Wednesday, July 28, 2010

हाइकु सुख औे दुुख

" सुख औे दुुख " 

सुख औ दुःख 
जीवन के दो पाट 
तो गम कैसा 

चलते रहो 
हौसला ना हो कम 
दूरियाँ क्या है 

लक्ष्य जो करो 
ज्यों ध्यान तुम धरो 
मिलता फल 

हार ना मानो 
ज्यों सतत प्रयास 
मंजिल पाओ 

कर्म ही पूजा 
उस सम ना दूजा 
कहो उल्लास 

ध्यान धरो 
बस मौन ही रहो 
पाओ उल्लास 

- कुसुम ठाकुर -

Tuesday, July 27, 2010

पर मुझे स्वर्ग सा नहीं लगा !!

मुझे अमेरिका आए हुए एक महीने से ज्यादा हो गए, १६ जून को आई थी. एक महिना कैसे बीता, पता ही नहीं चला . वैसे भी बच्चों के साथ रहने पर समय का पता कहाँ चलता है . इस बार तो कुछ ख़ास ही व्यस्तता और ख़ुशी है . बेटे ने घर जो लिय़ा है . बच्चे की तरक्की प्रत्येक माता पिता को खुशियाँ देती है . खासकर ऐसे माता पिता को जिसे अकेले ही माँ और पिता दोनों की जिम्मेदारी निभानी पड़ी हो और वह बड़े ही तन्मयता से अपने बच्चों में अपनी आशा को पूरी होते देखने की आशा रखता हो. उनकी हर छोटी बड़ी इच्छा का ध्यान यह सोच रखता हो कि कहीं उसे अपने माता पिता दोनों में से किसी एक की कमी महसूस ना हो और अपनी इच्छाओं को कभी उनपर थोपने की कोशिश ना करता हो. जो समाज परिवार से परे जाकर अपने बच्चे की हर इच्छा और ख़ुशी में शामिल होने से कभी ना चुका हो. 

जीवन का १५ साल कैसे बीता समझ में ही नहीं आता  ...... बच्चे कब बड़े हुए , कैसे बड़े हुए, इसका भान तो है . अपनी जिम्मेदारी निभाने में कहाँ तक सफल हुई इसकी सफलता और असफलता का लेखा जोखा कुछ वर्षों बाद ही लिया जा सकता है पर अपने बच्चों की ख़ुशी और तरक्की देख दूसरे माता पिता की तरह मैं भी ख़ुशी से फूली नहीं समाती . 

अमेरिका के शहर बहुत छोटे छोटे सुन्दर और व्यवस्थित हैं . शहर की सीमा नाम की कोई चीज़ ही नहीं है . कहाँ से शहर शुरू होता और कहाँ खत्म होता यह आम पर्यटक या नए लोगों को समझ पाना बहुत मुश्किल है.  २३ को गृहप्रवेश था और अब हम नए घर में रह रहे हैं . "वेस्ट औरेंज" नु यार्क शहर से मात्र १५ मील की दूरी पर अवस्थित है . प्रसिद्ध वैज्ञानिक और बल्ब के अविष्कारक ने यहीं रह बल्ब का आविष्कार किया और अपनी अंतिम सांस भी यहीं पर लिय़ा . इस वजह से इस शहर का अपना अलग महत्त्व है. एडिसन की यादों को ताज़ा रखने के लिए खास खास जगहों पर प्रतीक के रूप में बड़े बड़े बल्ब बने हुए हैं . एडिसन हिस्टोरिक पार्क, संग्रहालय इस शहर में अब भी है . 

एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि अमेरिका का सबसे अच्छा क्या लगा...... तुरन्त ही मैंने जवाब दिया वहाँ के लोगों में अनुशासन और प्रदूषण रहित वातावरण . अमेरिका का नु यार्क वाला भाग भी अपनी प्राकृतिक छटाओं से भरा है .  हमारा घर पहाड़ों पर अवस्थित है और घर के ठीक पीछे जंगल है जहाँ हिरन और तरह तरह के जानवरों को स्वाभिक रूप से विचरण करते देखा जा सकता है .

मैं पूरा अमेरिका घूम चुकी हूँ ऐसा तो नहीं कह सकती, क्यों कि अमेरिका बहुत बड़ा है , पर अमेरिका में काफी घूम चुकी हूँ यह कह सकती हूँ . खान पान से लेकर अनुशासन, सफाई और यातायात तक हर जगह बहुत सी सुविधाएँ हैं जो हमारे भारत में अभी होने में बहुत समय लगेगा . फिर भी कुछ दिनों रहने के बाद अपने वतन की याद तो आती ही है . घूमने के लिए आना और बात है .........पर लालसा कभी नहीं होती कि यहाँ सदा के लिए बस जाऊं . 

अभी कुछ ही दिनों पहले मैं नेट पर किसी की लेख पढ़ रही थी .....उन्होंने लिखा था  "हमारे यहाँ मरने के बाद लोग स्वर्ग जाते है .........अमेरिका तो साक्षात स्वर्ग है ". अमेरिका अच्छा तो मुझे बहुत लगता है सुविधाओं की तो बात ही क्या है . पर मुझे स्वर्ग सा नहीं लगा  . मैं तो कहूँगी स्वर्ग की परिभाषा ही शायद उन्हें नहीं मालूम . एक तो स्वर्ग किसने देखा है. जिसे देखा जा सके वह स्वर्ग कैसे हो सकता है ? स्वर्ग की तो मात्र कलपना की जा सकती है .

Wednesday, July 21, 2010

अब खुशियाँ समेटूं मैं

"अब खुशियाँ समेटूं मैं " 

मुद्दत बाद मिली खुशियाँ, उसे कैसे संभालूं मैं 
तुम जो दूर हो इतनी, कैसे ना बताऊँ मैं 

कहने को तो उद्धत है,चंचल शोख नटखट नैना 
मगर जब पास आओगे, रहूँ बस मूक जानूं मैं 

लगे तो सब मुझे सपना, मगर अनमोल और अपना 
पलटकर तुम जो ना देखो, समझ उलझन बता दूँ मैं 

लगे मुझको तो सच्चाई, सुखी जीवन जो कहते हैं 
दुःख में सुख जो मैं ढूंढूं, अब खुशियाँ समेटूं मैं 

गिले शिकवे करे कैसे, कुसुम को यह ना भाता है 
लफ़्ज़ों की कीमत को, कहो कैसे ना सम्भालूँ मैं 

- कुसुम ठाकुर-

Monday, July 12, 2010

मन को समझाती रही !!

मन को समझाती रही "

यूँ गए कि  फिर न आए मन को समझाती रही 
बागबाँ बन अपने सूने मन को भरमाती रही 

शोख चंचल भावना हो पर फ़रह मुमकिन कहाँ 
सपनों मे थी कुछ संजोई सोच मुस्काती रही 

इब्तिदा जो प्यार की अलफ़ाज़ से मुमकिन नहीं  
दिल के हर एहसास का मैं गीत दुहराती रही 

चंद लम्हों का ये जीवन कुछ भला मैं भी करूँ  
कोशिशें हर पल करूँ और गम को बहलाती रही

आरज़ू थी कुछ कुसुम की अश्क शब्दों में ढले
काश मिल जाए वो खुशियाँ मन को झुठलाती रही 

- कुसुम ठाकुर -


शब्दार्थ :
फ़रह - प्रसन्नता, ख़ुशी 
इब्तिदा - शुरू , प्रारंभ 
अलफ़ाज़ - शब्द समूह 
अश्क - आंसू