहीं हैं।
अचानक चाचा को बाबा के साथ आँगन में घुसते हुए देखी। चाचा की नज़र ज्यों ही मुझपर पड़ी तुंरत कह उठे अरे मिठाई खिलाओ तुम्हारी शादी ठीक करके आया हूँ। मैं तो बिल्कुल आवाक रह गयी। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था क्या कहूँ ? कुछ कहना भी चाहिए या नहीं? यह खुशी की बात है या........? हाँ एक बात अवश्य दिमाग में आया और मैं दुखी हो गयी। मैं तो अपनी दोस्तों को कह कर आयी थी कि मैं अपनी बहन की शादी में जा रही हूँ। वह भी इतराते हुए कही थी क्यों कि अक्सर किसी न किसी सहेली को अपने भाई बहनों की शादी में जाना होता था और जब वे मुझे सुनातीं तो बहुत बुरा लगता था। मैं शादी के विषय में क्या सोचूंगी, सोचने लगी अपनी सहेलियों को क्या कहूँगी। वे तो मेरा मजाक बना देंगीं कि अपनी बहन की शादी का कह कर गयी और अपनी ही शादी कर आ गयी। मैं सारी रात यही सोचती रह गयी। माँ को भी मैं खुश नहीं देखी।
चाचा सिर्फ़ ख़बर करने आए थे शादी की तैयारी तो यहाँ दादी बाबा को ही करना था। चाचा दिन में खाने के बाद चले गए। दूसरे दिन सुबह बाबुजी आए और उनको चाय वगैरह देने के बाद माँ को पूछते सुनी लड़का क्या करता है। बाबुजी ने और क्या कहा वह तो नहीं सुनी पर यह सुनी कि लड़का इंजीनियरिंग में पढ़ता है। बाबुजी से बात करने के बाद से माँ भी खुश दिखीं।जन्मदिन के दिन दादी की ही बात रही और मुझे शाम में थोडी देर के लिए साड़ी पहनना पडा। जन्मदिन के दिन सुबह सुबह बाबुजी भी आ गए। बाबुजी जिस दिन आए उसके दूसरे दिन मेरी शादी खूब धूम धाम से हो गयी। मेरे पति उस समय इंजीनियरिंग में पढ़ते थे।
क्रमशः ........
मेरे चाचा की शादी मेरी मौसी से हुई है। मैं उन्ही के पास रह कर राँची में पढ़ रही थी, कारण मेरे बाबुजी उस समय अरुणाचल में पदासीन थे और वहां केवल छोटे बच्चों के लिए ही स्कूल थी। हम छः भाई बहनों में से मैं और मेरा बड़ा भाई चाचा के पास राँची रह गए और बाकी तीन बहनें और सबसे छोटा भाई बाबुजी माँ के साथ अरुणाचल चले गए।
दीदी की शादी में मैं अपने चाचा मौसी के साथ गयी थी और माँ बाबुजी अरुणाचल से आए थे। मुझे इस बात की बहुत खुशी थी कि पहली बार किसी की शादी वह भी अपने घर में देखूंगी, साथ ही अपने माँ बाबुजी और सभी भाई बहनों से मिलूंगी यह सोचकर खुशी और दुगनी हो रही थी। शादी के तुंरत बाद बाबुजी और चाचा कहीं चले गए। कहाँ वह तो मुझे किसी ने बताया भी नहीं और मैं अपने भाई बहनों और सहेलियों में इतना व्यस्त थी कि जानने की इच्छा भी नही हुई। खूब आम खाती और खूब खेलती थी।
वैसे तो हम जब भी जाते तो दादी हमे बहुत मानतीं थीं पर इस बार मुझे कुछ ज्यादा ही मानतीं थी। एक दिन सुबह जब मेरी नींद खुली और अपने कमरे से बाहर आयी तो कुछ अजीब ही लगा। घर में सभी व्यस्त थे दादी सब को डांट कर कह रही थीं जल्दी जल्दी सब काम करो अब समय नहीं है। मुझे देखते ही बोल पड़ीं यह देखो अभी तक मेरी पोती फ्राक में ही घूम रही है। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। मैं धत बोल कर वहां से चली गयी। मुझे लगा शायद कल मेरा जन्मदिन है और दादी पहले से ही मुझे चिढाने के लिय कह रही थीं जन्मदिन के दिन इस बार साड़ी पहनना पड़ेगा इसलिए ऐसा कह रहीं हैं।
