"हुआ है सवेरा"
बह चली ऐसी आँधी, छाया नभ में अँधेरा,
चहु दिशा कुछ न सूझे, उड़ गया है बसेरा।
चहु दिशा कुछ न सूझे, उड़ गया है बसेरा।
दिन हो गया है काला, रात घनघोर अँधेरा,
लगता है अब न होगा, इस अंधियारे का सवेरा।
टहनियों पर काँपते खग, हैं बच्चों को समेटे ,
आस किरणों का बचा है जाने कब हो सवेरा।
पौ फटते चहक उठे खग, देख उषा मुस्कुराती,
प्रलय के संताप से न रुके,जब हुआ हो सवेरा।
खोज में चल पड़े खग, क्यों हो उत्साह कम,
नीड़ निर्माण का सुख, क्यों न हो हुआ है सवेरा।
- कुसुम ठाकुर-
- कुसुम ठाकुर-
बहुत प्यरी सी कविता ...धन्यवाद
ReplyDeleteबड़ा ही सुन्दर चित्रण आपने प्रस्तुत किया है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ,विषय में खग और तुकान्त में बसेरा , सबेरा और अंधेरा के अलावा कुछ और शब्द लाये जायें तो शायद ये और ख़ूबसूरत लगती।
ReplyDelete