Saturday, December 3, 2022

" रोटरी के एक प्रेसिडेंट की व्यथा "

  " एक प्रेसिडेंट की व्यथा "

सन् 2012 में मैंने रोटरी की सदस्यता ली और उसका एकमात्र कारण यह था कि मैं बड़े स्तर पर सामाजिक कार्य करना चाहती थी और ज्यादा से ज्यादा जरूरत मंदो के काम आ सकूं इसी ध्येय के साथ मैंने 12 जुलाई 2012 को अपने जन्मदिन के दिन रोटरी क्लब ऑफ जमशेदपुर मिड टाउन की सदस्यता ली. मैं रोटरी में शामिल होने से पहले भी सामाजिक कार्यों से जुड़ी थी और गांव बस्तियों की खाक छानती रहती थी . आज भी उन गांव और बस्तियों के लोग मुझे जानते हैं और याद करते हैं. 

मेरी आदत है, जिस काम का जिम्मा मैं लेती; मेरी कोशिश होती कि उसकी जिम्मेदारी मैं अच्छे से निभाऊं और  रोटरी में तो काम करने के लिए ही शामिल हुई थी.  मेरी कोशिश होती कि मैं सारे मीटिंग, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस  में भाग लूं ताकि मुझे सीखने को मिले और बहुत कुछ सीखा भी मैंने।  हर मीटिंग, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस में रोटरी के एक से एक वक्ता होते; जिनसे सीखने के लिए बहुत कुछ होता। मैं हर वक्ता के वक्तव्य को बड़े ही ध्यान से सुनती और वापस आकर अपने क्लब के सदस्यों से उनकी तारीफ और बखान भी करती। पर एक बात जो हर मीटिंग में आम तौर पर समझ में आता वो यह कि प्रेसिडेंट के लिए 365 दिन बहुत अहम होता है और उन 365 दिन का बॉस प्रेसिडेंट होता है. 

क्लब में शामिल होने के शुरू के दिनों में तो नहीं पर कुछ सालों के बाद जब मुझे भी प्रेसिडेंट के लायक क्लब के सदस्य समझने लगे तब मैं भी आम इंसानों की तरह, प्रेसिडेंट बनने के मंसूबे देखने लगी. मुझे लगने लगा प्रेसिडेंट बनकर मैं कुछ विशिष्ट बन जाऊंगी और विशिष्ट बनने  की  इच्छा किसे नहीं होती। विशिष्ट बनने पर कुछ कर्तव्य भी होते और उन कर्तव्यों में एक कर्तव्य होता, सारे मीटिंग, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस में शामिल होना। विशिष्ट होने पर दूसरे क्लब वाले भी अपने अपने इंस्टॉलेशन में और विशिष्ट अवसरों पर निमंत्रण देंगें ही; वहां भी तो जाना जरूरी हो जाएगा। आखिर 365 दिनों की बॉस जो रहूंगी। यह सब सोच मैंने अपनी तैयारी शुरू कर दी कहां कहां जाना होगा यह सब  मन ही मन  मैंने  तय कर लिया और वहां के कार्यक्रम के अनुसार कपड़े वगैरह की तैयारी भी शुरू कर दी खासकर इंस्टॉलेशन और कॉन्फ्रेंस की मैंने बहुत जोर-शोर से तैयारी की थी. या यूं कहें तो इंस्टॉलेशन और कॉन्फ्रेंस की तैयारी तो मैंने उसी दिन से शुरू कर दी थी जिस दिन क्लब सदस्यों ने मुझे प्रेसिडेंट बनाने का निर्णय लिया जिसके लिए मैंने तुरंत सहमति भी दे दी थी.  इंस्टॉलेशन कहां और कैसे करना है वह तो उसी दिन से सोचना शुरू कर दी थी जिस दिन मेरा प्रेसिडेंट बनना तय हुआ. 

एक साल व्यस्तता रहेगी यह सोच होली में अपने बड़े बेटे के पास पूना गई और मेरे लौटने की तारीख से पहले ही लॉक डाउन लग गया.  किस्मत तो देखो इंस्टॉलेशन की सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई. आठ क्लबों का इंस्टॉलेशन एक साथ वो भी ऑनलाइन होना तय हुआ. तैयारी में एक साथ आठ बॉस को इकठ्ठा निर्णय लेना था साथ ही कुछ सुपर बॉस भी थे. कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पास जिन रंगो की अच्छी अच्छी साड़ियां पूना में थीं वो सारी की सारी रिजेक्ट कर दी गई .......... एक रंग जो हम सारी प्रेसिडेंट को पहनने का निर्णय लिया गया उस रंग  की बहुत ही साधारण सी साड़ी मेरे पास थी. लॉकडाउन के कारण न ही ऐसी परिस्थिति थी कि साड़ी खरीदी जाए न समय था बस उसी साड़ी को पहन मैंने ऑनलाइन ही प्रेसिडेंट की शपथ ली. उस दिन मायूस तो हुई पर मन को सांत्वना देते हुए सोची कॉन्फ्रेंस में सारी कसर निकाल लूंगी पर मेरी किस्मत में वो भी दिन नहीं आया। कॉन्फ्रेंस के साथ सारे के सारे कार्यक्रम रद्द हो गए और उन्हें ऑनलाइन ही कर दिया गया. हर कार्यक्रम के बाद आपस के विचार विमर्श से और मीटिंग के बाद उम्मीद जगती कि अगला कार्यक्रम में हम मिल सकते हैं; पर वह दिन नहीं आया और हमारा स्वर्णिम 365 दिन भी खत्म हो गए। मेरी सारी की सारी तैयारी धरी की धरी रह गई। हमारे इनकमिंग गवर्नर ने इंस्टॉलेशन का वोडियो शूट का बहुत ही अच्छा निर्णय लिया, जैसे ही पता चला कॉलर एक्सचेंज प्रोग्राम की वीडियो शूट होगी मेरी संजोए हुए साड़ियों में से एक साड़ी पहनने की उम्मीद जगी; यह सोच मैं खुशी से फूली नहीं समाई। "चलो उतनी साड़ियों  में से एक साड़ी तो पहनने  को मिलेगी "। मन में आया अब तो "मैं बॉस भी नहीं हूं, मात्र बॉस को कॉलर सुपुर्द करना है", पर कोई एक साड़ी पहनने का मौका तो मिलेगा। चूंकि एक भी आउटगोइंग प्रेसिडेंट कॉलर एक्सचेंज शूट वाली मीटिंग में नहीं थे अतः मेसेज मिला बस एक ही रंग बचा है आउटगोइंग प्रेसिडेंट के लिए, बाकी सब तय हो गया है. आज भी जब मैं अपनी आलमारी खोलती हूं लगता है साड़ियां मुझे चिढ़ा रही हैं.  

4 comments:

  1. जीवनानुभव पर रोचक सृजन ।

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  2. प्रेसिडेंट शिप की रोचक व्यथा गाथा

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  3. ओह्हो ! कभी कभी उम्मीदों में ऐसे ही पानी फिर जाता है ।
    बहुत सुन्दर संस्मरण।

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