Thursday, October 29, 2009

ढूँढूँ तो पाऊँ मैं कैसे


"ढूँढू तो पाऊँ मैं कैसे "

पर ढूँढूँ मैं तुमको वैसे ,
ढूँढूँ तो पाऊँ मैं कैसे ?

आज मैं कहना कुछ चाहूँ
पर ,कहूँ किसे यह समझ न पाऊँ ।
याद करूँ मैं हर पल तुमको ,
 ढूँढूँ कैसे समझ न हमको।

कैसे बीता साथ सफर यह
समझ न पाई राज अभी वह।
अब तो लगता दिन भी भारी ,
रातों को तो स्वप्न ही सारी।

ध्यान में लिए छवि मैं सींचूं ,
पलक संपुटों में मैं भींचूं ।
जाने कब वह बस गयी उर में ,
चली गयी निद्रा के वश में ।

अर्ध रात्रि को नींद खुली तो ,
कानों ने यह बात सुनी तो _
मैंने तुमसे प्यार किया है ,
अपना सब कुछ वार दिया है ।

पर ढूँढूँ मैं तुमको वैसे ,
ढूढूं तो पाऊँ मैं कैसे ?

- कुसुम ठाकुर -




Wednesday, October 28, 2009

रहूँ मैं ऊहापोह में

"रहूँ मैं ऊहापोह में " 
 सोचूँ मैंने क्या बुरा किया , दिल की कही न छोड़ दिया । 
समय की पुकार को , किया कभी न अनसुना । 
 किया कभी न आत्मसात , ह्रदय की पुकार को । 
चली तो सदा साथ साथ , समय को निहार कर । 
 कठिन तो लागे है डगर , यह सोचूँ बार बार मैं । 
दिल की कही जो छोड़ दूँ । रहूँ मैं ऊहापोह में । 
 - कुसुम ठाकुर -

Saturday, October 24, 2009

कैसे कहूँ मुझे क्यों है फिकर इतनी


" मुझे क्यों है फिकर इतनी "

कैसे कहूँ मुझे क्यों है फिकर इतनी ,
कभी ख़ुद के लिए न शिकन जितनी ।
सुनी जब से है नासाज तबियत उसकी ,
न है चैन न पाऊँ तो ख़बर उसकी ।

कहने को तो दूर है वो मुझसे,
पर लगता है जैसे वो करीब रूह से ।
महसूस मैं करुँ बदलूँ जब करवट,
हाय इस हाल में तड़पूँ कब तक ।

लगूँ गैर सा मगर ये तड़प जब तक ,
आए भी न चैन न लूँ साँसें तब तक ।
कोई बतला दे मैं बयाँ करूँ कैसे ,
न मैं गैर, न हूँ अजनबी वैसे ।।

- कुसुम ठाकुर -


Friday, October 23, 2009

ख़ुद को मैं तन्हा पाई


"ख़ुद को मैं तन्हा पाई "

दुनिया की इस भीड़ में ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

खुशियों के अम्बार को देखी ,
चाही गले लगा लूँ उसको ।
खुशियों के अम्बार में जाकर ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

सोची दुःख में होश न होगा ,
चल पडूँ मैं साथ उसी सँग ।
दुःख के गोते खाई फ़िर भी ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

सपनों के सपने मैं देखूँ ,
तन्हाई उसमे क्यों हो ।
पर सपना तो बीच में टूटा ।
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।

कहने को तो साथ बहुत से ,
पर साथ चलन को मैं तरसी ।
चाहे कहीं भी जाऊँ मैं तो ,
ख़ुद को मैं तन्हा पाई ।।

- कुसुम ठाकुर -


Wednesday, October 21, 2009

बस रहो तुम सदा मुस्कुराते हुए



"बस रहो तुम सदा मुस्कुराते हुए "


 रहो तुम सदा मुस्कुराते हुए 
यही एक तमन्ना, यही आरजू 
कुछ कहूँ मैं तुम्हें तो सच मान लो ,
करो विश्वास हर मोड़ पर ।


मुझे अपने से ज्यादा भरोसा अगर ,
तुम पर ही है, यह मान लो 
तुम जो भी कहो सिरोधार्य है,
कुछ प्रमाणित करो न यही मैं कहूँ



