Saturday, April 24, 2010

फिर से वे सपने जगा रही जो

" फिर से वे सपने जगा रही जो "

तुम्हारे ख़्वाबों में बस रही जो 
ये कैसी उलझन है डस रही जो 

ये तेरे वादे हैं सारी रस्में 
है याद आए सता रही जो 

तुमने दिया है जो सारी खुशियाँ 
उसे ही पलकों में सज़ा रही जो 

मुझे पता अब मिले कहाँ जब 
ये दिल की धड़कन बढ़ा रही जो 

कैसे कहूँ अब चाहत न जाना 
बस अब तो दूरी सता रही जो 

होठों पे छाई है दिल में खुशियाँ 
फिर से वे सपने जगा रही जो 

- कुसुम ठाकुर -

12 comments:

  1. मधुर स्‍वप्‍न कविता के लिए णन्‍यवाद.

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  2. Bahut hi sunder rachana hai !!!

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  3. अच्छे भाव

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  4. तुमने दिया है जो सारी खुशियाँ
    उसे ही पलकों में सज़ा रही जो
    चलो इस बहाने पलको में छिपे पड़े गम को बाहर होना पड़ेगा.
    अच्छी रचना

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  5. ये कैसी उलझन है डस रही जो .
    अच्छी लाइनें, मन से फूटे शब्दों की लड़ी।

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  6. मैं एक ही बात कहूँगा कविता में अगर
    पूरा मजा लेना है तो किसी ऐसे नारी
    ह्रदय की कविता पढो जो प्रोफ़ेशनल
    कवियत्री न हो अगर आप बुरा न मानें
    तो अपनी प्रेमिका याद आ गयी ..वो दिन
    याद आ गये..इस हेतु आपको बधाई

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  7. कुसुम जी बहुत बढ़िया रचना है आपकी...पढ़ कर अच्छा लगा..धन्यवाद स्वीकारें

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  8. सुन्दर भाव कुसुम जी।

    गजब कुसुम सी भाव-दशा है
    मुझको कविता पढ़ा रही जो

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  9. वाह ख़ूबसूरत सपनों का रंग...

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  10. वसंत के गीत मधुर वो सुना रही ..है ....सपने फिर से दिखा रही है ...बहुत अच्छी कविता लिखी है आपने .गहरी सोच

    satya prakash mishra

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  11. खूबसूरत खयाल है यह ।

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