अचानक चाचा को बाबा के साथ आँगन में घुसते हुए देखी। चाचा की नज़र ज्यों ही मुझपर पड़ी तुंरत कह उठे अरे मिठाई खिलाओ तुम्हारी शादी ठीक करके आया हूँ। मैं तो बिल्कुल आवाक रह गयी। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था क्या कहूँ ? कुछ कहना भी चाहिए या नहीं? यह खुशी की बात है या........? हाँ एक बात अवश्य दिमाग में आया और मैं दुखी हो गयी। मैं तो अपनी दोस्तों को कह कर आयी थी कि मैं अपनी बहन की शादी में जा रही हूँ। वह भी इतराते हुए कही थी क्यों कि अक्सर किसी न किसी सहेली को अपने भाई बहनों की शादी में जाना होता था और जब वे मुझे सुनातीं तो बहुत बुरा लगता था। मैं शादी के विषय में क्या सोचूंगी, सोचने लगी अपनी सहेलियों को क्या कहूँगी। वे तो मेरा मजाक बना देंगीं कि अपनी बहन की शादी का कह कर गयी और अपनी ही शादी कर आ गयी। मैं सारी रात यही सोचती रह गयी। माँ को भी मैं खुश नहीं देखी।
चाचा सिर्फ़ ख़बर करने आए थे शादी की तैयारी तो यहाँ दादी बाबा को ही करना था। चाचा दिन में खाने के बाद चले गए। दूसरे दिन सुबह बाबुजी आए और उनको चाय वगैरह देने के बाद माँ को पूछते सुनी लड़का क्या करता है। बाबुजी ने और क्या कहा वह तो नहीं सुनी पर यह सुनी कि लड़का इंजीनियरिंग में पढ़ता है। बाबुजी से बात करने के बाद से माँ भी खुश दिखीं।जन्मदिन के दिन दादी की ही बात रही और मुझे शाम में थोडी देर के लिए साड़ी पहनना पडा। जन्मदिन के दिन सुबह सुबह बाबुजी भी आ गए। बाबुजी जिस दिन आए उसके दूसरे दिन मेरी शादी खूब धूम धाम से हो गयी। मेरे पति उस समय इंजीनियरिंग में पढ़ते थे।
क्रमशः ........
मोमबत्ती का रस्म
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Kusum Thakur
on Sunday, July 12, 2009
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जन्मदिन
एक बार मैं अपने पति से बोली
इस बार मैं अपना जन्मदिन
खूब धूम धाम से मनाऊंगी।
पति बोले अरे भाग्यवान
जन्मदिन तो मना लोगी
उस रस्म का क्या करोगी
जिसमे केक काटी जाती है
और केक पर उतनी ही
मोमबत्तियां लगाई जातीं हैं
जितने उम्र के लोग होते हैं।
इतने दिनों से तुम अपनी
उम्र छुपाती आयी हो
जन्मदिन मनाओगी तो
सारा भेद खुल जाएगा।
ऐसा करते हैं _
बारह को तुम्हारा जन्मदिन है
तेरह को हमारी शादी का सालगिरह
क्यों न हम
तेरह को
दोनों ही धूम धाम से मना लें
कहने को शादी का सालगिरह
और मोमबत्तियां बस उतनी ही
जितने सालों से मैं तुम्हें
झेलता आया हूँ।।
-कुसुम ठाकुर-
एक लब्ध प्रतिष्ठित डॉक्टर को श्रद्धाँजलि
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Kusum Thakur
on Saturday, July 11, 2009
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डॉ. मोहन राय
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डॉ. मोहन राय एवं उनकी पत्नी डॉ. विमल यादव मयुर एवं अनुराधा के साथ
किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि हजारों को जीवन दान देने वाले डॉक्टर (cardiac thoracic surgeon)। जिसने कईयों को जीवन दान दिया हो कइयों की ह्रदय गति रुकने से बचाया हो वह अपने ही ह्रदय को नहीं समझ पायेगा। कैलिफोर्निया, ओरंज काउंटी (orange county) के रहने वाले लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. मोहन राय का निधन १८ मई २००९ को ६५ वर्ष की आयु में उनके निवास पर ह्रदय गति रुक जाने से हो गयी।
डॉ. मोहन राय पूर्णिया(बिहार) के रहने वाले थे तथा उन्होंने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई दरभंगा मेडिकल कॉलेज से की थी। इसी वर्ष फरवरी महीने में दरभंगा मेडिकल कॉलेज ने उनके सम्मान में एक द्वार बनवाया जिसका उदघाटन डॉ. राय के हाथों ही करवाया गया। यह उनकी अन्तिम भारत यात्रा थी।
