Wednesday, February 23, 2011

अपना सा आभास तो लगता

"अपना सा आभास तो लगता"

समझूं कैसे क्या है रिश्ता,
बिन देखे क्यूँ स्नेह पनपता।

है क्या उलझन समझ न पाऊँ,
होंठ हिले, न शब्द निकलता।

राह तकूँ मैं प्रतिपल जिसकी,
उस तक न सन्देश पहुँचता।

वह न समझे कैसे कह दूँ,
अपना सा आभास तो लगता।

यही  कुसुम जीवन की उलझन
ह्रदय प्रेम की यही विकलता

- कुसुम ठाकुर - 


8 comments:

  1. है क्या उलझन समझ न पाऊँ,
    होंठ हिले, न शब्द निकलता।
    भावुक कर देने वाली अभिव्यक्ति।

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  2. अच्छी पंक्तियाँ..!!

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  3. है क्या उलझन समझ न पाऊँ,
    होंठ हिले, न शब्द निकलता।

    वाह...लाजवाब रचना...बधाई...

    नीरज

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  4. वह ना समझे कैसे कह दूं
    अपना सा आभास तो लगता ...
    डैफोडिल की पत्तियां तोड़ने का दृश्य साकार हो उठा है !

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  5. Lehro Ko Pyar Hua Kinaro Se,
    Par Uski Shadi Hogai Sagar Se,
    Aaj Bhi Kinaro Ki Preet Lehro Ko Khich Lati He,
    Lekin Badnaam Na Ho MOHABAT Isliye Laut Jati He......

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  6. ISS BAAR AAPKI KAVITAA NE DIL KO AUR GAHARAI TAK CHHOO LIYAA . CHHUND BHI KASAA HUAA HAI. BADHAI.

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  7. आपकी रचना की तारीफ में एस यही कहना चाहूंगा कि -
    उलझन में उलझाता है वो
    पहचान नहीं बतलाता है वो
    ढूंढ सके जो उसकी कुदरत
    झलक मगर दिखलाता है वो

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  8. राह तकूँ मैं प्रतिपल जिसकी,
    उस तक न सन्देश पहुँचता।बहुत अच्छी पक्तिय है .

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