" फिर से वे सपने जगा रही जो "
तुम्हारे ख़्वाबों में बस रही जो
ये कैसी उलझन है डस रही जो
ये तेरे वादे हैं सारी रस्में
है याद आए सता रही जो
तुमने दिया है जो सारी खुशियाँ
उसे ही पलकों में सज़ा रही जो
मुझे पता अब मिले कहाँ जब
ये दिल की धड़कन बढ़ा रही जो
कैसे कहूँ अब चाहत न जाना
बस अब तो दूरी सता रही जो
होठों पे छाई है दिल में खुशियाँ
फिर से वे सपने जगा रही जो
- कुसुम ठाकुर -
waah kusum ji bahut khoob....
ReplyDeleteमधुर स्वप्न कविता के लिए णन्यवाद.
ReplyDeleteBahut hi sunder rachana hai !!!
ReplyDeleteअच्छे भाव
ReplyDeleteतुमने दिया है जो सारी खुशियाँ
ReplyDeleteउसे ही पलकों में सज़ा रही जो
चलो इस बहाने पलको में छिपे पड़े गम को बाहर होना पड़ेगा.
अच्छी रचना
ये कैसी उलझन है डस रही जो .
ReplyDeleteअच्छी लाइनें, मन से फूटे शब्दों की लड़ी।
मैं एक ही बात कहूँगा कविता में अगर
ReplyDeleteपूरा मजा लेना है तो किसी ऐसे नारी
ह्रदय की कविता पढो जो प्रोफ़ेशनल
कवियत्री न हो अगर आप बुरा न मानें
तो अपनी प्रेमिका याद आ गयी ..वो दिन
याद आ गये..इस हेतु आपको बधाई
कुसुम जी बहुत बढ़िया रचना है आपकी...पढ़ कर अच्छा लगा..धन्यवाद स्वीकारें
ReplyDeleteसुन्दर भाव कुसुम जी।
ReplyDeleteगजब कुसुम सी भाव-दशा है
मुझको कविता पढ़ा रही जो
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
वाह ख़ूबसूरत सपनों का रंग...
ReplyDeleteवसंत के गीत मधुर वो सुना रही ..है ....सपने फिर से दिखा रही है ...बहुत अच्छी कविता लिखी है आपने .गहरी सोच
ReplyDeletesatya prakash mishra
खूबसूरत खयाल है यह ।
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