Friday, January 15, 2016

झलक दिखाने आ जाओ

'झलक दिखाने आ जाओ'

पलभर को कहीं गफलत ही सही, चेहरा तो दिखाने आ जाओ
तुम बुझे हुए नयनों के इन पलकों में समाने आ जाओ

प्रिय रुठे क्यों हो तुम अब तक बोलो कैसी है मजबूरी
ये  बेचैनी मैं कासे कहूँ एहसास जगाने आ जाओ

हो दूर मगर तुम जुदा नहीं आंसूं का साथ हुआ अपना
तन्हाई संग-संग रहती है पल भर को सताने आ जाओ

इस पार हैं हम उस पार हो तुम फिर मिलना कैसे हो संभव
सपनों में यकीं है मुझको तुम इक झलक दिखाने आ जाओ

दिन भर तो प्रतीक्षा कुसुम करे फिर शाम ढले वो मुरझाए
भंवरों की गुंजन यही कहे सपनों को सजाने आ जाओ

-कुसुम ठाकर-

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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