Friday, January 28, 2011

क्या कहूँ,कब कहूँ ?

क्या कहूँ, कब कहूँ,चुप रहूँ या कहूँ ?
अपने दिल की सही दास्ताँ मैं कहूँ ?

मुद्दतों से कभी, दिल की माना नहीं,
अब मैं आहें भरूँ या तकब्बुर कहूँ .

टूटा अब तो वहम, याद आए कसम,
जब मैं तनहा रहूँ, अपने दिल से कहूँ.

आरज़ू थी मेरी, अंजुमन में सही,
बस मैं दीदार करूँ, चाहे कुछ न कहूँ.

- कुसुम ठाकुर-

शब्दार्थ :
 तकब्बुर - अभिमान, घमंड 
अंजुमन -मजलिस, सभा 

6 comments:

  1. सुन्दर ग़ज़ल ! अंतिम शेर लाजवाब !

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  2. अहसासों को सुंदर रूप दिया है आपने।

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  3. सुन्दर विचार....बधाई.. आपकी भावनाओं को मैं कुछ इस तरह स्वर दे रहा हूँ.
    दिल की बातें दिल से कहना अच्छा है.
    दिल ही अपना दोस्त मगर ये सच्चा है.

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद !!

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