Saturday, April 24, 2010

फिर से वे सपने जगा रही जो

" फिर से वे सपने जगा रही जो "

तुम्हारे ख़्वाबों में बस रही जो 
ये कैसी उलझन है डस रही जो 

ये तेरे वादे हैं सारी रस्में 
है याद आए सता रही जो 

तुमने दिया है जो सारी खुशियाँ 
उसे ही पलकों में सज़ा रही जो 

मुझे पता अब मिले कहाँ जब 
ये दिल की धड़कन बढ़ा रही जो 

कैसे कहूँ अब चाहत न जाना 
बस अब तो दूरी सता रही जो 

होठों पे छाई है दिल में खुशियाँ 
फिर से वे सपने जगा रही जो 

- कुसुम ठाकुर -

Monday, April 19, 2010

ये कैसी उल्फत जो हूँ दुखी मैं

" ये कैसी उल्फत जो हूँ दुखी मैं "  

तुम्हारी चाहत पर मर मिटी मैं
ये कैसी उल्फत जो हूँ दुखी मैं 

मुझे पता तब खता हुआ जब  
फिर कैसी रंजिश जो हूँ दुखी मैं 

मैं कैसे कह दूँ करूँ इबादत 
जफा मिले तो रहूँ दुखी मैं 

लगे तो रूह भी वफ़ा न जाने 
चाहूँ जो जन्नत रहूँ दुखी मैं 

ये कैसी चाहत ये कैसी उल्फत 
कुसुम ना समझे क्यों हूँ दुखी मैं

मिला है मुझको नेमत से कम क्या
फिर कैसी उलझन जो हूँ दुखी मैं  

- कुसुम ठाकुर -

Wednesday, April 14, 2010

गुम सुम सी बैठी रहती हूँ

"गुम सुम सी बैठी रहती हूँ "

गुम सुम सी बैठी रहती हूँ।
ख़्वाबों को ख्यालों को ,
नयनों मे बसाती रहती हूँ ।
थक जाते हैं मेरे ये नयन ,
पर मैं तो कभी नहीं थकती ।
गुम सुम ........................ ।
कानों को कभी लगे आहट ,
आते हैं होठों पर ये हँसी ।
पल भर की ये उम्मीदें थीं ,
दूसरे क्षण ही विलीन हुए ।
गुम सुम सी ................... ।
फिर आया एक झोंका ऐसा ,
सब लेकर दूर चला गया ।
अब बैठी हूँ चुप चाप मगर ,
न ख्वाब है, न ख़्याल ही है।
-कुसुम ठाकुर -