1908 ई. में अमेरिका की 15000 कामकाजी महिलाएं अपने शोषण के विरुद्ध और अपने अधिकारों की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं। उनका मुख्य मुद्दा महिला और पुरुष के तनख्वाह में असमानता की थी । 1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ-साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा कर दी । 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया। ८ मार्च 1975 को अमेरिका में पहली बार अंतराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन हुआ और तब से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। परन्तु कुछ वर्षों से " हर संस्थान में महिला दिवस मनाने की होड़ सी लगी रहती है ।
परंतु कुछ वर्षों से सभी संस्थानों की कोशिश होती है वे अच्छे से इस दिन को मनाएं और अपने आस पास की विशिष्ट महिलाओं को सम्मानित करें । ऐसा नहीं है कि किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ कई उपाधि, सम्मान दी जाती है । सम्मान बोलकर देने की भी जरूरत नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। क्या एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिलाओं का सम्मान हो जाता है ? यह मेरा प्रश्न उन सभी लोगों से है जो महिला दिवस के पक्षधर हैं ? किस महिला की क्या उपलब्धि है यह हम महिला दिवस के अवसर पर खोज तो लेते हैं पर साल के बाकी दिन ? क्या कभी अपने घर की महिलाओं पर ध्यान दिया है, उनके योगदान पर कभी दो शब्द सराहना के बोला है ? मेरा घर से तात्पर्य केवल अपने घर से ही नही है , अपने संस्थान अपने दफ्तरों से भी है एक बार घर की महिलाओं की सराहना करके भी देखिए ।
कहने को तो आज सभी कहते हैं "नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं". परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जबतक होती रहेगी तबतक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता। बचपन में समानार्थक शब्द जब भी पढ़ती थी बस नारी के पर्यायवाची शब्द "अबला " पर आकर अटक जाती थी। मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठता -"इतने शब्द हैं नारी के फिर अबला क्यों कहते हैं"? अबला से मुझे निरीह प्राणी का एहसास होता है। सोचती थी जो त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति मानी जाती है वह अबला कैसे हो सकती ? एक तरफ हमारे पुरानों में नारी शक्ति का जिक्र है दूसरी तरफ हमारे व्याकरण में उसी नारी के लिए अबला शब्द का प्रयोग क्यों ? पर मुझे उत्तर मिल नहीं मिल पाता । मैं अबला शब्द का प्रयोग कभी नहीं करती थी बल्कि अपनी सहपाठियों को भी उसके बदले कोई और शब्द लिखने का सुझाव देती थी।
जब मैं अपने बच्चों को पढ़ाने लगी उस समय भी बच्चों को नारी के समानार्थक शब्दों में "अबला" शब्द लिखने पढ़ने नहीं देती थी और बड़े ही प्यार और चालाकी से नारी के दूसरे-दूसरे शब्द लिखवा देती । मालूम नहीं क्यों अबला शब्द मुझे गाली सा लगता था और अब भी लगता है। आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ । इन सबके बावजूद उसके स्वाभाविक रूप में कोई बदलाव नहीं आया है । आज भी हमारे यहां लोग विधवा और परित्यक्ता को बेचारी अलंकार के बिना नहीं कहते । क्या मात्र पति के न रहने या साथ न रहने से वह बेचारी हो जाती है । यदि औरतें पति के नही रहने पर बेचारी हो जाती हैं तो मर्द के विदुर होने पर बेचारा अलंकार क्यों नही लगाया जाता, यह आज के समाज से मेरा प्रश्न है ?
ऐसा नहीं है कि नारी की दशा में औरतों का कोई दोष नही आज की नारी कुंठा ग्रसित हैं, जो उन्हें ऊपर उठाने में बाधक हो सकता है । हमारे साथ कल क्या हुआ उस विषय में सोचने के बदले यदि हम अपने आज के बारे में सोचें तो हमारा आत्म विश्वास और अधिक बढेगा । बीता हुआ कल तो हमें कमजोर बनाता है , हमारे मन में आक्रोश ,कुंठा , बदले की भावना को जन्म देता है । फिर क्यों हम अपने अच्छे बुरे की तुलना कल से करें और बात बात में नीचा दिखाने की कोशिश करें। जरूरी नहीं कि उंगली उठाने से ही गल्ती का एहसास हो । हमरा ह्रदय हमारे हर अच्छे बुरे की गवाही देता है, धैर्य भी तो नारी का एक रूप है।
हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए सरकार के द्वारा भी आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन भी । साल के बाक़ी दिनो में हर क्षेत्र में अब भी न वह सम्मान न वह बराबरी मिल पाता है जिसकी वह हकदार है या जो महिला दिवस मनाते वक्त कही जाती है। आज की हर नारी से मेरा एक प्रश्न, मेरे हिसाब से जिसपर सोचने की जरूरत है। एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है । यहाँ भी अबला का एहसास होता है । क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे ? क्या "कोटा" का ताना बंद हो जायेगा ? हममें क्षमता है जिसके बल पर हम किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं । जरूरत है तो बस हमें कमतर न समझा जाए कमजोर न समझा जाए ।
महिला दिवस, नारी दिवस के औचित्य पर मेरा व्यक्तिगत विचार : नारी तो व्यापकता का द्योतक है, क्या मात्र एक दिन ही महिलाओं के लिए काफी है ? एक दिन ढोल पीट-पीटकर महिला दिवस मना लेने से जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है या महिलाओं के हिस्से की इज्जत और सम्मान बस वहीँ तक सिमित है? नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी । यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होता ही है। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी अबला शब्द व्याकरण से नहीं निकल पाया है और तब तक नहीं निकल पायेगा जबतक हम नीचा दिखाने की कोशिश करते रहेंगे ,आरक्षण की मांग करते रहेंगे । हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की और तब "नारी" शब्द का पर्यायवाची "अबला" हमारे व्याकरण से निकल पायेगा और उस दिन के बाद से हर दिन महिला दिवस होगा ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-03-2017) को "कम्प्यूटर और इण्टरनेट" (चर्चा अंक-2905) (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छा लिखा है कि एक दिन ही क्यों....हमारे लिए
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