तुम कहते सदा मैं खुली हुई किताब ,
 देर किस बात की, पढ़ लो मुझे 
तुम चाहो अगर, पूछ सकते मुझे ,
मैं व्याख्या करूँ ,हर एक प्रश्न का ।

- कुसुम ठाकुर -

Thursday, October 15, 2009

न वहाँ पर है चैन यहाँ पर न खुशियाँ

"न वहाँ पर है चैन यहाँ पर न खुशियाँ "
 
न वहाँ पर है चैन, यहाँ पर न खुशियाँ । 
जाऊँ फिर कहाँ, पाऊँ मैं न पंथियाँ । 
है नन्हा सा दिल, कह सके सारी रतियाँ । 
पाऊँ मैं न ठौर, कहूँ कैसे बतियाँ । 
न वहाँ पर है चैन................ । 
 थी मुद्दत से मेरी, तमन्ना यही कि । 
कोई मुझको मिल जाए, कह दूँ उसे कि । 
हो चाहत तुम मेरी, इबादत भी तुम हो । 
रहूँ मैं सदा बनके, तुम्हरी ही अँखियाँ । 
न वहाँ पर है चैन ................. । 
 दिल की लगी अब, सहा भी न जाए । 
कहूँ अब मैं कैसे, कहा भी न जाए । 
मिला है तो बस, अब मेरे लब सिले हैं । 
खामोशियाँ हैं, बेबस हूँ मैं तो । 
न वहाँ पर है चैन ........... । 
 - कुसुम ठाकुर -

Friday, October 9, 2009

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज


"जन्म मरण अज्ञात क्षितिज"

जन्म मरण अज्ञात क्षितिज ,
जिसे समझ सका न कोई ।
न इसका कोई मानदंड ,
और न जोड़ है इसका दूजा ।

कभी लगे यह चमत्कार सा ,
लगे कभी मृगमरीचिका ।
कभी तो लागे दूभर जीवन ,
कभी सात जन्म लागे कम ।

धूप के बाद छाँव है आता ,
है यह रीति प्रकृति का ।
पर जीवन की धूप छाँव ,
रहे कभी न एक सा ।

कभी लगे जन्मों का फल ,
पर साथ भी फल है मिलता ।
पुनर्जन्म भी बीच में आए ,
 पर नहीं सिद्ध है कर पाए

आत्मा तो है सदा अमर ,
दार्शनिकों का कहना ।
वैज्ञानिकों ने बस इतना माना ,
कुछ नष्ट न होवे पूर्णतः ।।

- कुसुम ठाकुर -



Wednesday, October 7, 2009

दिल की बातें

"दिल की बातें " 
 कहना चाहूँ दिल की बातें , 
पर कहूँ कैसे उसे , 
जिसे न है ख़ुद की ख़बर , 
वो करे कैसे परवाह मगर। 
 चाहूँ तो कहना बहुत कुछ ,
 कहूँ कैसे समझ ना सकूँ , 
नयन तो फ़िर भी हैं उद्यत , 
पर होठ हिलते नहीं । 
 हो गयी मुद्दत कि मैंने ,
 दिल की कही अब छोड़ दी , 
शब्द तो लेतीं हिलोरें , 
पर कलम उठते नहीं । 
 लेखनी तो ली हाथों में , 
पर शब्द जँचते नहीं , 
शब्दों की बंदिश न भाती , 
है मूक भावना मेरी।।
 - कुसुम ठाकुर -

Monday, October 5, 2009

वीरान उपवन



"वीरान उपवन "

आज यह वीरान उपवन ,
किसकी बाट तक रहा है ।
शायद कोई माली आए ,
यह लगी मन में जगी है ।।


वह समय था जब कि उपवन ,
फूलों लताओं से महक उठता ।
पर आज उसकी दशा को ,
देखने न आते परिंदे ।।


था समय वह एक अपना ,
जब कि वह अभिमान में था ।
तितलियों की बात क्या थी ,
भौंरे भी मंडराते रहते ।।

कलियाँ जहाँ खिलखिलातीं ,
छटाएँ फूलों की निराली ।
रस चुरातीं मधुमक्खियाँ ,
अठखेलियाँ करता पवन भी ।।


है कोई उसका न माली ,
न कोई सींचे उसे अब ।।
जहाँ थे चुने जाते तिनके ,
सूखे पत्ते पड़े हुए अब ।।


- कुसुम ठाकुर -