यों तो मैं डॉ. राय से तीन बार मिली हूँ, पहली बार मेरे बेटे की शादी में दूसरी बार जब मैं कैलिफोर्निया(अमेरिका ) गयी थी तब फ्रीमोंट (Freemont) में, तीसरी बार जब मैं लॉसअन्जेल्स(Los Angeles) गयी थी तो उनके अनुरोध पर उनसे मिलने उनके यहाँ भी गयी थी पर पहले ही मुलाकात में मैं उनकी प्रशंसक बन गयी। एक उच्च विचार रखने वाले, मृदुभाषी डॉ. राय सही मायने में समाज सेवी भी थे। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें।
किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि हजारों को जीवन दान देने वाले डॉक्टर (cardiac thoracic surgeon)। जिसने कईयों को जीवन दान दिया हो कइयों की ह्रदय गति रुकने से बचाया हो वह अपने ही ह्रदय को नहीं समझ पायेगा। कैलिफोर्निया, ओरंज काउंटी (orange county) के रहने वाले लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. मोहन राय का निधन १८ मई २००९ को ६५ वर्ष की आयु में उनके निवास पर ह्रदय गति रुक जाने से हो गयी।
डॉ. मोहन राय पूर्णिया(बिहार) के रहने वाले थे तथा उन्होंने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई दरभंगा मेडिकल कॉलेज से की थी। इसी वर्ष फरवरी महीने में दरभंगा मेडिकल कॉलेज ने उनके सम्मान में एक द्वार बनवाया जिसका उदघाटन डॉ. राय के हाथों ही करवाया गया। यह उनकी अन्तिम भारत यात्रा थी।
यों तो मैं डॉ. राय से तीन बार मिली हूँ, पहली बार मेरे बेटे की शादी में दूसरी बार जब मैं कैलिफोर्निया(अमेरिका ) गयी थी तब फ्रीमोंट (Freemont) में, तीसरी बार जब मैं लॉसअन्जेल्स(Los Angeles) गयी थी तो उनके अनुरोध पर उनसे मिलने उनके यहाँ भी गयी थी पर पहले ही मुलाकात में मैं उनकी प्रशंसक बन गयी। एक उच्च विचार रखने वाले, मृदुभाषी डॉ. राय सही मायने में समाज सेवी भी थे। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें।
कवि कोकिल विद्यापति
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on Thursday, July 9, 2009
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कवि कोकिल विद्यापति
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कवि कोकिल विद्यापति
"कवि कोकिल विद्यापति" का पूरा नाम "विद्यापति ठाकुर था। धन्य है उनकी माता "हाँसिनी देवी"जिन्होंने ऐसे पुत्र रत्न को जन्म दिया, धन्य है विसपी गाँव जहाँ कवि कोकिल ने जन्म लिया।"श्री गणपति ठाकुर" ने कपिलेश्वर महादेव की अराधना कर ऐसे पुत्र रत्न को प्राप्त किया था। कहा जाता है कि स्वयं भोले नाथ ने कवि विद्यापति के यहाँ उगना(नौकर का नाम ) बनकर चाकरी की थी। ऐसा अनुमान है कि "कवि कोकिल विद्यापति" का जन्म विसपी गाँव में सन १३५० ई. में हुआ। अंत निकट देख वे गंगा लाभ को चले गए और बनारस में उनका देहावसान कार्तिक धवल त्रयोदसी को सन १४४० ई. में हुआ।
यह उन्हीं की इन पंक्तियों से पता चलता है। :
विद्यापतिक आयु अवसान।
कार्तिक धवल त्रयोदसी जान।।
कार्तिक धवल त्रयोदसी जान।।
यों तो कवि विद्यापति मथिली के कवि हैं परन्तु उनकी आरंभिक कुछ रचनाएँ अवहटट्ठ(भाषा) में पायी गयी हैं। अवहटट्ठ संस्कृत प्राकृत मिश्रित मैथिली है। कीर्तिलता इनकी पहली रचना राजा कीर्ति सिंह के नाम पर है जो अवहटट्ठ (भाषा) में ही है। कीर्तिलता के प्रथम पल्लव में कवि ने स्वयं लिखा है। :
देसिल बयना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा । ।
ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा । ।
अर्थात : "अपने देश या अपनी भाषा सबको मीठी लगती है। ,यही जानकर मैंने इसकी रचना की है"।
मिथिला में इनके लिखे पदों को घर घर में हर मौके पर, हर शुभ कार्यों में गाई जाती है, चाहे उपनयन संस्कार हों या विवाह। शिव स्तुति और भगवती स्तुति तो मिथिला के हर घर में बड़े ही भाव भक्ति से गायी जाती है। :
जय जय भैरवी असुर-भयाउनी
पशुपति- भामिनी माया
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनी
अनुगति गति तुअ पाया। ।
बासर रैन सबासन सोभित
चरन चंद्रमनि चूडा।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल,
कतौउ उगलि केलि कूडा । ।
सामर बरन, नयन अनुरंजित,
जलद जोग फुल कोका।
कट कट विकट ओठ पुट पाँडरि
लिधुर- फेन उठी फोका। ।
घन घन घनन घुघुरू कत बाजय,
हन हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,
पुत्र बिसरू जुनि माता। ।
-कुसुम ठाकुर-
पशुपति- भामिनी माया
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनी
अनुगति गति तुअ पाया। ।
बासर रैन सबासन सोभित
चरन चंद्रमनि चूडा।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल,
कतौउ उगलि केलि कूडा । ।
सामर बरन, नयन अनुरंजित,
जलद जोग फुल कोका।
कट कट विकट ओठ पुट पाँडरि
लिधुर- फेन उठी फोका। ।
घन घन घनन घुघुरू कत बाजय,
हन हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,
पुत्र बिसरू जुनि माता। ।
इन पंक्तियों में कवि कोकिल विद्यापति ने ने माँ के भैरवी रूप का वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि असुरों को भय प्रदान करने वाली हे शिवानी ! आपकी जय हो ! हे देवी ! हमें सहज सुबुद्धि दें, वरदान दें। हे देवी आपके चरणों का अनुगत हो चलने में ही हमारी सद्गति है। आपके चरण सदा मृतक के आसन पर शोभायमान रहता है , आपके सीमांत चंद्रमणि से अलंकृत हैं। कई दानवों को मारकर अपने मुख में रख लिया, अर्थात उसे विलीन कर दिया, तो कईयों गो उगल दिया, कुल्ला की तरह फेंक दिया। आपका रूप श्यामल और आँखें लाल-लाल। ऐसा प्रतीत होता है मानो आकाश में कमल खिला हो। क्रोध से आपके दांत कट-कट करते हुए, दांत के प्रहार से युगल होठ पांडुर फूल की तरह लाल हो गया है । उसपर विद्यमान रक्त का फेन बुलबुलामय है। आपके चरणों के नुपुर से घन- घन का संगीतमय स्वर निकल रहा है। हाथ में कृपाण हनहना रहा है । आपके चरणों के सेवक कवि विद्यापति कहते हैं कि , हे माता आप अपनी संतान को कभी न भूलें ।
तब और अब
Posted by
Kusum Thakur
on Saturday, July 4, 2009
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कविता
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पहले भी जाती थी
शादी ब्याह शुभ कार्यों में
आज भी जाती हूँ
अन्तर सिर्फ़ इतना है
पहले मैं सबसे आगे रहती थी
आज सबसे पीछे
पहले लोग मुझे
सौभाग्यवती कहते
आज सौ को हटा
भाग्यवती भी नहीं कहते
कहते हैं तो बस
इसमे हर्ज़ ही क्या है
यह कर लो वह कर लो
सब कर लो यह न कहता कोई।
- कुसुम ठाकुर-
शादी ब्याह शुभ कार्यों में
आज भी जाती हूँ
अन्तर सिर्फ़ इतना है
पहले मैं सबसे आगे रहती थी
आज सबसे पीछे
पहले लोग मुझे
सौभाग्यवती कहते
आज सौ को हटा
भाग्यवती भी नहीं कहते
कहते हैं तो बस
इसमे हर्ज़ ही क्या है
यह कर लो वह कर लो
सब कर लो यह न कहता कोई।
- कुसुम ठाकुर-